शनिवार, 31 दिसंबर 2016

सुखी होने की तरकीब


दूसरों का सुख दिखायी पड़ता है, अपना दुःख दिखायी पड़ता है।अपना सुख दिखायी नहीं पड़ता दूसरे का दुःख दिखायी नहीं पड़ता।सब दुःखी हैं अपने दुःख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण। और जब तक आपकी यह वृत्ति है तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुःख अगर आपको दिखायी पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरु हो गये। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखायी पड़ेगा।
     एक फकीर था जून्नून।कोई भी आदमी उसके पास मिलनेआता,तो वह हँसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है ?वह कहता एक तरकीब मैने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूँ,जिससे मैं सुखी हो जाऊँ। एक आदमी आया, उसके पास एक आँख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है?उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया,मेरे पास दोआंखें हैं,हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद।एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गज़ब अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिये हैं। एक मुर्दे की लाश को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा,हम अभी जिन्दा हैं,और पात्रता कोई भी नहीं है।और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गये होते इस आदमी की जगह तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।
     जुन्नून दुःखी नहीं था,कभी दुःखी नहीं हो सका क्योंकि उसने दूसरे का दुःख देखना शुरु कर दिया।और जब कोई दूसरे का दुःख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि मेंअपना सुख दिखायी पड़ता है।और जबकोई दूसरा का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुःख दिखायी पड़ता है।
प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करने का एक अन्य उपाय यह है कि मनुष्य को परमात्मा ने जो कुछ दे रखा है,सदा उसमें ही सन्तुष्ट रहे। परमात्मा का आभारी रहकर मन में यह विचार करता रहे कि अनेकों ऐसे मनुष्य भी संसार में होंगे, जिन्हे ये वस्तुयें भी उपलब्ध नहीं हैं।

शनिवार, 19 नवंबर 2016

वाह भाई बेला न वक्त न वेला



     दशमेश श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के दरबार में एक भाई बेला आया-जाया करता था। दरबार के अनेक भक्त पढ़े-लिखे थे परन्तु यह निरक्षर था। किन्तु गुरु महाराज जी के वचनों पर इसे अटल विश्वास था। एक दिन अवसर देखकर इसने श्री गुरु महाराज जी के चरणों में प्रार्थना की कि और सिक्ख-सेवकों को गुरुवाणी पढ़ते देखकर मेरा भी मन करता है कि मैं भी पढ़ूँ। परन्तु मुझे अक्षर पढ़ना भी नहीं आता। श्री गुरु महाराज जी ने फरमाया कि तू रोज़ साडे कोल आया कर असीं तैनूँ अखर सिखावांगे। अब बेला प्रतिदिन गुरुमहाराज जी के पास आने लगा। गुरुमहाराज जी हर रोज़ पाँच-सात अक्षर उसे पढ़ाते थे। दूसरे दिन उन्हें सुन कर और बता देते। एक दिन दरबार की सेवा करते करते भाई बेला को कुछ देर हो गई। श्री गुरुमहाराज जी बाहर जाने के लिये घोड़े पर सवार हो चुके थे। तब यह आ पहुँचा और उसने घोड़े की लगाम को पकड़ कर कहा कि मुझे अक्षर तो बताकर जाओ ताकि मैं याद करता रहूँ।
     श्री गुरुमहाराज जी ने हँसकर फरमायाः- "वाह भाई बेला! तेरा वक्त न वेला।' भाई बेले ने इतना सुनते ही लगाम छोड़ दी। श्री गुरुमहाराज जी चले गये। वह दिन बीत गया दूसरे दिन श्री गुरुमहाराज जी ने नियम के अनुसार पूछा बेला! कल तुम्हे कौन सी सन्था दी थी? भाई बेला ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि सच्चे पादशाह! कल आपने यह पाठ पढ़ाया था वाह भाई बेला! तेरा वक्त न वेला। श्री गुरु महाराज यह सुनकर बहुत हँसे। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा कि भाई बेला! तुम्हारा स्वभाव और हमारे वचन पर तुम्हारा विश्वास देखकर हम बहुत पुलकित हुए हैं। हम तुम्हें वर देते हैं कि तुम को सब विद्याएं अपने आप आ जाएंगी। वह अशिक्षित बेला पंडितों में सर्वश्रेष्ठ हो गया।

सोमवार, 14 नवंबर 2016

भजन-सुमिरण


    कथा है एक स्त्री बड़ी ही भगवद्भक्तऔर सन्त-सेवी थी,परन्तु उसके पति की वृत्ति हर समय माया और माया के सामान संचित करने तथा खाने-पीने आदि में ही लगी रहती थी। वह स्त्री जब भी पति से भजन-सुमिरण करने के लिये कहती,तो वह सदा हँसकर टाल देता। एक दिन जब उस स्त्री ने भजन सुमिरण के लिए पति पर बहुत ज़ोर दिया,तो वह हँसते हुए बोला, भजन-सुमिरण की अभी इतनी जल्दी क्या है? अब तो यौवन है, खाने-पीने और आनन्द लेने के दिन हैं,वृद्ध होने पर भजन-सुमिरण भी कर लिया जायेगा। क्या तुमने यह शेअर नहीं सुनाः-
         ऐश कर दुनियां में गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहाँ।
          ज़िन्दगानी  है अगर  तो यह जवानी फिर कहाँ।।
स्त्री ने कहा-यदि ऐश करने का यही समय है तो भजन भक्ति करने का समय भी तो यही है-कहा भी हैः-
           जवानी में अदम के वास्ते सामान कर गाफिल।
           मुसाफिर जल्दी उठते हैं जो जाना दूर होता है।।
     वृद्धावस्था में तो वैसे ही शरीर के सब अंग शिथिल हो जाते हैं, उस समय तो अपनेआप को संभालना भी कठिन हो जाता है, भक्ति-भजन उस समय मनुष्य क्या करेगा? इसीलिये परमसन्त श्री कबीर साहिब जी का उपदेश हैः-
   जब लगु ज़रा रोगु नहीं आइया, जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ।।
   जब लगु विकल भई नही बानी, भजि लेहि रे मन सारिंगपानी।।
   अब न भजसि भजसि कब भाई, आवै अंतु न भजिआ जाई।।
   जो किछु करहि सोई अब सारु, फिरि पछताहु न पावहु पार।।
          आज कहैं मैं काल्ह भजूंगा,काल्ह कहै फिर काल्ह।।
          आज  काल्ह  के करत ही, औसर जासी चाल्ह।।
यह सुनकर उसके पति ने कहा-घबराओ नहीं, मैं अभी इतनी जल्दी मरने वाला नहीं हूँ। मैं तुमसे वादा करता हूँ कि वृद्ध होने पर किसी तीर्थ-स्थान पर जाकर रहेंगे और दिन-रात प्रभु का भजन-सुमिरण करेंगे। इसके कुछ दिन बाद,एकदिन उस व्यक्ति की तबीयत एकाएक बिगड़ गई। उसे सर्दी लगकर बड़े ज़ोर का बुखार चढ़ गया। डाक्टर बुलाया गया। उसने रोगी की भलीभाँति जाँच करके कहा-मैं दवा भिजवाये देता हूँ। एक-एक घंटे बाद रोगी को दवा पिलाते रहें, शाम को मुझे फिर सूचित करें। दवा आ गई और उस स्त्री ने दवा अलमारी के ऊपर रख दी। कुछ देर बाद उस व्यक्ति ने पत्नी को आवाज़ दी और पूछा-क्या दवा आ गई है? स्त्री ने कहा-हाँ!आ गई है। ज़रा नाश्ता कर लूँ, आपको दवा पिलाती हूँ। यह कहकर वह रसोईघर में चली गई। जब वह काफी देर तक न आई, तो उस व्यक्ति न पुनः उसे बुलाकर कहा-तुमने अभी तक दवा नहीं पिलाई। स्त्री ने कहा-अभी पिलाती हूँ। यह कहकर वह फिर वहाँ से चली गई।उस व्यक्ति ने सोचा-दवाई पिलाने के लिये गिलास आदि लेने गई होगी,अभी आ जाएगी। किन्तु जब काफी समय तक वह वापस न आई,तो उसने फिर उसे आवाज़ दी। उसके आजाने पर उस व्यक्ति ने कहा-क्या दवा नही पिलाओगी?स्त्री ने कहा-दवा तो रखी ही है,अभी पिलाती हूँ। इतनी जल्दी क्यों कर रहै हैं? वह व्यक्ति क्रोध में बोला- मैं बुखार से मर रहा हूँ और तुम कहती हो इतनी जल्दी क्यों कर रहे हो? क्या मेरे मरने के बाद दवा पिलाओगी?
    स्त्री ने हँसकर कहा-मैं जब भी भजन-सुमिरण के लिए कहती हूँ तो आप सदैव यही उत्तर देते हैं किअभी जल्दी क्या है,मैं इतनी जल्दी मरने वाला नहीं हूँ,फिर आज दवा के लिये आप जल्दी क्यों कर रहै हैं? मैंने तो आपकी इस बात पर,""कि मैं अभी इतनी जल्दी मरने वाला नहीं हूँ'' दृढ़ विश्वास करके यही सोचा कि घर का कामकाज निपटा कर फुर्सत से आपको दवा पिलाऊँगी। किन्तु आज आप ये मरने की बातें क्यों कर रहै हैं? अभी तो आपने बहुत दिन जीना है। फिर आपने मुझसे यह वादा भी कर रखा है कि वृद्धावस्था में तीर्थ-स्थान पर जाकर भजन-सुमिरण करेंगे। क्या आप अपना वह वादा भूल गये?बात उस व्यक्ति की समझ में आ गई। उसने वादा किया कि अब वह भजन-सुमिरण के कार्य में कभी भी टालमटोल नहीं करेगा।डाक्टर की औषधि से वह कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया और अपना अधिकतर समय भजन-सुमिरण में व्यतीत करने लगा।
   कथा काअभिप्राय यह कि मनुष्य को भजनभक्ति के कार्य में बिल्कुल टालमटोल नहीं करना चाहिये। आम मनुष्य अज्ञान वश भजन भक्ति के वास्तविक कार्य में तो टालमटोल करता है और माया तथा माया के सामान एकत्र करने में दिन-रात व्यस्त रहता है। उसे यह विचार करना चाहिए कि क्या माया तथा माया के सामान आज  तक  किसी के साथगये हैं? यदि नहीं तो फिर इनकी प्राप्ति के यत्न में लगकर अपने दुर्लभ जीवन को नष्ट कर देना कहां की बुद्धिमत्ता है? साथ तो केवल भजन-भक्ति और नाम की कमाई ही जाती है। यह कमाई ही परमात्मा के दरबार में जीव का मुख उज्जवल करती है और उसे आवागमन के चक्र से छुड़ाती है। अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि भजन-भक्ति और नाम की कमाई करके मनुष्य जीवन के स्वर्णिमअवसर का पूरा पूरा सदुपयोग करेऔर अपने उद्देश्य की पूर्ति करअपना जन्म सफल एवं सकारथ करे। अपना परलोक भी संवार ले और संसार में भी अपना नाम रोशन करे।

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

ठगों ने ब्रााहृण से बकरी ठगी


कोई आदमी भक्ति की तरफ जाये तो कहते हैं कि क्या पागलपन कर रहे हो?ज़िन्दगी छोड़कर कहां भागे चले जा रहे हो?लेकिन ऐसा हो जाता है अगर बहुत लोग यही कहें तो बेचारा जो जा रहा है प्रभु की तरफ, वह भी सोचने लगता है कि पता नहीं क्योंकि जब सारे लोग कह रहे हैं, हज़ारों लोग यही कह रहे हैं तो यही ठीक कहते होंगे।
    एक ब्रााहृण एक गांव से एक बकरी खरीदकर वापिस लौट रहा है। बड़ी प्रसिद्ध है कहानी,लेकिन आधी सुनी होगी।मैं पूरी ही सुनाना चाहता हूँवह बकरी को रखकर कंधे पर वापिस लौट रहा है।सांझ हो गयी है,दो चार ठगों ने उसे देखा है।उन्होंने कहा,अरे!यह बकरी तो बड़ी स्वादिष्ट मालूम पड़ती है।इस नासमझ ब्रााहृण के साथ जा रही है,इसको मजा भी क्या आयेगा,ब्रााहृण को भी क्या,बकरी को भी क्या। इस बकरी को छीन लेना चाहिए। एक ठग नेआकर उसके सामने उस ब्रााहृण से कहा,पंडित  जी नमस्कार। बड़ा अच्छा कुत्ता खरीद लाये। उसने कहा, कुत्ता। बकरी है महाशय। आँखें कमज़ोर हैं आपकी?उसने कहा, बकरी कहते हैं इसे आप?आश्चर्य है। हम भी बकरी को जानते हैं। लेकिन आपकी मर्ज़ी, अपनीअपनी मर्ज़ी कोई कुत्ते को बकरी कहना चाहे तो कहे। वहआदमी चल पड़ा। उस ब्रााहृण ने सोचा,अज़ीब पागल हैं इस गांव के।बकरी को कुत्ता कहते हैं?लेकिन फिर भी एक दफे टटोल कर देखा शक तो थोड़ा आया ही। लेकिन उसने पाया कि बकरी है। बिलकुल फिज़ूल  की बात है। अभी दस कदम आगे बढ़ा था। शक मिटाकर किसी तरह आश्वस्त हुआ था कि दूसरा उनका साथी मिला। उसने कहा,नमस्कार पंड़ित जी। लेकिनआश्चर्य,ब्रााहृण होकर कुत्ता सिरपर रखें।जाति से बाहर होना है? उसने कहा,कुत्ता।लेकिनअब वह उतनी हिम्मत से न कह सका कि यह बकरी है। हिम्मत कमज़ोर पड़ गयी।उसने कहा,आपको कुत्ता दिखायी पड़ता है?उसने कहा,दिखायी पड़ता है? है। नीचे उतारिए, गांव का कोई आदमी देख लेगा पड़ोस का तो मुश्किल में पड़ जायेंगे।वह आदमी गया तो उस ब्रााहृण ने उस बकरी को नीचे उतारकर गौर से देखा वह बिल्कुल बकरी थी। यह तो बिल्कुल बकरी है,लेकिन दो-दो आदमी भूल कर जाये,यह ज़रा मुश्किल है फिर भी सोचा, मज़ाक भी कर सकते हैं। चला फिर कंधे पर रखकर,लेकिन अब वह डरकर चल रहा है,अब वह ज़रा अंधेरे में से बचकर निकल रहा है। अब वह गलियों में से चलने लगा है, अब वह रास्ते पर नहीं चल रहा है। तीसरा आदमी उसे एक गली के किनारे पर मिला। उसने कहा,पंडित जी हद्द कर दी। कुत्ता कहां मिल गया?कुत्ते की तलाश मुझे भी है। कहां से ले आये हैं यह कुत्ता, ऐसा मैं भी चाहता हूँ। तब तो वह यह भी न कह सका कि क्या कह रहे हैं। उसने कहा कि जी हां, खरीद कर ला रहा हूँ। वह आदमी गया कि फिर उसने उतारकर भी नहीं देखा,उसे छोड़ा एक कौने में और भागा। उसने ने कहा कि अब इससे भाग ही जाना उचित है। झंझट हो जायेगी, गांव के लोग देख लेंगे। पैसे तो मुफ्त गये ही गये, जाति और चली जायेगी।यह जो तीन आदमी कह गये हैं एक बात को तो बड़ी सच
मालूम पड़ने लगती है।(ठग-मन मायाऔर काल)यह तोआधी कहानी है।
दूसरा जन्म में ब्रााहृण फिर बकरी लेकर चलता था। बकरी लेकर लौट रहा है लेकिन पिछले जन्म की याद है। वह जिसको याद रह जाये उसी को तो ब्रााहृण कहना चाहिए,बकरी लेकर लौट रहा है, वही ठग।असल में हम भूल जाते हैं इसलिए ख्याल नहीं रहता है,कि वही वही बार बार हमको कई बार मिलते हैं,कई जन्म में वही लोग बारबार मिल जाते हैं। वही तीन ठग उन्होंने देखा अरे। ब्रााहृण बकरी को लिए चला जा रहा है। छीन लो,उन्हें कुछ पता नहीं है कि पहले भी छीन चुके हैं। किसको पता है?अगर हमें पता हो कि हम पहले भी यही कर चुके हैं तो शायद फिर दुबारा करना मुश्किल हो जाये।फिर उन्होंने षडयंत्र रच लिया है। फिर एक ठग उसे रास्ते पर मिला है। उसने कहा,नमस्कार पंडित जी। बड़ा अच्छा कुत्ता कहां ले जा रहे हैं?पंडित जी ने कहा, कुत्ता सच में बड़ाअच्छा है। उसने गौर से देखा,ठग ने सोचा,हमको तो बकरी दिखायी पड़ती थी, हम तो धोखा देने के लिए कुत्ता कहते थे। और उस पंडित ने कहा, कुत्ता सच में बड़ा अच्छा है,बड़ी मुश्किल से मिला, बहुत मांगकर लाया,बड़ी मेहनत की,खुशामद की किसी आदमी की,तब मिला।उस ठग ने बहुत गौर से फिर से देखा कि मामला क्या है,भूल हो गयी है?लेकिन उसने कहा, नहीं पंडित जी,कुत्ता ही है न।उसने कहा,कैसी बात कर रहे हैं आप,कुत्ता ही है।अब वह ठग मुश्किल में पड़ गया है,वह यह भीनहीं कह सकता कि बकरी है, क्योंकि खुद उसने कुत्ता कहा था। दूसरे कौने पर दूसरा ठग मिला। उसने कहा कि धन्य हैं। धन्य महाराज,आप कुत्ता सिर पर लिए हुए हैं? ब्रााहृण ने कहा, कुत्ते से मुझे बड़ा प्रेम है।आपको पसंद नहीं आया कुत्ता?उस आदमी ने गौर से देखा, उसने कहा कुत्ता।
तीसरे चौरस्ते पर मिला है तीसरा आदमी, लेकिन उन दोनों ने उसको खबर दे दी कि मालूम होता है, हम ही गलती में हैं। हमें बकरी दिखायी पड़ रही है। उस तीसरे आदमी ने गौर से देखा।और उस पंडित ने कहा, क्या देख रहे हैं गौर से?उसने कहा,कुछ नहीं,आपका कुत्ता देख रहा हूँ। काफी अच्छा है।

शनिवार, 5 नवंबर 2016

वापिस अपना भिक्षापात्र लेने जाने लगा

वापिस अपना भिक्षापात्र लेने जाने लगा
एक सूफी फकीर के पास एक खोजी आया। लेकिन खोजी देखकर दंग हुआ कि सूफी फकीर तो बड़ी शान से रहता था। उसने तो सुना था कि फकीरों को तो दीनता और दरिद्रता में रहना चाहिए। फकीर का अर्थ ही होता है कि जो गरीब है। यह कैसा फकीर। सोने का सिंहासन था उस फकीर का। राजमहल था उसका आश्रम। सब तरह की सुख-सविधाएं थीं। हीरे-जवाहरात बरसे पड़ते थे। सम्राट उसके शिष्य थे। उस फकीर से बड़ी बेचैनी होने लगी। यह तो बिल्कुल उलटा ही हो रहा है।
     लेकिन उस सूफी ने कहा कि अब आ ही गए हो,माना कि तुम्हारा मन राज़ी नहीं हो रहा है, कुछ देर तो मेहमान रहो,फिर जाना है तो चले जाना।थोड़ा और करीब से देखो।देखा करीब से,लेकिन कुछ दिखाई नहीं पड़ा कि इसमें योग कहां है?भोग तो खूब चल रहा था,योग कहां हैं,वह दिखाई नहीं पड़ता था। फिर उसे यह भी डर लगा कि अगर यहां ज्यादा देर रुका तो यहीं गति मेरी हो जाएगी।क्योंकि उसे भी धीरे-धीरे रसआने लगा। अच्छा भोजन मिला।अभी तो रूखा-सूखा खाता था।अच्छा भोजन मिला,स्वाद लगा। अच्छे बिस्तर पर सोने को मिला, तो डर लगने लगा कि अब वृक्षों के नीचे सो सकूँगा या नहीं,नींद आएगी भी कि नहीं? उस सूफी ने दो आदमी लगा रखे थे जो रोज़ सुबह उसका हाथ-पैर दाबते, मालिश करते। उसने कहा,यह मसीबत हुई जा रही है अब बिना मालिश के चैन न पड़ेगी। कौन मेरी मालिश करेगा?वह घबड़ा गया। आठ-पंद्रह दिन बाद उसने कहा, मुझे आज्ञा दें, मैं जाना चाहता हूँं। सूफी ने कहा, घबड़ा गए। डर गए।कला नहीं आती?कहां जाना चाहते हो?उसने कहा मैं तो जंगल में जा रहा हूँ।उस सूफी ने कहा,तो मैं भी चलता हूँ। खोजी तो मान नहीं सका कि यह सूफी कैसे जाएगा। इतना बड़ा महल, इतनी व्यवस्था सब छोड़कर। मगर वह चल पड़ा उसके साथ। जब कुछ मील दोनों निकल गए, तब उस खोजी को याद आया कि मैं अपना भिक्षापात्र आपके महल में भूल आया,तो मैं जाकर उसे वापिस ले आऊँ? तो उसे सूफी ने कहा,अपने साथ न चलेगा। मैं अपना पूरा महल छोड़ आया, तू भिक्षापात्र भी नहीं छोड़ सकता। फिर नमस्कार! फिर हमारे रास्ते अलग हो गए। फिर हमारी दोस्ती न चलेगी।
     वह सूफी फकीर उसे यह स्मरण दिला रहा था कि सवाल क्या पकड़ा है यह नहीं है,सवाल तो पकड़ने का है।लंगोटी कोई पकड़ सकता है, भिक्षापात्र कोई पकड़ सकता है, कोई महल ही थोड़े ही चाहिए बंधने के लिए। कुछ भी हो तो बँध सकता है। अगर कला न आती हो। और कला आती हो तो फिर महल में भी रहकर भी कोई आवश्यक नहीं है कि बँधे। फिर जल में कमलवत हो सकता है।

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

घर के नौकर मालिक बने


गुरजिएफ कहा करता था कि मैने एक ऐसे घर के सम्बन्ध में सुना है जिसका मालिक कहीं दूर यात्रा पर गया था। बहुत बड़ा भवन था, बहुत नौकर थे। वर्षों बीत गए,मालिक की खबर नहीं मिली।मालिक लौटा भी नहीं,सन्देश भी नहींआया।धीरे-धीरे नौकर यह भूल गए कि कोई मालिक था भी कभी। भूलना भी चाहते हैं नौकर कि कोई मालिक है तो जल्दी भूल गए। फिर कभी कोई यात्री उस महल के बाहर से निकलताऔर कोई नौकर सामने मिल जाता तो वह उससे पूछता कौन है इस भवन का मालिक?नौकर कहता,मैं हूँ इसका मालिक।लेकिन आसपास के लोग बड़ी मुश्किल में पड़े क्योंकि कभी द्वार पर कोई मिलता,कभी द्वार पर कोई और बहुत नौकर थे और हरेक कहता कि मालिक मैं हूँ।
     सारे लोग चिंतित हुए कि कितने मालिक हैं इस भवन के।तब एक दिन सारे गांव के लोग इकट्ठे हुए और उन्होने पता लगाया।सारे घर के नौकर इकट्ठे किए, तो मालूम हूआ वहां कई मालिक थे। अब बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। सब नौकर लड़ने लगे। उन्होने कहा,मालिक हम हैं और जब बात बहुत बढ़ गई तब उसी एक बूढ़े नौकर ने कहा, क्षमा करें, हम व्यर्थ विवाद में पड़े हैं। मालिक घर के बाहर गया है। हम सब नौकर हैं। मालिक लौटा नहीं, बहुत दिन हो गए,हम भूल गए। और अब कोई ज़रूरत भी नहीं रही याद रखने की। शायद वह कभी लौटेगा भी नहीं।फिर मालिक तत्काल विदा हो गए यानी वे तत्काल नौकर हो गये। गुरजिएफ कहा करता था, यह आदमी के चित्त की कहानी है।
     जब तक भीतर की आत्मा जागती नहीं तब तक चित्त का एक-एक टुकड़ा एक-एक नौकर कहता है, मैं हूँ मालिक। जब क्रोध करने वाला टुकड़ा सामने होता है तो वह कहता है, मैं हूँ मालिक।ओर वह मालिक बन जाता है है कुछ देर के लिए, और पूरा शरीर उसके पीछे चलता है। इसी तरह अन्य विकार। मालिक बने हुए हैं। असली मालिक का पता ही नहीं। जब तक असली मालिक न आ जाये तब तक अराजकता रहेगी। इसी तरह मन कई खण्डों में बंटा है जब तक मन सब तरफ से एकत्र नहीं होता एक नही होता सुख प्राप्त नहीं हो सकता।

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

हीरे परखने में ही जीवन गँवाया


     एक राजा के राज्य में एक मन्त्री बड़ा भक्त था। राजा को हीरा-परखने की विद्या सीखने की अभिरुचि हुई। उसने बड़े बड़े कुशल मणिकारों (जोहरी) से विद्या सीखना आरम्भ किया। उस राजा के राज्य का विधान था कि जो भी राजा दिवंगत हो जाय उस के मुकट आदि को संग्रहालय में जमा कर दिया जाता था। उनमें हीरे-जवाहरात तो जड़े हुए होते ही है। राजा जब हीरों का कुशल परीक्षक बन गया तो उसने अपने संग्रहालय में रखे हुए दादा-परदादों में मुकुटों के जो हीरे जवाहरात लगे हुए थे उन की परीक्षा करने लगा। उसने और सब ताजों की परख कर ली किन्तु सातवीं पीढ़ी के सम्राट का जो मुकुट था उसमें एक हीरा ऐसा लगा हुआ था जिसका मुल्य वह अपनी मति से नआँक सका। अपने शिक्षकों को बुलवा कर उनसे उस हीरे का दाम मालूम किया तो वे भी सन्तोषदायक उत्तर न दे सके। निदान उसने समाचार पत्रों में लेख दिया और देश-देशान्तरों में यह बात फैल गई कि हमारे पास एक हीरा है जिसकी परीक्षा हमारे देश के मणिकार नहीं कर सके यदि किसी देश में ऐसा जौहरी हो जो उसका सही दाम बतावे तो उसे हम बहुत बड़ा पारितोषिक देंगे यह समाचार पढ़कर एक वृद्ध मणिकार जिसकी आयु 70-75 वर्ष की होगी उस राजा के देश में आया। राजा ने उसे वह हीरा दिखाया।उस जौहरी ने उस हीरे की पूर्ण परीक्षा कर के और उचित दाम बताकर राजा को सन्तुष्ट कर दिया।राजा गद्गद हो गयाऔर उसने अपने भक्त मन्त्री को बुलवायाऔर कहा कि इसे अपनी इच्छानुसार पारितोषिक दे दो, हम तुम्हारा हाथ नही रोकेंगे।मन्त्री ने कहा कि यदि मुझसे पूछते हो तो मैं समझता हूँ कि इसे इनाम में एक सौ जूते लगवाये जायें।राजा ने चकित होकर मन्त्री से पूछा ऐसा क्यों?मन्त्री ने उत्तर दिया कि इसने बुद्धि जैसी सुर्दुलभ वस्तु को पत्थरों के परखने में ही नष्ट कर दिया है। यदि यह अपनी बुद्धि को प्रभु के प्रेम में डुबो देता तो प्रभु रूप हो जाता। परन्तु उसके बदले इसने अपनी सारी आयु पत्थरों के परखने में गँवा दी। इसलिये में इसे दण्ड पाने का अधिकारी समझता हूँ।
     इसी प्रकार जिस ने अपनी सकल बुद्धिमता शरीर और शारीरिक सम्बन्ध जो अस्थिर और नश्वर हैं, एक दिन विनष्ट हो जाने वाले हैं उन में ही खो दी तब उसने धूलि फाँकने के सिवा क्या संचित किया। उस जैसा अल्पमति और नादान और कौन हो सकता है। जिसने इतना घाटे वाला काम किया किन्तु इस रहस्य को हर एक नहीं जान सकता सन्त सतगुरु की शरण में जाने से ही इन भेदों का ज्ञान होता है। तब ही जीवन की सफलता हाथ में आ सकती  है।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

छाया

एक सन्यासी एक घर के सामने से निकल रहा था। एक छोटा सा बच्चा घुटने टेक कर चलता था। सुबह थी और धूप निकली थी और उस बच्चे की छायाआगे पड़ रही थी।वह बच्चा छाया में अपने सिर को पकड़ने के लिए हाथ ले जाता है, लेकिन जब तक उसका हाथ पहुँचता है छाया आगे बढ़ जाती है। बच्चा थक गया और रोने लगा। उसकी माँ उसे समझाने लगी कि पागल यह छाया है, छाया पकड़ी नहीं जाती। लेकिन बच्चे कब समझ सकते हैं कि क्या छाया है और क्या सत्य है? जो समझ लेता है कि क्या छाया है और क्या सत्य,वह बच्चा नहीं रह जाता। वह प्रौढ़ होता है। बच्चे कभी नहीं समझते कि छाया क्या है, सपने क्या हैं झूठ क्या है।वह बच्चा रोने लगा।कहा कि मुझे तो पकड़ना है इस छाया को।वह सन्यासी भीख माँगनेआया था।उसने उसकी माँ को कहा,मैं पकड़ा देता हूँ। वह बच्चे के पास गया। उस रोते हुए बच्चे की आँखों में आँसू टपक रहे थे। सभी बच्चों की आँखों से आँसू टपकते हैंज़िन्दगी भर दौड़ते हैं और पकड़ नहीं पाते। पकड़ने की योजना ही झूठी है। बूढ़े भी रोते हैं और बच्चे भी रोते हैं। वह बच्चा भी रो रहा था तो कोई नासमझी तो नहीं कर रहा था। उस सन्यासी ने उसके पास जाकर कहा,बेटे रो मत।क्या करना है तुझे? छाया पकड़नी है न?उस सन्यासी ने कहा, जीवन भर भी कोशिश करके थक जायेगा, परेशान हो जायेगा। छाया को पकड़ने का यह रास्ता नहीं है। उस सन्यासी ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और उसके सिर पर हाथ रख दिया।इधर हाथ सिर पर गया, उधर छाया के ऊपर भी सिर पर हाथ गया। सन्यासी ने कहा,देख, पकड़ ली तूने छाया। छाया कोई सीधा पकड़ेगा तो नहीं पकड़ सकेगा। लेकिन अपने को पकड़ लेगा तो छाया पकड़ में आ जाती है।
     जो अहंकार को पकड़ने को लिए दौड़ता है वह अहंकार को कभी नहीं पकड़ पाता। अहंकार मात्र छाया है। लेकिन जो आत्मा को पकड़ लेता है, अहंकार उसकी पकड़ में आ जाता है।वह तो छाया है। उसका कोई मुल्य नहीं। केवल वे ही लोग तृप्ति को, केवल वे ही लोग आप्त कामना को उपलब्ध होते हैं जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

बेढ़ा दीन्हो खेत को, बेढ़ा खेतहि खाय।।


          तीन लोक संशय पड़ा काहि कहूँ समुझाय।।
खेत के चारों तरफ बाड़ लगाते हैं-खेत की रक्षा के लिए। जीवन में बाड़ खेत को खा जाती है और लोगों को पता नहीं चलता,समझो। जीवन को चलाना है तो रोटी की ज़रूरत है,एक तरफ की सुरक्षाभी चाहिए,सुविधा भी चाहिए, बिलकुल आवश्यक है। लेकिन फिर एक आदमी जीवन भर मकान बनाने में लगा रहता है,मकान को ही बड़ा करने मेंलगा रहता है। वह वक्त ही नहींआता,जब वह रहता। मकान में निवास करता,वह समय ही नहींआ पाता।रोटी चाहिए,कपड़े चाहिए,तो थोड़ा धन तो चाहिए ही होगा। लेकिन फिर एकआदमी धन राशि लाने में जुड़ जाता है,फिर वह यह भूल ही जाता है कि धन एक बाढ़ थी-धन खेत हो गई,बाढ़ खेत को खा गई।धन की एक ज़रूरत है।ज़रूरत की एक सीमा है। आवश्यकता असीम नहीं है। वासना असीम है। आवश्यकताएं तो बड़ी-छोटी हैं-रोटी चाहिए,पानी चाहिए,कपड़ा चाहिए।अगर दुनियाँ में सिर्फ आवश्यकताएं हो तो एक भी आदमी भूखा न हो, एक भी आदमी दीन न हो,दरिद्र न हो। क्योंकि आवश्यकताएं तो सीमित हैं। पशु-पक्षियों की पूरी हो जाती हैं। कैसा आश्चर्य कि आदमी की पूरी नहीं होतीं। वृक्ष अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं,जिनके पास पैर भी नहीं हैं कहीं जाने को।एक ही जगह खड़े रहते हैंऔरआवश्यकताएं पूरी हो जाती है। पशु-पक्षी जिनके पास बड़ी बुद्धि,विश्वविद्यालय का शिक्षण नहीं, वे भी पूरी कर लेते हैं अपनी आवश्यकताओं को।आदमीआवश्यकताओं को क्योंं पूरा नहीं कर पाता?
लगता है कहीं कुछ भूल हो गई। आवश्यकताएं तो ठीक हैं, वासना खतरनाक है। फर्क क्या है?आवश्यकता तो बाड़ है,वासना, पूरा खेत हो गई। तुम्हारी ज़रूरतें तो पूरा हो सकती है, लेकिन तुम्हारी कामनाएं पूरी नहीं हो सकतीं। ज़रूरत पर रुक जाना समझदारी है। कामना में बढ़ते जाना पागलपन है। फिर उसका कोई अंत नहीं। देखो लोगों की तरफ।
    मैं एक आदमी को जानता हूं,जिसके सात मकान हैं।और कई हज़ार रूपए महीने का किराया आता है। लेकिन उस आदमी ने एक छोटी-सी खोली ले ली है किराए की,उसमें रहता है। एक साइकिल है उस आदमी के पासऔर वह है।साइकिल का उपयोग वह किराए की वसूली के लिए करता है। खोली में रहता है,खाना होटल में खा लेता है। उस आदमी के एक बंगले में मुझे रहने का मौका मिला। तो हर महीने एक तारीख को वह आ के अपना किराया ले जाता। जो मित्र उसके बंगले में रहते थे, जिनका मैं मेहमान था,उनसे मैने पूछा कि यह आदमी कौन है? वे हँसने लगे, उन्होने कहा,यह मकान मालिक है,उसके कपड़ों में छेद है।साइकिल भी न मालूम पहला संस्करण है। वह दूर सेआता है तो पता चलता है, खड़बड़-खड़बड़ चला आ रहा है। उसे देख के कोई भी नहीं कह सकता कि इस आदमी के पास सात मकन हैं।सात मकानों की कीमत अँदाजन कोई बीस लाख  रुपया है।हज़ारों रूपए महीने वह किराया वसूल करता है,लेकिन अपने लिए वह एक खोली में रहता है पांच रुपए महीने किराए की। इस आदमी के जीवन को बाड़ खा गई।

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

चात्रिक स्वांति बूंद ही पीता है


    चात्रिक अथवा पपीहा केवल स्वांति नक्षत्र का ही जल पीता है,अन्य कोई भी जल ग्रहण नहीं करता।स्वातिं जल कीआशा में वह सदाआकाश की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है कि कब स्वांति-बूँद ऊपर से गिरे और वह अपनी प्यास बुझाए। इसी प्रतीक्षा में वह सदा पीउ- पीउ की रट लगाये रहता है। स्वांति ही उसका इष्ट है तथा केवल उसी का आधार और विश्वास वह मन मे रखता है।
     एक बार श्री रामकृष्ण परमहँस जी के चरणों में नरेन्द्र(स्वामी विवेक आनन्द जी)ने निवेदन किया-आप तो कहते हैं कि पपीहा स्वाँति-जल के अतिरिक्त अन्य कोई जल नहीं पीता, परन्तु मैने तो आज अपनी आँखों से उसे तालाब का जल पीते देखा है।श्रीरामकृष्ण जी ने फरमाया-नरेन्द्र!यह तुम क्या कहते हो?पपीहा और स्वांति के अतिरिक्तअन्य जल पिए, यह कदापि नहीं हो सकता।असम्भव!नरेन्द्र ने विनय की-मैने स्वयं उसे तालाब का पानी पीते देखा है। वह पी पी की रट लगाये था। श्री रामकृष्ण परमहँस गम्भीर हो गए और बोले-नरेन्द्र!क्या तुम वह चिड़िया मुझे दिखला सकते हो? नरेन्द्र ने कहा-अवश्य गुरुदेव!अभी चलिये। नरेन्द्र उन्हेंनगर के बाहर एक तालाब के किनारे ले गएऔर एक चिड़िया की ओर संकेत करते हुए कहा-वह देखिये,वह रहा पपीहा। श्री रामकृष्ण परमहंस उस चिड़िया को देखकर बड़ी ज़ोर से हँस पड़े और फरमाया-नरेन्द्र!इसी को तुम पपीहा बतला रहे हो?अरे!यह पपीहा नहीं और नाही यह पीउ पीउ कर रहा है।यह तो टिटिहर है जो टी-टी बोल रहा है।पपीहा और अन्य जल पिए, यह हो ही नहीं सकता। वह तो किसी अन्य जल की आस रखता ही नहीं। इसी प्रकार ऐ जिज्ञासु!चात्रिक अथवा पपीहे से शिक्षा ग्रहण कर तुम भी अपनी सुरति सदैव इष्टदेव के चरणों में लगाये रखो और संसार केअन्य सभी आसरे त्यागकर केवल इष्टदेव काआधार तथा विश्वास मन में रखो।

    

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

र्इं मुर्दन के गाँव


    जीसस एक झील के पास से गुज़र रहे थे। एक बहुत मज़ेदार घटना घटी। सुबह है, सूरज निकलने को है, अभी-अभी लाली फैली है। एक मछुवे ने जाल फेंका है मछलियां पकड़ने को। मछलियाँ पकड़कर वह जाल खींचता है।जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखाऔर कहा,मेरे दोस्त, क्या पूरी ज़िन्दगी मछलियाँ ही पकड़ते रहोगे? सवाल तो उसके मन में भी कई बार यह उठा था कि क्या पूरी ज़िन्दगी मछलियाँ ही पकड़ता रहूं। किसके मन में नहीं उठता? हां, मछलियां अलग-अलग हैं,जाल अलग-अलग हैं, तालाब अलग-अलग हैं,लेकिन सवाल तो उठता ही है कि क्या ज़िन्दगी भर मछलियां ही पकड़ते रहें।
   उसने लौटकर देखा कि कौन आदमी है,जो मेरा ही सवाल उठाता है। पीछे जीसस को देखा,उनकी हँसती हुई शांत आँखें देखीं,उनका व्यक्तित्व देखा। उसने कहा,और कोई उपाय भी तो नहीं है,और कोई सरोवर कहां है। और मछलियाँ कहां हैं। और जाल कहां फेकूं? पूछता तो मैं भी हूँ कि क्या ज़िन्दगी भर मछलियाँ ही पकड़ता रहूंगा। तो जीसस ने कहा कि मैं भी एक मछुआ हूं,लेकिन किसीऔर सागर पर फेंकता हूँ जाल।इरादा हो तो आओ मेरे पीछे आ जाओ। लेकिन ध्यान रहे,नया जाल वही फेंक सकता है,जो पुराना जाल फेंकने की हिम्मत रखता हो। छोड़ दो पुराने जाल को वहीं। मछुवा सच में हिम्मतवर रहा होगा। कम लोग इतने हिम्मतवर होते हैं। उसने जाल को वहीं फेंक दिया जिसमें मछलियाँ भरी थीं।मन तो किया होगा कि खींच ले,कम से कम इस जाल को तो खींच ही ले। लेकिन जीसस ने कहा,वे ही नए जाल को फेंक सकते हैं नए सागर में, जो पुराने जाल को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं। छोड़ दे उसे वहीं। उसने वहीं छोड़ दिया।उसने कहा,बोलो,कहां चलूँ?जीसस ने कहा, आदमी हिम्मत के मालूम होते हो, कहीं जा सकते हो।आओ। वे गांव के बाहर निकल रहे थे,तब एक आदमी भागता हुआ आया और उस मछुवे को पकड़कर कहा, पागल! तू कहां जा रहा है?तेरे बाप की मौत हो गई है जो बीमार थे। रात ज्यादा तबीयत खराब हो गयी थी।तू सुबह उठकर जल्दी चला आया था, उनकी मृत्यु हो गयी,तू गया कहां था? हम गए थे तालाब पर,पड़ा हुआ जाल देखा है वहां।तू कहां चला जा रहा है? उसने जीसस से कहा,क्षमा करें। दो-चार दिन की मुझे छुट्टी दे दें। मैं अपने पिता की अन्त्येष्टि कर आऊं, अन्तिम संस्कार कर आऊँ। फिर मैं लौट आऊँगा। जीसस ने जो वचन कहा, वह बड़ा अद्भुत है। उन्होने कहा, पागल! वह जो गांव में मुर्दे हैं,वे मुर्दे को दफना लेंगे। तुझे क्या जाने की ज़रूरत है, तू चल।अब जो मर गया है,वह मर ही गया,अब दफनाने की भी क्या ज़रूरत है?यानी दफनाना भीऔर तरकीबें हैं उसकोऔर जिलाए रखने की। अब जो मर गया, वह मर ही गया। और फिर गांव में काफी मुर्दे हैं,वे दफना लेंगे,श्री कबीर साहिब ने भी कहा है र्इं मुर्दन के गांव। तू चल। एक क्षण वह रुका,जीसस ने कहा कि फिर मैने गलत समझा कि तू पुराने जाल छोड़ सकता है। एक क्षण वह रुका और फिर जीसस के पीछे चल पड़ा। जीसस ने कहा, तू आदमी हिम्मत का है। तू मुर्दों को छोड़ सकता है। तो तू जीवंत को पा भी सकता है।
     असल में वह जो पीछे मर गया है,उसे छोड़ें। ध्यान में आप निरंतर बैठते हैं,लेकिन मुझसे आप आकर कहते हैं कि होता नहीं है, विचार आ जाते हैं। वह आ नहीं जाते।आपने उनको छोड़ा है कभी? उऩको निरंतर पकड़े रहे हैं,उन विचारों का क्या कसूर है?अगर कोई आदमी एक कुत्ते को रोज़ अपने घर में बांधे रहे और रोज़ खाना खिलाए और फिर एक दिन अचानक उसको घर के बाहर निकालने लगे,और कुत्ता चारों तरफ से घूमकर वापिस आने लगे, तो कुत्ते का क्या कसूर है? अचानक आप ध्यान करने लगें और कुत्ते से कहें, हटो यहां से। और कल तक उसको रोटी दी,आज सुबह तक रोटी दी,आज सुबह तक चूमा,पुचकारा, उसकी पूंछ हिलाने से आनन्दित हुए, घंटी बांधी गले में,पट्टा बांधा,घर में रखा-अचानक आपका दिमाग हो गया कि ध्यान करें।उस कुत्ते को क्या पता? वह बेचारा घूमकर लौट आता है वापिस। वह कहता है, कोई खेल हो रहा होगा।और जब आप उसको और भगाते हैं तो वह और खेल में आ जाता है।वह और रस लेने लगता है कि कोई मामला ज़रूर है। मालिक आज कुछ बड़े आनन्द में मालूम पड़ते हैं। तब मुझसे आपआकर कहते हैं कि विचार नहीं जाते हैं।
     वे जाएंगे कैसे? उऩ्हीं विचारों को पोसा है आपने, खून पिलाया है अपना। उनको बांधे फिरते हैं,उनके गले पर पट्टे बांधे हुए  हैं अपने-अपने नाम के।आदमी से ज़रा कह दो कि यह जो तुम कह रहे हो,गलत
है। वह कहता है, मेरा विचार और गलत? मेरा विचार कभी गलत नहीं हो सकता अब जिस पर आप पट्टा बांधे हुए हैं अपना,वह बिचारा लौट कर आ जाता है। उसे क्या पता है कि आप ध्यान कर रहे हैं।अब आप कहते हैं हटो,भागो। ऐसे वह नहीं भागेगा। विचार को हम पोस रहे हैं। अतीत के विचार को पालते चले जा रहे हैं,बांधते चले जा रहे हैं। अचानक एक दिन आप कहते हैं, हटो। एक दिन में नहीं हट जाएगा। उसका पोषण बंद करना पड़ेगा, उसको पालना बंद करना पड़ेगा। ध्यान रहे, अगर विचार छोड़ने हों, तो 'मेरा विचार' कहना छोड़ देना। क्योंंकि जहां मेरा है, वहां कैसे छूटेगा। अगर विचार छोड़ने हैं तो विचार में रस लेना छोड़ दीजिए।       

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

गेहूँ की जगह जौं बोये


          अज़ मकाफाते अमल गाफिल  मशौ।।
          गन्दुम अज़ गन्दुम बरोयद जौ ज़ जौ।।
     अर्थः-ऐ जीव!अपने किये हुये कर्मों के फलसे असावधान मत रह, क्योंकि यह बात तो सर्वविदित है कि गेहूँ बोने से गेहूँ और जौ बोने से जौं की फसल ही प्राप्त होगी। इस विषय में लुकमान की कथा अत्यन्त रोचक एवं शिक्षाप्रद है। लुकमान के समय में दासप्रथा का ज़ोर था और लुकमान को भी बाल्यकाल में गुलाम की तरह एक धनाढय ज़मींदार ने खरीदा था। उसके पासऔर भी बहुत से गुलाम थे।लुकमान का मालिक अत्यन्त निष्ठुर एवं निर्दयी था और बात बात पर गुलामों को कोड़े से पीटता औरअपशब्द कहता था। उसके ह्मदय में दया नाम की कोई वस्तु न थी। उसका धर्म तो केवल धन था, जिसके मद में चूर होकर वह हर समय पापाचार में रहता। लुकमान को भी अन्य गुलामों की तरह प्रायः मालिक के कोपभाजन बनना पड़ता, परन्तु मार खाकर अन्य गुलामों की तरह रोने-चिल्लाने की अपेक्षा वह सदैव इस बात पर विचार करता कि मालिक को कैसे इसअऩुचित मार्ग से हटाया जाये।अन्त में उसे एकयुक्ति सूझी।यद्यपि इस कार्य में उसे यहभय भी था कि यदि पासा सीधा न पड़ा तो मालिक उसकी चमड़ी उधेड़कर रख देगा,परन्तु उसनेअपने प्राणों की परवाह न कर इस युक्ति को आज़माने का पूरी तरह निश्चय कर लिया।
     लुकमान चूँकि बाल्यावस्था से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि था,अतएव उसके मालिक ने उसे कुछ नौकरों के ऊपर काम करवाने के लिये नियुक्त कर रखा थाऔर कुछ खेत भी उसके अधिकार में दे रखे थे।जब
गेहूँ बोने का समय आया,तो लुकमान के मालिक ने उसे बुलाया और गेहूँ का बीज देते हुए कहा कि इसे खेतों में बो दो। लुकमान अपने अधीनस्थ गुलामों को साथ लेकर खेतों पर गया और उन्हें जौ का बीज देते हुये बोला कि इन्हें खेतों में बो दो। अधीनस्थ गुलामों ने लुकमान से कहा-यह तुम क्या कर रहे हो?गेहूँ के स्थान पर जौ का बीज डलवा रहे हो? यदि मालिक को पता चल गया तो वह तुम्हारी खाल खिंचवा देगा। किन्तु लुकमान ने उनकी बातों की ओर ध्यान न देते हुये कहा कि जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही करो। अन्य गुलामों द्वारा अनेक बार रोकने पर भी जब लुकमान ने वही बात कही, तो उन्होने खेत में जौ बो दिये, परिणाम स्वरूप कुछ ही दिनों में खेतों में जौ के पौधे उग आये।
     धीरे-धीरे यह बात मालिक के कानों तक जा पहुँची कि लुकमान ने खेतों में गेहूँ के स्थान पर जौं का बीज डलवाया है। उसने खेत पर जाकर निरीक्षण किया, तो बात को सत्य पाया। यह देखकर उसके क्रोध की सीमा न रही। क्रोध के मारे उसकीआँखों से आग बरसने लगी।उसने लुकमान को बुलवाया। लुकमान अत्यन्त धैर्यपूर्वक आकर मालिक के सामने खड़ा हो गया।उसके मालिक ने क्रोधावेशमें उससे पूछा-लुकमान! हमने तुम्हें खेतों में गेहूँ बोने को कहा था, क्या तुमने हमारे आदेश का पालन किया? लुकमान ने शान्तिपूर्वक कहा-जी हाँ महाशय! कुछ ही दिनों में गेहूँ की फसल तैयार हो जायेगी। मालिक ने कहा-किन्तु हम तो यह देख रहे हैं कि खेतों में गेहूं के स्थान पर जौ के पौधे उगे हैं। और नौकर भी यही कहते हैं कि तुमने गेहूँ के स्थानपर जौ का बीज डलवाया है।लुकमान वैसे ही शान्त बना रहा और बोला-महाशय! मैने यद्यपि बीज जौं का डलवाया है, परन्तु फसल हम गेहूँ की ही काटेंगे। ये शब्द सुनते ही मालिक का क्रोध सीमा पार कर गया। उसने कोड़ा उठाते हुए कहा-मूर्ख!जब बीज जौं का डाला गया है तो फसल भी तो जौ की मिलेगी। जौं का बीज डालकर गेहूँ की फसल कैसे काटी जायेगी?
     बस,इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में तो था लुकमान। उसने तुरन्त उत्तर दिया-मालिक! जब जौं का बीज बोकर गेहूँ प्राप्त नहीं किया जा सकता, जौ के बदले जौ की फसल ही मिलेगी, तो आप जो दिन-रात पापकर्म करने में रत हैं, उनके फलस्वरूप क्याआप को परलोक में दण्ड नहीं भुगतना पड़ेगा?आप क्या आशा रखते हैं कि ऐसे क्रूर और अन्यायपूर्ण कर्म करने पर धर्मराज के न्यायालय मेंआपके साथअच्छा व्यवहार किया जायेगा?क्या आपसे वहां पाई-पाई और रत्ती-रत्ती का हिसाब न लिया जायेगा? यदि ऐसे अनुचित कर्म करके भी आप परलोक में शुभ फल प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो आप मुझसे भी अधिक नासमझ हैं। लुकमान के ये शब्द तीर की तरह उसके मालिक केअन्तर्मानस में उतरते चले गये। कुछ देर तक तो वह चित्रलिखित-सा खड़ा रहा,फिर बोला-लुकमान! तुम ठीक कहते हो।आज तुमने मेरी आँखों पर पड़ीअज्ञान की पट्टी खोल दी। मैं आज कितनी भूल में था कि पापकर्म करते हुए भी शुभ परिणाम सोचता था, बबूल बोकर द्राक्ष की आशा रखता था।जाओ आज मैंने तुम्हें दासता से मुक्त कर दिया। कहते हैं कि उस दिन के पश्चात उसके स्वभाव में समूल परिवर्तन हो गया। वह प्रभु-भक्त, शुभ कर्मी और नम्रस्वभाव का बन गया और प्रत्येक व्यक्ति के साथ सद- व्यवहार करने लगा।
कथा का अभिप्राय यह कि अशुभ अथवा पापकर्मों का फल अशुभ तथा शुभ कर्मों का फल भी शुभ होता है। आम संसारी लोग पापकर्मों में तो हर समय प्रवृत्त रहते हैं और चाहते यह हैं कि उनके कर्मों का फल उन्हें शुभ मिले, तो यह कैसे सम्भव है?

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

इस गाँव के लोग कैसे हैं


     एक छोटे से गांव में सुबह ही सुबह एक बैलगाड़ी आकर रूकी। और उस बैलगाड़ी के मालिक ने उस गांव के दरवाज़े पर बैठे हुए एक बूढ़े आदमी से पूछा, ऐ बूढ़े। इस गांव के लोग कैसे हैं?मैं इस गांव में स्थायी रूप से निवास करना चाहता हूँ। क्या तुम बता सकोगे, गांव के लोग कैसे हैं?उस बूढ़े ने उस गाड़ी वाले को नीचे से ऊपर तक देखा। उसकी आवाज़ को ख्याल किया, उसने आते ही कहा, ऐ बूढ़े। वृद्धजनों से यह बोलने का कैसा ढंग है?फिर उस बूढ़े ने उससे पूछा कि मेरे बेटे, इसके पहले कि मैं तुझेबताऊँ कि इस गांव के लोग कैसे हैं मैं यह जानलेना चाहूँगा कि उस गांव के लोग कैसे थे,जिसे तू छोड़कर आ रहा है। क्योंकि उस गांव के लोगों के सम्बन्ध में जब तक मुझे पता न चल जाए तब तक इस गांव के सम्बन्ध में कुछ भी कहना संभव नहीं है। उस आदमी ने कहा,उस गांव के लोगों की याद भी मत दिलाओ, मेरी आंखों में खून उतर आता है। उस गांव जैसे दुष्ट,उस गांव जैसे पापी, उस गांव जैसे बुरे लोग ज़मीन पर कहीं भी नहीं है। उन दुष्टों के कारण ही तो मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है।और किसी दिन अगर मैं ताकत इकट्ठी कर सका तो उस गांव के लोगों को मज़ा चखाऊँगा। उस गांव के लोगों की बात ही मत छेड़ो। उस बूढ़े ने कहा,मेरे बेटे,तू अपनी बैलगाड़ी आगे बढ़ा। मैं सत्तर साल से इस गांव में रहता हूं, मैं तुझे विश्वास दिलाता हूं, इस गांव के लोग उस गांव के लोगों से भी बुरे हैं। मैं अनुभव से कहता हूँ। इस गांव से बूरे जैसे आदमी तो कहीं भी नहीं हैं अगर तू यहाँ रहेगा तो पायेगा कि उस गांव के लोग से यह गांव और भी बदतर है। तू कोई गांव खोज ले। जब उसने बैलगाड़ी बढ़ा ली तो उस बूढ़े ने कहा,और मैं जाते वक्त तुझसे यह भी कहे देता हूं कि इस पृथ्वी पर कोई भी गांव तुझे नहीं मिल सकता,जिस गांव में उस गांव से बुरे लोग न हों। लेकिन वह आदमी तो जा चुका था।
    वह गया भी नहीं था कि एक घुड़सवार आकर रूक गया और पूछा कि इस गांव के लोग कैसे हैं?मैं भी इस गांव में ठहर जाना चाहता हूँ। उस बूढ़े ने कहा,बड़ेआश्चर्य की बात हैअभी अभी एक आदमी यही पूछ कर गया है। लेकिन में तुमसे भी पूछना चाहूँगा कि उस गांव के लोग कैसे थे,जहां से तुम छोड़कर आये हो। उस घुड़सवार की आँखों में कोई जैसे रोशनी आ गई,उसके प्राणों में जैसे कोई गीत दौड़ गया। जैसे किसी सुगन्ध से उसकी श्वासें भर गयीं और उसने कहा,उस गांव के लोगों की याद भी मुझे खुशी की आँसुओं से भर देती है, इतने प्यारे लोग हैं। पता नहीं,किस दुर्भाग्य के कारण मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा।अगर कभी सुख के दिन वापिस लौटेंगे तो मैं वापिस लौट जाऊँगा उसी गांव में,वही गांव मेरी कब्रा बने, यही मेरी कामना रहेगी। उस गांव के लोग बड़े भले हैं। इस गांव के लोग कैसे हैं?उस बूढ़े ने उस जवान आदमी को घोड़े से हाथ पकड़कर नीचे उतार लिया,उसे गले लगा लिया और कहा,आओ, हम तुम्हारा स्वागत करते हैं।इस गांव के लोगों को मैं भलीभांति जानता हूँ सत्तर साल से जानता हूँ इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से बहुत भला पाओगे। ऐसे भले लोग कहीं भी नहीं हैं।
     आदमी जैसा होता है,पूरा गांव वैसा ही उसे दिखायी पड़ता है आदमी जैसा होता है,पूरा जीवन उसे वैसा ही प्रतीत होता है।आदमी जैसा होता है संसार उसे वैसा ही मालूम होने लगता है। जो लोग भीतर दुःख से भरे हैं और जिनकी जीवन दृष्टिअन्धेरी है वे लोग कहते हैं कि जीवन दुःख है जीवन अन्धकार है।उनका जीवन दुख रूप हो जाता है। आनन्द के भाव से जीवनऔर जीवन के स्वस्थअनुभव,जीवन का सौंदर्य और जीवन का सत्य और जीवन का शिवत्व उपलब्ध होता है इसलिए अगर जीवन को धार्मिक बनाना है तो दुःख के भाव को छोड़ देना होगा और आनन्द के भाव को जगह देनी होगी।दुःख का भाव क्या है और आनन्द का भाव क्या है?किस भाँति हमारे मन में दुःख के भाव को धीरे धीरे बिठाया जाये। और किस भांति हमारे मन में आनन्द का भाव तिरोभूत हो जाये। यह समझ लेना ज़रूरी है।एक दुःखी व्यक्ति देखता है, हज़ारों कांटों की गिनती कर लेता है और तब कहता है कितने कांटे इतने कांटे, कि एक फूल की कीमत नहीं कोई। एक फूल हो या न हो, बराबर है। लेकिन आनन्द के भाव से देखने वाले को दिखाई पड़ता है कितनी अद्भुत है यह दुनियाँ जहां इतने कांटे हैं वहां एक फूल भी पैदा होता है।और जब कांटों में फूल पैदा हो सकता है तो कांटे हमारे देखने के भ्रम होंगे क्योंकि जिन कांटों के बीच फूल पैदा हो जाता है। वे कांटे भी फूल सिद्ध हो सकते हैं।जो कांटों की गिनती करता है उसके लिए फूल भी कांटा दिखायी पड़ने लगता है और जो फूल के आनन्द को अनुभव करता है उसके लिए धीरे धीरे कांटे भी फूल बन जाते हैं। एक दुःखी और निराश और उदास चित्त से अगर हम पूछें कि कैसी दुनियां तुमने पायी,वह कहेगा,बहुत बुरी है यह दुनियाँ दो अन्धेरी रातें होती हैं तब कहीं मुश्किल से एक छोटा सा दिन होता है।एकआनन्द के भाव में डूबे आदमी से हम पूछें कि कैसी पायी तुमने दुनियां?वह कहेगा बड़ी अदभुत है दो उजाले से भरे दिन होते हैं,तब बीच में एक छोटी सी अन्धेरी रात होती है।रातें भी हैं दिन भी हैं।कांटे भी हैं फूल भी हैं। लेकिन हम क्या देखते हैं,हमारी दृष्टि क्या है इसपर पूरी की पूरी जीवन की दिशा और जीवन का आयाम निर्धारित होगा।औरआश्चर्य तो यह है कि हम जो देखना शुरू करते हैं,धीरे धीरे उसके विपरीत जो था उसी में परिवर्तित होता चला जाता है।वह भी उसीमें परिवर्तित होता चला जाता है। कांटे फूल बन सकते हैं। फूल कांटे बन सकते हैं।हमारी दृष्टि पर निर्भर है कि हम किस भाँति देखना शुरु करते हैं।

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

नवाब के साथ नमाज़ पढ़ना


     जब श्रीगुरुनानकदेव जी ने नवाब दौलतखाँ के मोदीखाना में काम करना छोड़ दिया, तब नवाब के बुलाने पर पहली बार तो वे उसके पास न गए,परन्तु जब उसने दोबारा बुलवाया तो फिर वे चले गए। नवाब ने जब उनसे पहली दफा बुलवाने पर न आने का कारण पूछा तो श्री गुरु नानकदेव जी महाराज ने फरमाया-अब हमआपके नौकर नहीं, परमेश्वर के चाकर हैं।अब हम फकीर हो गए हैं। यह सुनकर नवाब ने कहा-यदि आप फकीर हो गए हैं, तो फिर चलिए, हमारे साथ चलकर मस्जिद में नमाज़ पढ़िये। आज जुमा(शुक्रवार) है और हम सब नमाज़ पढ़ने जा रहे हैं।श्री गुरुनानकदेव जी उसकी बात सुनकर मुस्करा दिये और फरमाया-चलिये!हम तैयार हैं।
     मस्जिद में पहुँचकर नवाब दौलत खाँ तथा अन्य लोगों ने नमाज़ अदा की, परन्तु श्रीगुरुनानकदेव जी चुपचाप खड़े रहे। नमाज़ पढ़ चुकने पर नवाब ने श्रीगुरुनानकदेव जी से कहा-आप तो हमारे साथ नमाज़ पढ़ने आए थे,फिर आप खड़े क्यों रहे? आपने हमारे साथ नमाज़ क्यों न अदा की। यदि आपने ऐसा ही करना था,तो फिर यहाँ आए ही क्यों?श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-जब आप यहाँ मौजूद ही नहीं थे,तो फिर हम किसके साथ नमाज़ अदा करते?नवाब दौलत खाँ ने क्रोध में भरकर कहा-आप फकीर होकर झूठ क्यों बोलते हैं?मैं तो नमाज़ में शरीक था। श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया-नवाब सहिब!आपका शरीर तो यहाँ अवश्य थाऔर आपकी शरीर-इन्द्रियाँ भी नमाज़ अदा करने में व्यस्त थे, परन्तु आपका मन तो नमाज़ पढ़ते समय घोड़े खरीदने के लिए कंधार गया हुआ था, फिर हम किसके साथ नमाज़ पढ़ते? और निम्नलिखित बाणी का उच्चारण कियाः
          मत्था ठोके ज़मीन पर, मन उड्डे असमान।
          घोड़े कंधार खरीद करे, दौलत खाँ पठान।।
यह सुनकर नवाब बड़ा लज्जित हुआ। तब काज़ी ने कहा-नवाब साहिब के विषय में झूठ क्यों बोलते हो? श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया-हम सच बोल रहे हैं या झूठ,इस बारे में नवाब साहिब से ही क्यों नहीं पूछ लेते? तब नवाब ने कहा-काज़ी जी!नानक सच कहते हैं, वास्तविकता यही है कि जब मैं सजदे में खड़ा था, तब मेरा मन कंधार में भटक रहा था और वहाँ घोड़े खरीद रहा था। काज़ी ने कहा-नवाब साहिब! मान लिया कि आप मन से उस समय कंधार गए हुये थे, परन्तु हम तो कहीं नहीं गए थे, हमारे साथ नानक नमाज़ पढ़ लेते?काज़ी की बात सुनकर श्री गुरुनानकदेव जी ने हँसते हुए फरमाया-आप भी शारीरिक रूप से अवश्य यहाँ उपस्थित थे,परन्तु आपका मन तो आपके घर पर घूम रहा था,वह यहाँ पर कहाँ था? क्योंकि आपको तो उस समय यह चिन्ता सता रही थी कि बछेड़ा(घोड़े का बच्चा) जो आज ही पैदा हुआ है, वह कहीं आँगन में खुदे हुए गड्ढे में न गिर जाए। बात सच्ची थी,इसलिए काज़ी निरुत्तर हो गया।वह भला इस बात का क्या उत्तर देता?अब ऐसी नमाज़ अदा करने से कोई पूरा-पूरा लाभ उठा सकता है?कदापि नहीं। जब मन ही कहीं और भटक रहा है तो फिर पूरा लाभ कैसे मिल सकता है?पूरा पूरा लाभ तभी मिल सकता है जबकि मन भी एकाग्र होकर इन साधनों में जुट जाए ऐसा होने पर ही मनुष्य द्वारा की हुई पूजा,उपासना,सेवाआदि सच्ची मानी जायेगीऔर तभी उसे पूरा-पूरा लाभ भी मिलेगा।

रविवार, 25 सितंबर 2016

प्रारब्ध की गठरी सबके सिर पर है


          एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।
          इकु संसारी इकु भण्डारी इकु लाए दीवाणु।।
कुल मालिक ने संसार की रचना करते समय तीन शक्तियां उत्पन्न की और उन तीनों को पृथक-पृथक कर्तव्य सौंप दिये। ये तीन शक्तियां जो जगत का प्रबन्ध चला रही हैं,कौन सी हैं? और कौन से कर्तव्य उनको सौंपे गये हैं?एक कार्य है संसार के प्राणियों की उत्पत्ति करना, यह कार्य प्रकृति की ओर से ब्राहृा जी को सौंपा गया। दूसरा कार्य है संसार का पालन-पोषण करना,इस कार्य के लिये विष्णुमहाराज नियुक्त किये गये कि वे ब्राहृा जी द्वारा उत्पन्न जीवों को भोजन उपलब्ध करायें।अब तीसरा कार्य रह जाता है,प्राणियों के संहार करने का अर्थात संसार के जीवों का समय आने पर नाश करना,और यह कार्य है शिवजी महाराजका। अन्य शब्दों में यूँ समझ लीजिये कि ब्राहृा जी घड़े घड़ते हैं,विष्णु महाराज भरते जाते हैं और शिवजी समय आने पर अथवा पुराने होने
पर घड़े तोड़ते जाते हैं।ये तीनों शक्तियाँ अपने अपने कार्य में संलग्न हैं और यह क्रम निरन्तर चल रहा है। उत्पन्न करने का, पालन पोषण करने का अथवा संहार करने का कार्य मनुष्य के ज़िम्मे नहीं,अपितु इन शक्तियों के ज़िम्मे है। मनुष्य यदि इन तीनों देवताओं के कर्तव्यों का उतरदायित्व अपने ऊपर ले ले और कहे कि मैं ही उत्पन्न करने वाला और पालन करने वाला हूँ तो यह उसका अज्ञानता है इस अज्ञानता में पड़ कर मनुष्य व्यर्थ ही अपने आपको दुःखी बना लेता है। वह कहता है कि यदि मैं धनोपार्जन न करूँ तो मेरा परिवार भूखा मर जायेगा।इसका अर्थ कोई यह न समझ ले कि महापुरुष धनोपार्जन करने से अथवा परिवार के पालन-पोषण से रोकते हैं। ऐसा कदापि नहीं है। अपितु सन्तों का तो यह कथन है कि निस्सन्देह आप संसार में रहकर कार्य-व्यवहार करो,परिवार का पालन-पोषण करो धनोपार्जन करो,क्योंकि पुरुषार्थ करना मनुष्य का कर्तव्य है,परन्तु मन में यह विचारधारा होनी चाहिये कि मै कार्य-व्यवहार अवश्य कर रहा हूं,परन्तु पालन-पोषण का उत्तरदायित्व तो प्रकृति केहाथ में है।यदि मैं कल को इस संसार से  चला जाऊँ तब भी परिवार का पालन पोषण तो होता ही रहेगा। सतपुरुषों का कथन  हैः-
          गमें रोज़ी मखुर बरहम मज़न औराके-दफ्तर रा।।
          के पेश अज़ तिफल एज़्द पुर कुनद पिस्ताने-मादिर रा।।
अर्थः-ऐ मनुष्य!अपनीआजीविका की चिन्ता मत कर,न ही इसके लिये अपने भाग्य के कार्यालय की जांच-पड़ताल कर क्योंकि प्राकृतिक नियम है कि बच्चे के जन्म लेने से पूर्व ही मालिक माता के स्तनों को बच्चे के लिये दूध से भर देता है।
     इतिहास बतलाता है कि श्री कबीर साहिब जी के घर साधु-सन्त आया जाया करते थे।श्री कबीर साहिब जी कपड़ा बुनने का कार्य करते थे। इस धन्धे से जो कुछ प्राप्त होता,उससे परिवार का पालन-पोषण भी करते थेऔर साधु-सेवा भी करते थे। साधु-सेवा में अधिक रुचि होने के कारण श्री कबीर साहिब जी को कपड़ा बुनने के लिये बहुत कम समय मिलता था, इसलिये उनकी माता को बहुत चिंता होती थी। एक बार श्री कबीर साहिब जी की माता रह न सकी और रोने लगी। इसका वर्णन गुरुबाणी में इस प्रकार है-
मुसि मुसि रोवै कबीर की माई। ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई।।
तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर। हरि का नामु लिखि लिओ सरीर।।
माता के इसप्रकार के वचन सुनकर श्रीकबीर साहिब जी ने उत्तर दिया।
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा। हरि का नामु लहिओ मैं लाहा।।
कहत कबीर सुनहु मेरी माई। हमरा इनका दाता एकु रघुराई।।
     माता का यह कथन था कि साधु-सन्तों की सेवा में लगकर तुमने ताना बुनना भी त्याग दिया है। तुम तो हर समय मालिक का नाम जपते रहते हो, फिर भला परिवार का पालन-पोषण कौन करेगा? उत्तर में श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि हे माता। मेरी बुद्धि तो ओछी है क्योंकि मैं जाति का जुलाहा हूँ,किन्तु मैने मालिक के नाम का जो लाभ कमाया है, उसे मैं ही जानता हूँ, अन्य कोई नहीं जान सकता। हे माता!मेरा और सबका दाता तथा पालन करने वाला एक भगवान ही है, इसलिये तू क्यों व्यर्थ चिंता करती है।
     कहते हैं एक बार अकाल पड़ गया। उस समय श्री कबीर साहिब जी की लड़की कमाली ने सोचा कि कुछ दिन के लिये मैं अपने पिता के घर चली जाऊँ। यह विचार कर अपने बच्चों को साथ लेकर श्री कबीर साहिब जी के घर की ओर चल पड़ी। घर में प्रवेश करने से पूर्व द्वार पर उसे श्री कबीर साहिब मिल गये। कमाली को देख कर वे हँसने लगे।कमाली ने सोचा कि पिता जी शायद इसलिये हँस रहे हैं कि मैं उन पर बोझ बन कर आ गई हूं। श्री कबीर साहिब जी पूर्ण महापुरुष थे, अतएव कमाली के मनोभाव को जान कर उन्होने ये वचन फरमाये-बेटी! मैं इसलिये नहीं हँसा हूँ कि तू मुझ पर बोझ बन कर आई है, अपितु मैं तो मालिक की रचना को देखकर प्रसन्न हो रहा हूँ कि तुम जितने जीव मेरे घर आये हो, सब के सिर पर प्रारब्ध की गठड़ियाँ बँधी हुई हैं। यहाँ रहकर भी तुम सबने अपनी ही प्रारब्ध लेनी है।

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

विदूषक को छड़ी दी


   सारा जीवन इस नश्वर शरीर के बनाव-ऋंगार,पालन पोषण में गुज़ार देना कहाँ की बुद्धिमानी है। संत महापुरुष विभिन्न उदाहरण देकर अपनी बात को सपष्ट करते हैं।
     एक बार किसी राजा ने अपने मन बहलाव के लिये किसी विदुषक (जोकर) को नियुक्त किया। राजा ने मज़ाक करते हुये एक छड़ी उस विदुषक को दे दी और उससे कहा कि इस छड़ी को उस व्यक्ति को देना जो तुमसे भी अधिक मूर्ख हो।चार पाँच दिन के उपरांत विदुषक के हाथ में छड़ी को देखकर राजा ने पूछा कि उसने इस छड़ी को किसी व्यक्ति को क्यों नहीं दिया।तब विदुषक ने उत्तर दिया कि उसे कोई मूर्ख ही नहीं मिला। इस प्रकार कुछ दिनों के समय के अन्तराल पर राजा ने विदुषक से तीन चार बार यही प्रश्न पूछा।विदुषक का भी यही उत्तर था कि उसे कोई मूर्ख नहीं मिला। इस प्रकार छः माह बीत गये।
    राजा बहुत बीमार हो गया।अनेक उपाय करने के उपरान्त भी राजा स्वस्थ न हुआ। तब राजा को ऐसा अनुभव होने लगा कि उसका अंत समय निकट आ गया है।मृत्यु का विचार मन में आने से राजा का दुःख औरभी बढ़ गया।तभी विदूषक राजा का हाल पूछने के लिये उसके पास आया। राजा ने उसको कहा कि अब तो चलने की तैयारी है। विदूषक राजा की यह बात सुनकर बहुत हैरान हुआ। विदूषक ने पूछा कि कहाँ जाना है? राजा ने उत्तर दिया वह उस स्थान के बारे में अनभिज्ञ है जहाँ उसे जाना है। फिर विदुषक ने कहा कि पहले तो यात्रा पर जाने से पूर्व सारा सामान बाँध लिया जाता था अब साथ में क्या ले जाने का इरादा
है? क्या साथ ले जाने वाला सामान जैसे धन, कपड़े,वस्तुएँ आदि एकत्र कर बाँध ली गई हैं? तब राजा ने कहा कि जहाँ जाना है,वहाँ कुछ भी साथ नहीं जायेगा।तब विदुषक ने फिर प्रश्न किया कि कब जाना है और कैसे जाना है। परन्तु राजा का तो बार बार यही उत्तर था कि उसे कुछ भी नहीं मालूम कि कब जाना हैऔर कैसे जाना है।फिर विदुषक ने राजा से कहा कि किसी नौकर अथवा सम्बन्धी को साथ ले जायें जो यात्रा में आपकी सेवा कर सके।राजा ने उत्तर दिया कि जहाँ उसे जाना वहाँ कोई भी साथ नहीं जा सकता। विदूषक ने राजा की सब बातें सुनने पर वह छड़ी राजा के हाथ में थमा दी।
     उस छड़ी को देखकर राजा को आश्चर्य होने साथ साथ क्रोध भी आता है और विदूषक से पूछा यह छड़ी तो मैने किसी मूर्ख को देने के लिये दी थी।विदुषक अत्यन्त बुद्धिमान थाऔर सन्तों की संगत उसे प्राप्त थी,अतः उसने राजा से कहा-कि उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा जिसने अपनी यात्रा का पहले से ही प्रबन्ध नहीं किया हुआ है अर्थात मृत्यु के समय जब धन-सम्पत्ति,नौकर,सम्बन्धीऔर यहाँ तक कि अपना शरीर भी साथ नहीं जायेगा तोअपना सम्पूर्ण जीवन शरीर व शारीरिक सम्बन्धों के लिये व्यर्थ गँवा देना कहां की बुद्धिमानी है? ऐसा सोच कर ही मैने आपको छड़ी दी है।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

करूणा करो जिससे झगड़ा है


बुद्ध एक गंव में रूके हैं और एक आदमी को उन्होने ध्यान की दीक्षा दी है। उससे कहा कि करूणा का पहला सूत्र कि ध्यान के लिए बैठे तो समस्त जगत के प्रति मेरे मन में करूणा का भाव भर जाए, इससे शुरु करना।उसने कहा और सब तो ठीक है, सिर्फ मेरे पड़ोसी को छुड़वा दें, उसके प्रति करूणा करना बहुत मुश्किल है।बहुत दुष्ट हैऔर बहुत सता रखा है उसने और मुकदमा भी चल रहा है।और झगड़ा-झांसा भी हैऔर गुंडे भी उसने इकट्ठे लगा रखे हैं, मुझे भी लगाने पड़े हैं। सारे जगत के प्रति करूणा में मुझे ज़रा भी दिक्कत नहीं है,यह पड़ोसी भर को छोड़ दें, क्या इतने से कोई दिक्कत आएगी ध्यान में? सिर्फ एक पड़ोसी।
     बुद्ध ने कहा, सारे जगत को छोड़,सिर्फ एक पड़ोसी पर ही करूणा करना काफी होगा। क्योंकि दोष जो भरा है वह उस पड़ोसी के लिए है, सारे जगत से कोई लेना-देना नहीं है।करूणा,वह दोष का परिहार करेगी जो हमारे चित्त में इकट्ठे होते हैं।दूसरा बुद्ध ने कहा, मैत्री। समस्त जगत के प्रति मैत्री का भाव। समस्त जगत में आदमी ही नहीं,सब कुछ।तीसरा बुद्ध ने कहा है,मुदिता।प्रफुल्लता का भाव,प्रसन्नता का भाव।ध्यान रखना कि जब हम प्रफुल्लित होते हैं तब जगत के प्रति हमारे भीतर से कोई भी दोष नहीं बहता।और जब हम दुःखी होते हैं,हम सारे जगत को दुःखी करने का आयोजन सोचने लगते हैं। दुःखी आदमी सारे जगत को दुःखी देखना चहता है। उससे ही उसको सुख मिलता है। और कोई सुख नहीं है उनका। जब तक आप उनसे ज्यादा दुःखी न हों, तब तक वह सुखी नहीं हो पाते। दुःखी आदमी को जब चारों तरफ दुःख दिखायी पड़ता है, तब वह बड़ी निश्चिन्तता से बैठ जाता है।बुद्ध ने कहा है तीसरा,मुदिता। प्रफुल्लता से बैठना। ह्मदय को प्रफुल्लता से भरना। और चौथा बुद्ध ने कहा है, उपेक्षा। कुछ भी हो जाए-अच्छा हो कि बुरा,फल मिले कि न मिले, ध्यान लगे कि न लगे, ईश्वर से मिलन हो कि न हो,असफलता आए, सफलता आए,श्रेय,अश्रेय कुछ भी हो, उपेक्षा रखना। दोनों में समतुल रहना। दोनों में चुनाव मत करना। ये चार को बुद्ध ने कहा है। इनसे ह्मदय के दोष अलग हो जाएंगे। ध्यान इनके बाद सुगम बात होगी, सहज बात होगी।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

चोर मुसे घर आई


     मन रे जागत रहिये भाई।
     गाफिल होई बसत मति खोवे, चोर मुसै घर जाई।
असावधान होकर जीओगे, गाफिल होकर जीओगे, बेहोश जीओगे, नशे-नशे में जीओगे तो वह जो भीतर बसता है,वह जो भीतर का मालिक है, उसका तुम्हें कभी भी पता न चलेगा। वह जो भीतर बसा है तुम्हारे घर में। और जब भीतर का पुरुष, भीतर का दिया अन्धेरे से ढंक जाए,गहन रात में खो जाए,भीतर की प्रतिभा सो जाए जागी न हो,तो फिर चोर घर में घुसना शुरु हो जाता है।बुद्ध ने कहा है,घर में कोई न भी होऔर सिर्फ दिया जलता हो तो भी चोर डरते हैं, घर में कोई न भी हो लेकिन दिया जलता हो,तो भी चोर दूर दूर चलते हैं। क्योंकि दिये के जलने से खबर, शायद घर में कोई हो।जिस दिन भीतर का दिया जलता है,उस दिन चोर प्रवेश नहीं करते। चोर कौन है? जो भी तुम्हें प्रतिक्रिया में ले जाते हैं, वे सभी चोर हैं। किसी ने गाली दी और तुम प्रभावित हो गये। चोर भीतर घुस गया। अब यह चोर तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा। यह बड़े मजे की बात है,गाली देने वाला तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाता था, न पहुँचा सकता था।उसकी सामथ्र्य न थी,चोर बाहर था,क्या करेगा?लेकिन तुमने चोर को भीतर बुला लिया। तुम क्रोधित हो गए।अब नुकसान होगा। महावीर ने बार-बार कहा है, तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र भी नहीं है और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु भी नहीं है।अगर तुम चोरों को भीतर घुसने दोगे, तो तुम्हीं शत्रु हो। जिसने गाली दी,वह शत्रु नहीं है। क्योंकि इसकी गाली तो बाहर पड़ी रह जाती,अगर तुम अक्रोध में रहे आते।अप्रभावित अगर तुम गुज़र जाते,तो इनकी गाली भीतर प्रवेशकैसे करती?किसी ने सम्मान किया,सम्मान में कोई खतरा नहीं है।लेकिन तुम अकड़ गए,अहंकार आ गया। चोर भीतर घुस गया।चोर तुम्हारे कारण भीतर घुसता है, दूसरे के कारण नहीं। एक सुन्दर स्त्री गुजरी। उसे पता भी न होगा, कि आप वहां मन्दिर के सामने खड़े क्या कर रहे थे?या मन्दिर के भीतर आप तो पूजा कर रहे थे और एक स्त्री भी आकर झुकी। स्त्री को कुछ पता भी न हो, स्त्री का कुछ हाथ भी न हो, चोर आपके भीतर घुस गया।किसी ने गाली दी,तब तो हमें यह भी लगता है कि कम से कम इसने गाली तो दी।कुछ तो इसका हाथ है।लेकिन एक सुन्दर स्त्री पास से गुज़री, उसने आपकी तरफ देखा भी नहीं, लेकिन चोर  भीतर घुस गया। आपने चोर खुद ही बुला लिया। काम जग गया। वासना जग गई। आप गाफिल हो गए। मुश्किल में पड़ गए। बेचैनी हो गई। एक उत्तप्तता ने घेर लिया। खो दिया केन्द्र अपना। सपना जग गया नींद आ गई।
     गाफिल होई बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई।
जैसे ही तुम गाफिल हुए, वैसे ही चोर भीतर घुस जाता है। तो तुम्हारी गफलत ही असली कारण है। बुद्ध एक गांव के पास से गुज़रे। लोगों ने गालियाँ दी,अपमान किया। बुद्ध ने कहा,क्या मैं जाऊँ,अगर बात पूरी हो गई हो?क्योंकि दूसरे गांव मुझे जल्दी पहुँचना है। लोगो ने कहा,यह कोई बात न थी। हमने भद्दे से भद्दे शब्दों का प्रयोग किया है,क्या तुम बहरे हो गए? क्या तुमने सुना नहीं? बुद्ध ने कहा कि सुन रहा हूँ।पूरे गौर से सुन रहा हूँ।इस तरह सुन रहा हूँ,जैसा पहले मैने कभी सुना ही न था, लेकिन तुम ज़रा देर करकेआए।दस साल पहले आना था।अब मैं जाग गया हूँ। अब चोरों को भीतर घुसने का मौका न रहा।तुम गाली देते हो।मैं देखता हूँ। गाली मेरे तक आती है और लौट जाती है। ग्राहक मौजूद नहीं है । तुम दुकानदार हो। तुम्हें जो बेचना है, तुम ले आए हो। लेकिन ग्राहक मौजूद नहीं है। ग्राहक दस साल हुए मर गया।पीछे के गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाए थे।मेरा पेट भरा था,तो मैने उससे कहा,वापिस ले जाओ। मैं तुमसे पूछता हूं, वे क्या करेगें?किसी ने भीड़ में से कहा, जाकर गांव में बांंट देंगे,खा लेंगे। बुद्ध ने कहा,तुम क्या करोगे?तुम गालियों के थाल सजाकर लाए। मेरा पेट भरा है। दस साल से भर गया। तुम ज़रा देर करके आए।अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को वापिस ले जाओगे, बांटोगे,या खुद खाओगे?मैं नहीं लेता।तुम गलत आदमी के पासआ गये।
और जब तक मैं न लूं, तुम कैसे गाली दे सकते हो? देना तुम्हारे हाथ में है, लेने की मालकियत तो सदा मेरे हाथ में है। देने से ही तो काम पूरा नहीं हो जाता।यह अधूरी प्रक्रिया है। और मजा यह है, कि अगर तुम लेने को तत्पर हो, तो बिना दिए भी मिल जाता है। कोई आदमी हँस रहा है। वह किसी और कारण से हँस रहा है, तुमको चोट लग गई। तुम समझे, तुम्हारे कारण हँस रहा है। तुम्हारी अकड़ ऐसी है कि तुम सोचते हो, दुनियाँ में जो भी हो रहा है, तुम्हारे कारण हो रहा है। लोग हँस रहे है। तो तुम्हारी वजह से हँस रहे है। लोग धीरे-धीरे घुस घुस करके बातें कर  रहे हैं, तो तुम्हारी निन्दा कर रहे है अन्यथा घुस घुस करके क्यों बातें करेंगे। जैसे तुम केन्द्र हो सारे संसार के, कि जो भी यहाँ हो रहा है, तुम्हारी वजह से हो रहा है। फूल खिल रहे है, तो तुम्हारे लिए। चादँ-तारे उग रहे हैं तो तुम्हारे लिए। गालियाँ आ रही हैं तो तुम्हारे लिए। लोग हँस रहे है, मज़ाक कर रहे हैं तो तुम्हारे लिए। तुमने सारी दुनियाँ को अपने सिर पर उठा रखा है। जो तुम्हें नहीं दिया गया है, वह भी तुम ले लेते हो। जो होशपूर्वक,व्यक्ति बुद्ध जैसा व्यक्ति वही लेता है, जो लेना है।

शनिवार, 10 सितंबर 2016

सन्त एकनाथ जी

सन्त एकनाथ जी पैठन(दक्षिण भारत का एक नगर) के निवासी थे।अति शान्त और मृदुल स्वभाव। क्षमा, दया और करुणा से ओतप्रोत जीवन। अक्रोध तो मानो एकनाथ जी का स्वरूप ही था। उनके मुख पर सदैव शान्ति विराजमान रहती। किन्तु संसार में यदि अक्रोध है तो क्रोध भी है, शान्ति है तो अशान्ति भी है, दया और करुणा है तो क्रूरता भी है तथा सन्त हैं तो असन्त भी हैं।
     सन्त एकनाथ जी नित्यप्रति प्रातःकाल गोदावरी नदी पर स्नान करने जाया करते थे। मार्ग में एक सराय पड़ती थी जिसमें एक पठान रहता था। वह दुष्ट स्वभाव का था। वह आते-जाते व्यक्तियों को बहुत तंग किया करता था। एकनाथ जी जब नदी से स्नान करके लौटते तो वह पठान उनके ऊपर कुल्ला कर देता। एकनाथ जी वापिस लौट जाते और पुनः नदी पर स्नान करते। जब वे पुनः स्नान करके वापिस आते, वह पठान फिर उनपर कुल्ला कर देता। किसी किसी दिन तो उन्हें चार-पांच बार स्नान करना पड़ता,परन्तु एकनाथ जी तनिक भी क्रुद्ध न होते। उनके मुखमंडल पर सदैव की ही भाँति शान्ति शोभायमान रहती। वह पठान सोचता, यह कैसा मनुष्य है जो तनिक भी क्रोध नहीं करता। एक दिवस-आज मैं इऩ्हें क्रोधित करके ही रहूँगा-यह पठान की जिद थी। अथवा यूँ कहा जाये कि नित्यप्रति सन्तों के दर्शन करते-करते उसके पुण्य संस्कार उदय होने तथा सुधरने का समय आ गया था तो अनुचित न होगा। उस दिन एकनाथ जी बार-बार स्नान करके आते और वह पठान बार-बार उनके ऊपर कुल्ला कर देता। सन्त एकनाथ जी को उस दिन एक सौआठ बार स्नान करना पड़ा, परन्तु क्या मजाल जो उनके चेहरे पर क्रोध की रेखा भी उभरी हो।
     ""आप मुझे क्षमा करें। मैने बहुत पाप किये हैं जो आपको प्रतिदिन कष्ट दिया है।आप वास्तव में ही सच्चे सन्त हैं।''कहते हुये उस पठान ने एकनाथ जी के चरण पकड़ लिये।""अरे-अरे!यह क्या करते हैं?आपकी कृपा से मुझे आज एक सौ आठ बार गोदावरी-स्नान का सौभाग्य प्राप्त हुआ।''कहते हुये सन्त एकनाथ जी ने उस पठान को प्रेम से गले लगा लिया। उस दिन से वह पठान पशुता त्याग कर मानव बन गया और सन्तों का आदर-सत्कार करने लगा।

रविवार, 4 सितंबर 2016

क्षमा

गौतम बुद्ध के एक शिष्य पूर्ण ने सीमाप्रांत में धर्म प्रचार करने की अनुमति मांगी। बुद्ध ने कहा, ‘उस प्रांत के लोग अत्यंत कठोर तथा क्रूर हैं। वे तुम्हें गाली देंगे।’ पूर्ण ने कहा, ‘मैं समझूंगा वे भले लोग हैं कि वे मुझे थप्पड़-घूंसे नहीं मारते।’ बुद्ध बोले, ‘यदि वे तुम्हें थप्पड़-घूंसे मारने लगे तो…।’ पूर्ण ने कहा, ‘वे शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे इस कारण मैं उन्हें दयालु मानूंगा।’

इस पर बुद्ध बोले, ‘यदि वे शस्त्र प्रहार करें तो…?’ पूर्ण ने फिर उसी तरह जवाब दिया, ‘अगर वे मुझे मार नहीं देंगे तो मुझे इसमें उनकी कृपा ही दिखेगी।’ बुद्ध बोले, ‘ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि वे तुम्हारा वध नहीं करेंगे।’ पूर्ण ने उत्तर दिया, ‘यह शरीर रोगों का घर है। आत्मघात पाप है इसलिए जीवन धारण करना पड़ता है। मुझे मारकर वे मेरे ऊपर कृपा ही करेंगे।’ बुद्ध प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे धर्मप्रचार की अनुमति देते हुए कहा, ‘जो किसी दशा में दोष नहीं देखता वही सच्चा साधु है।

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

सम्यक जीवन

मोटा अर्थ है कि व्यायाम उतना करें जो सम्यक हो संतुलित हो। सूक्ष्म अर्थ भी है। इसका गहरा अर्थ है कि आप जो भी श्रम करें चाहे मानसिक तल पर चाहे शारीरिक तल पर वो हमेशा सम्यक हो वो कभी अति पर न चला जाये। वो अति पर चला जायेगा घातक हो जायेगा।
     बुद्ध के पास श्रोण नाम को एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। वो वैभव में पला उसने कभी कोई दुःख नहीं देखे कभी नंगे पैर सड़क पर नही चला। वो भिखारी हो गया उसको अब चिथड़े पहनने पड़े और नंगे पांव चलना पड़ा। लेकिन बुद्ध देखकर हैरान हुये कि और भिक्षु तो ठीक रास्ते पर चलते हैं वो उन पगडन्डियों पर चलता है जहाँ काँटे हों उन पर जानबूझकर चलता है। और जब उसके पैरों से खून बहने लगता है और फफोले होने लगते हैं उसमें गौरव अनुभव करता है इसको वो तपश्चर्या समझ रहा है। इसको वो त्याग समझ रहा है। बड़ा सुन्दर था गौर वर्ण था। तीन महीने में वो सूखकर हड्डी हो गया। एक दम काला पड़ गया। बुद्ध ने एक दिन उसके पास जाकर कहा, एक बात पूछनी है। मैने सुना कि जब तुम राजकुमार थे तुम बीणा बजाने में बहुत कुशल थे। तो मैं ये पूछने आया हूँ अगर बीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा होता है? तो उसने कहा तार बहुत ढीले हों तो संगीत कैसे पैदा होगा? ध्वनित ही नहीं होगा। बुद्ध ने कहा, तार अगर बहुत कसे हों तो संगीत पैदा होता है? तो उसने कहा, तार बहुत ज़्यादा कसे हों तो वो टूट जायेंगे। तब भी ध्वनित नहीं होगा। बुद्ध ने कहा, मैं तुमसे ये कहने आया हूँ, कि जो वीणा का नियम है वही जीवन का नियम है। तार बहुत ढीले हों तो बेकार हैं तार बहुत कसे हों तो बेकार हो जायेंगे। तारों की एक स्थिति ऐसी है कि जो न ढीले हैं और न कसे हुये हैं वही स्थिति जिन्हें आप न ढीले कह सको न कसे कह सको तभी उनमें संगीत पैदा होता है। और जीवन में भी वहीं संगीत पैदा होता है जहाँ संतुलन होता है। जहाँ इस तरफ या उस तरफ किसी अति पर नहीं होता है। एक आदमी अतिशय भोजन करता है फिर उपवास भी करता है। ये दोनों बातें पागलपन की है। न तो निराहार होना है न अति आहार करना है। सम्यक आहार लेना है।

शनिवार, 27 अगस्त 2016

स्वयं को देखो...


दो राजकुमार, जब वे युवा थे, एक ही गुरुकुल में पढ़े। फिर पढ़ने के बाद विदा हो गये। दीक्षांत हुआ और गुरु से विदा लेकर वे अलग-अलग रास्तों पर चले गये। बाद में वर्षों के बाद एक तो बहुत बड़ा राजा हो गया और एक के पास जो था। उसको भी छोड़कर भिखारी (सन्यासी) हो गया। वह भिखारी वर्षों बाद घूमता हुआ राजा की राजधानी में आया। राजा के महल में ठहरा। राजा ने उससे पूछा, तुम दूर-दूर के देशों में घूमकर आये हो, मेरे लिए क्या लाए हो? मित्र थे वे पुराने, बचपन से गहरा उनका प्रेम था और यह पूछना बिल्कुल स्वाभाविक था।  उस मित्र ने, जोकि संन्यासी था और भिखारी था, उसने कहा मैने बहुत सोचा कि मैं क्या ले चलूं तुम्हारे लिए। लेकिन जो भी मैं सोचता था, मुझे लगता कि वह तो तुम्हारे पास होगा ही ऐसा क्या है जो तुम्हारे पास न हो? तो मैं बहुत सोचता था, बहुत दुकानों पर गया, बहुत-सी चीज़ें देखीं, लेकिन जो भी सोचता था, यह तो तुम्हारे पास होगा उसे भेंट में ले भी गया तो क्या अर्थ है? फिर बहुत सोचा, बहुत खोजा, मुझे कुछ समझ नहीं आया। आखिर एक छोटी-सी चीज़ खरीद लाया हूँ। जो कि तुम्हारे पास नहीं होगी। उसने अपनी झोली से वह चीज़ निकाली और उस राजा को भेंट की।
     आप कल्पना नहीं कर सकते कि वह चीज़ क्या रही होगी। क्योंकि राजा बड़ा था, उसके पास, सब-कुछ था और एक भिखारी उसको क्या भेंट दे सकता है?' उसने बड़ी छोटी-सी चीज़ भेंट दी, उसका मूल्य भी नहीं था-वैसे उसका बड़ा मूल्य है, और कई बार ऐसा होता है कि जिन चीज़ों का कोई मुल्य नहीं होता है जीवन में, उनका ही असल मूल्य होता है। और जो बहुत मूल्यवान चीज़ें होती हैं, अंत में पाया जाता है कि उनका कोई भी मूल्य नहीं था। मैने व्यर्थ ही उनके बोझ को ढोया। उसने दिया था एक छोटा सा दर्पण, और राजा से कहा था कि इसे रख लो, इसमें कभी-कभी अपना चेहरा देख लिया करो। अजीब-सी बात थी। मैं भी दर्पण ही आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपना चेहरा देख सकें और इससे बड़ी कोई बात नहीं है कि अपना चेहरा दिखाई पड़ जाये। बहुत कम लोग हैं, जो अपने को देख पाते हैं। दुनियाँ में सब-कुछ देख लेना आसान है, अपने को देखना बहुत कठिन है।और ऐसा दर्पण बहुत थोड़े लगों को उपलब्ध हो पाता है, जिसमें वे अपनी प्रतिछवि देख सकें और अपने को पहचान सकें। उस फकीर ने दिया था एक दर्पण कि इसे अपने पास रख लो, इसमें अपने को देख लेना। ऐसा ही दर्पण मैं (सत्पुरुष) भी आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने को देख सकें।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

व्यक्तित्व आकर्षक कैसे बनायें


निम्न बातों को ध्यान में रखकर आप अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना सकते हैं।
हमेशा सोच-समझ कर बोलें।। किसी दूसरे व्यक्ति की बातें आप भी धैर्यपूर्वक सुनें।। कभी मिथ्या ज्ञान के बारे में न बोलें।। अपनी आवाज़ पर ध्यान न दें, बहुत तेज़ न बोलें।। दूसरों की बातें पूरी सुनने के बाद ही बोलें।। जिस विषय पर आप बोलें उस पर पूर्ण अधिकार हो।। खाना खाते समय न बोलें।। अपनी गलती को सही सिद्ध करने की कोशिश न करें।। बोलते समय अपने स्तर का ध्यान रखें। बड़ों से बात करते समय उनके लिए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करें।। सामने वाले की रुचि के अनुसार बोलें, गलत शब्द न बोलें।।अपने से छोटों से बात करते समय उनसे सीमित बात करें। अगर आप उनसे ज्यादा बात करेंगे तो हो सकता है आपकी बातों पर ध्यान न दें और आपका मज़ाक बनाएं।। बोलते समय हिले-डुले नहीं और न हाथ हिलाएं, बोलते समय मुँह से थूक न उड़ाएँ, सार्वजनिक स्थानों पर धीरे बोलें, फोन पर भी धीरे-धीरे बात करें।। अपने से छोटों का किसी आगन्तुक के सामने अपमान न करें।। महफिल में, किसी पर कोई इस तरह का कमैंट न करें जिससे उस व्यक्ति का अपमान हो, दूसरे व्यक्ति के वस्त्रों पर टिप्पणी न करें।। अगर कोई किसी की बुराई कर रहा है तो हो सके तो वहां से हट जाएं या चुप रहकर सुनें।। किसी को भी गलत नाम से न पुकारें।। अपने नौकर से ज्यादा बातें न करें , हमेशा हंसने के अंदाज़ में बात करें, घर आने वाले आगन्तुक की बातें सुनने-समझने की कोशिश करें।। यदि दूसरे व्यक्ति से बातें करते समय कोई गलत बात मुँह से निकल जाती है तो उस बात को लेकर हंसी न बनाएं, न ही उसे बीच में टोकें। आपके ऐसा करने में और व्यक्ति भी आप से बात करने में कतराएँगे। ऐसी बातों को नज़र अंदाज़ कर दें तो अच्छा है।। बच्चों के सामने बड़ों के लिए अपशब्द न कहें। बच्चों में सभी से सम्मानपूर्वक बोलने की आदत डालें।। बढ़ती आबादी के कारण मकान प्रायः पास-पास और ऊपर-नीचे होते हैं ऐसे में जहां तक हो धीरे-धीरे ही बोलें जिससे पास के घर तक आवाज़ न जाए।। अगर दो व्यक्ति बातें कर रहे हों तो बिना मांगे अपनी सलाह न दें।। किसी दूसरे के घर की बातों में दखलंदाज़ी न करें। अगर वह आपसे सलाह मांगे भी, तो उसे अपनी समस्या खुद ही सुलझाने का सुझाव दें।। हर बात पर ठहाका लगा कर न हंसे, सार्वजनिक स्थान पर धीर धीरे हंसे।। किसी के बारे में गलत बात न करें, अगर वह बात उसके कानों तक पहुँच गई अगर आप में  ऐसी कोई आदत है जिसके बारे में घर के सदस्य पहले आपको टोक चुके हों, ऐसी आदत को छोड़ने की कोशिश करें।।आपका मधुर हास्य कई रोते हुए दिलों को खिला सकता है। प्रसन्न व्यक्ति स्वस्थ भी रहता है और लोकप्रिय भी।। परनिंदा से बचिये। सदा गुणों को ही देखने का प्रयास कीजिए। दोष नहीं, अगर देखें भी तो उनकी चर्चा न करें, किसी की खिल्ली न उड़ाएँ। व्यंग्य न करें, चुगलखोरी कभी न करें, बात के धनी बनिए। दिया हुआ वचन निभाने का हर संभव प्रयास करें। कहकर कभी न मुकरें। उसे प्राणपण से निभाएं।। साथ ही चारित्रिक दृढ़ता के लिए भी प्रयास करें।। हर सुंदर वस्तु केवल हमारे उपभोग के लिए नहीं बनी है, अतः मन में लालच को प्रवेश न करने दे। बड़े बुज़ुर्गों को आदर सम्मान दें, चाहे वे परिचित हों या अपरिचित,। इसी प्रकार बराबरी वालों से समानता और छोटों से मित्रता का व्यवहार करें। कभी किसी की तरफ उंगली दिखाकर बात न करें, यह बहुत ही अपमानजनक होता है। सामने हाथ बांधकर बैठने से भी बचें, यह बचावकारी रवैया दर्शाता है। वार्तालाप के कारण ज्यादा हाथ चलाना भी ठीक नहीं। इसका आशय यह भी नहीं कि एकदम जड़वत बैठे रहें। बेवजह अपने पेन, पल्लू से ने खेलें, बार-बार अपने चेहरे या बालों पर हाथ ना फेरें। एक के ऊपर एक पैर मोड़ कर न बैठें, कोई व्याख्यान या भाषण देते समय या खड़े होकर बात करते समय ज्यादा हिलें डुले नहीं। ज्यादा ऊंची आवाज़ में बात करना दूसरों को अच्छा न लगने के साथ ही असभ्यता का प्रतीक है, अक्सर लोगों को फोन पर चिल्ला-चिल्लाकर बात करने की आदत होती है जो दूसकों के काम में व्यवधान डालता है। हरदिन किसी की एक  अच्छी बात की प्रशंसा करें, ध्यान रखें कि बेवजह ऐसा न करें, झूठी प्रशंसा से अच्छा है कि आप प्रशंसा ही न करें। नहर किसी में कुछ न कुछ अच्छा होता है, उसे सराहना, प्रोत्साहन देना आवश्यक है। ¬इन सब बातों को अगर आप अपनाएँगे तो आपका व्यक्तित्व और भी निखल आएगा।

रविवार, 21 अगस्त 2016

ध्यान

सभी महापुरुषों ने एक ही बात कही है- ध्यान,ध्यान और सिर्फ ध्यान
एक झेन फकीर के संबंध में मैने सुना है। एक विश्वविद्यालय का अध्यापक उनसे मिलने गया। उस अध्यापक ने कहा, "मुझे ज्यादा समझाने की ज़रुरत नहीं है, मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूँ, शास्त्र से परिचित हूँ, बौद्ध शास्त्रों का ही अध्ययन किया है, उसी में मैं पारंगत हूँ, इसलिए आप मुझे संक्षिप्त भी कहेंगे तो मैं समझ जाऊंगा।' वह फकीर चुप ही बैठा रहा, कुछ भी न बोला एक शब्द भी न बोला, थोड़ी देर चुप्पी रही, फिर उस अध्यापक ने पूछा, "कुछ कहते क्यों नहीं?' उस फकीर ने कहा," मैने कहा, मौन ही सार है, तुम समझे नहीं, चूक गये। तुम्हें भ्रान्ति है कि तुम बुद्धिमान हो। मैं चुप रहा, मेरी चुप्पी से ज्यादा और क्या कहूँ? यही सार है सारे अऩुभव का। तुुम्हारे पास आँखें होतीं तो तुम देख लेते यह प्रज्जवलित शांति, यह जलता हुआ भीतर का दीया।' अध्यापक ने कहा, आप ठीक कहते हैं, इतनी गहरी मेरी समझ नहीं है। एकाध-दो शब्दों का उपयोग करेंगे तो चलेगा, फिर से कहें।' तो फकीर कुछ बोला नहीं, रेत पर बैठा था, अंगुली से रेत पर लिख दिया-ध्यान। अध्यापक ने कहा, "इतने से भी काम नहीं चलेगा, कुछ थोड़ा और कहें, फिर बोलते क्यों नहीं हैं?' रेत पर लिखने की क्या ज़रुरत है?' उस फकीर ने कहा, "बोलने से यहां की शांति भंग होगी, लिखने से भंग नहीं होती, इसलिए रेत पर लिख दिया है।' उस अध्यापक ने कहा, "थोड़ा और कहे, इतने से काम न चलेगा।' तो उसने दोबारा ध्यान लिख दिया, अध्यापक ने और जोर मारा तो उसने तीसरी बार ध्यान लिख दिया। अध्यापक तो पगला गया, उसने कहा, "आप होश में हैं? आप वही-वही शब्द दोहराए जा रहे हैं।' झेन फकीर हँसने लगा, उसने कहा," सारे बुद्धों (महापुरुषों) ने बस एक ही शब्द दोहराया है, सारे जीवन एक ही शब्द दोहराया है, कितने ही शब्दों का उपयोग किया हो, लेकिन दोहराया एक ही शब्द है-ध्यान-ध्यान-ध्यान।'

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

खोपड़ी देखकर बताता था कि आत्मा कहाँ है


     मीगासारा एक ब्रााहृण था जिसकी बड़ी प्रसिद्धि थी। उसने एक विचित्र सिद्धि प्राप्त कर रखी थी। किसी मृत व्यक्ति की खोपड़ी को हाथ में लेकर और उसे अपनी अंगुली से बजाकर वह यह बता सकता था कि इसकी आत्मा इस समय कहां है। मीगासारा ने महात्मा बुद्ध की प्रशंसा सुन रखी थी और यह भी सुन रखा था कि महात्मा बुद्ध आत्मा को नहीं मानते। वह उत्सुक था उनको अपनी सिद्धि दिखाकर यह मनवाने के लिए कि आत्मा का अस्तित्व है और एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। एक दिन उसे पता चला कि महात्मा बुद्ध पास वाले गाँव में आए हुए हैं। बस! फिर क्या था, वह शीघ्र ही वहां जा पहँचा। महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एक वृक्ष की छाया में विराजमान थे। मीगासारा ने प्रणाम किया और वार्तालाप आरम्भ हो गया। मीगासारा ने बड़े गर्व से कहा- ""आप तो आत्मा के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते, इसीलिए आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करते हैं। परन्तु मैं तो किसी भी मृत व्यक्ति की खोपड़ी को हाथ में लेकर यह बता सकता हूँ कि उसकी आत्मा  कहाँ हैं।''
      यह सुनकर महात्मा बुद्ध बोले- ""यह तो आपकी अति विचित्र कला है। क्या आप हमारे एक भिक्षु की खोपड़ी को देखकर उसकी आत्मा के बारे में  बता सकेंगे?'' अवश्य। आज तक  एक  भी ऐसा अवसर नहीं आया जब मैं यह नहीं बता सका। लाइए, खोपड़ी कहां है?'' मीगासारा ने गर्व से कहा। खोपड़ी लाई गई। मीगासारा उसे हाथ में लेकर घुमाने लगा और अंगुली से बजाने लगा। इसके साथ-साथ उसने कुछ मंत्र भी उच्चारण किए। परन्तु उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि खोपड़ी कुछ भी नहीं बता रही।
     ""मीगासारा, क्या हुआ? इस भिक्षु की आत्मा कहाँ है?'' महात्मा बुद्ध ने पूछा। जब मीगासारा उस भिक्षु की आत्मा के बारे में बताने में असफल हो गया और उसने अपनी आँखें नीची कर लीं, तब महात्मा बुद्ध ने उसे इस असफलता का रहस्य बताते हुए कहा- ""मीगासारा, घबराओ नहीं। इस खोपड़ी में कोई विचित्र बात नहीं है। मृत्यु से पहले ही इस भिक्षु ने अपनी ""मैं'' अथवा अहम् की भावना को पूरी तरह समाप्त कर दिया था, इसलिए उसने निर्वाण प्राप्त कर लिया और जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो गया। मीगासारा। सब प्राणी अपने विचारों से व इच्छाओं से अपना एक व्यक्तित्व या मैं या अहंकार बना लेते हैं और वही बन जाता है उनके जन्म-मरण का कारण। मैं जो धर्म सिखाता हूँ, वह इसी ""मैं'' को मिटाता है और व्यक्ति निर्वाण प्राप्त करके जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाता है।

सन्तों से बुरी नियत का फल


     श्री गुरुनानक देव जी के सच्चे उपदेशों को सुनकर हर तरफ सच्चाई की धूम मची हुई थी। खलकत उनके दर्शन के लिये बड़ी संख्या में आने लगी। जो भी लोग आते सच्चाई का उपदेश पाकर मालामाल हो जाते और खुशी खुशी घर को लौटते। जो भी वाणियां श्री गुरु नानक साहिब के मुख से निकलती थीं, वह अधिकतर लोगों की जीभ पर रहने लगीं और आज तक लोग उनकी वाणी को बड़े आदरपूर्वक पढ़ते और अमल में लाते हैं।
     एक और लखपति अहलकार वहाँ रहता था। वह भी अपनी दौलत से घमण्ड में किसी को कुछ नहीं समझता था। उसने जब गुरु जी की सच्चाई भरी वाणियाँ लोगों की ज़बान से सुनी, तो सोचने लगा कि यह नानक कौन शख्स है, जिसका नाम हर छोटे बड़े की ज़बान पर रहता है और हर जगह जिसका इतना आदर सत्कार हो रहा है। हिन्दु-मुसलमान सभी क्यों इस साधारण से फकीर के पीछे दीवाने हो रहे हैं? ये विचार थे, जिन्होने उस लखपति अहलकार को भड़का दिया। उसने सोचा कि इस नानक को गरिफ्तार कर लेना चाहिये। यही बुरी नीयत धारण करके वह घोड़े पर सवार होकर चला। घर से निकला ही था कि घोड़ा मचल गया और दोलत्ती झाड़कर उसे अपनी पीठ से नीचे दे पटका। वह उठा और दूसरी बार उछलकर घोड़े की पीठ पर जा बैठा। परन्तु मार्ग में अन्धा हो गया। विवश होकर घोड़े से उतरा और आने जाने वालों को सहायता के लिये पुकारने लगा। जिन्होंने उसकी यह दशा देखी, वे डर के मारे सहम गये। सबने उस अहलकार से यही कहा कि नानक साहिब सत्पुरुष और परम सन्त हैं। उनसे छेड़छाड़ करने का यह कुपरिणाम निकला है। कुछ भले लोगों ने उस मनसबदार को यह सलाह दी कि अब तुम श्री गुरुनानक सहिब जी के पास जाकर उनके पवित्र दर्शन करो और अपनी बुरी नीयत के लिये उनके चरणों में पड़कर  क्षमा  याचना करो। आशा है कि तुम पर वे अवश्य दयालु होंगे।
     मनसबदार पर इस नसीहत का कुछ प्रभाव पड़ा। चुनांचे वह फिर घोड़े पर सवार होकर श्रीगुरुनानकदेव जी के दर्शन के लिये तैयार हुआ। परन्तु घोड़े ने फिर दोलत्ती झाड़कर नीचे गिरा दिया। तब लोंगों ने कहा कि सन्तों के दर्शन के लिये नम्रता और दीनता धारण करके जाना चाहिये। घोड़े पर सवार होकर जाना अहंकार का सूचक है। यह परामर्श उसे पसन्द आया और पैदल ही गुरु जी के दर्शन को चला। नीयत शुद्ध करके जब चला, तो ज्यों ही उनके निवास-स्थान के निकट पहुँचा कि खुदबखुद ही उसके नेत्र खुल गये। अब यह चमत्कार देखकर उस मनसबदार की श्रद्धा गुरु के चरणों में और भी बढ़ गई। बड़ी श्रद्धा और हार्दिक प्यार से वह उनके चरणों में गिरा और अपने किये हुये अपराध के लिये क्षमा-प्रार्थी हुआ। सन्तों का कथन हैः-
          र्इं  दरगहे - मा  दरगहे - नौमीदी नेस्त।।
          सद बार अगर तौबा शिकस्ती बाज़ आ।।
अर्थः-""ऐ गाफिल जीव! यह हमारी दरगाह निराशा और संशय की दरगाह नहीं है। इस दरगाह में सबका अपराध क्षमा किया जाता है। यदि तू सौ बार भी तौबा तोड़ चुका है, तब भी इस दरगाह में आ जा कि तुझे खाली नहीं लौटाया जायेगा।''
     सन्तों का दरबार क्षमा और बख्शिश का दरबार है। श्री गुरुनानक साहिब उसकी सच्ची श्रद्धा से अति प्रसन्न हुये और दयालुता से पेश आये। सन्त महापुरुष किसी के अपराध को दिल में नहीं रखते, बशर्ते कि अपराधी सच्चे मन से अपनी गलती पर पछताने लगा हो। मनसबदार की भी यही दशा हो रही थी, इसलिये उसका अपराध क्षमा कर दिया गया। गुरु जी ने उसे तीन दिन तक अपना अतिथि बनाकर रखा। उसे सच्चा उपदेश देकर उसके दिल में भरे हुये दौलत के झूठे अभिमान को चूर चूर कर दिया और इसके बदले में मालिक के नाम की सच्ची दौलत से मालामाल कर दिया। सच्ची भक्ति का दान पाकर मनसबदार निहाल हो गया। उसने भी अपने सच्चे गुरु की प्रतिष्ठा में रावी के किनारे एक गाँव आबाद कराया, जिसका नाम करतारपुर है और यह गाँव गुरु के चरणों में भेंट कर दिया।

रविवार, 14 अगस्त 2016

खुदा कबूल करता है दुआ जो सच्चे दिल से होती है

एक बार एक भक्त  ने स्वामी रामानन्द जी से पूछा, मनुष्य ईश्वर  की प्राप्ति  कैसे कर सकता है । उन्होंने उत्तर दिया, " ईश्वर  की कृपा द्वारा" अब ईश्वर की कृपा कैसे प्राप्त  की जा सकती है? जिज्ञासु ने पूछा - उन्होंने  कहा  - " ईश्वर  कृपा के लिए शुद्ध हर्दय से प्रार्थना करनी होती है।

  खुदा कबूल करता है दुआ जो सच्चे दिल से होती है
मुश्किल ये  है की ये बड़ी मुश्किल से होती है

प्रभु  सच्चे दिल से की हुई  प्रार्थना  को स्वीकार  करते है  लेकिन मुश्किल ये है की ऐसी प्रार्थना सबकी होती ही नही । वास्तव  में गुरु कृपा हर समय हमारे अध्त्यात्मिक प्रयत्नों में  हमारे साथ रहती  है।  इस संसार  में सतगुरु मनुष्य  के रूप में अवतार लेते है । हमे मुक्त करने और मोक्ष का मार्ग  दिखलाने  के लिए। जब मनुष्य ये भावना  प्रकट करता है कि , " हे सतगुरु मै स्वयं कुछ करने में असमर्थ हूँ। मै केवल आपकी कृपा चाहता हूँ। मै कुछ भी नही हूँ। आप ही समर्थ है जो भी मेरा है, सब आपका है। आप सर्वशक्तिमान  है। आपकी आपार कृपा के बदले मेरे पास देने के लिए कुछ भी नही है।" जब भक्त का मन इसी प्रकार की भावनाओं  से भरपूर हो जाता है और अहंभाव  लेशमात्र नही रहता तब उसे लगता है की सतगुरु की कृपा उसके अन्दर प्रवेश कर रही है जो सच्चे दिल से उसकी मांग करता है। जो भी द्वारा खटखटाने  की कोशिश करता है तो उसके लिए खुल  ही जाते है । यदि द्वारा नही खुलता  तो शायद हमारी  भक्ति में , प्रार्थना में , इच्छा में कुछ कमी जरुर होती है । जो भी मनुष्य अपने आपको सतगुरु के हवाले कर देता है तो सतगुरु उसे नाम के जहाज पर वहाँ  ले जाते है जहाँ से वह फिर आवागमन के चक्र में नही गिरता।

बुधवार, 10 अगस्त 2016

विद्वत्ता नहीं हृदय का प्रेम आवश्यक है


एक बार महाप्रभु चैतन्य भ्रमण करते हुए जब एक नगर में पहुचे, तो वहाँ के कुछ विद्वानों ने एक ब्राह्मण की शिकायत करते हुए कहा – “वह अपने घर के बाहर बैठकर नित्यप्रति गीता का पाठ बड़े ही ऊँचे स्वर में करता है। किन्तु वह चूँकि संस्कृत पढ़ा हुआ नहीं है इसलिए उसका पाठ बहुत ही अशुद्ध होता है। हम सबने उसे कई बार समझाया और ऊँचे स्वर में गीता का पाठ करने से मना किया, परन्तु वह किसी की सुनता ही नहीं। आप उसे समझाइये। हो सकता है कि आपके कहने से वह रुक जाए।” महाप्रभु चैतन्य ने उनकी बात मान ली और दूसरे दिन उन विद्वानों को साथ लेकर उसके घर पहुचे। घर क्या था? एक छोटा-सा कच्चा मकान था, जिसके बाहर एक चबूतरा था। चबूतरे के बीचो बीच एक पीपल का वृक्ष था। ब्राह्मण उस वृक्ष के नीचे बैठकर ऊँचे स्वर में गीता का पाठ कर रहा था। उसके नेत्रो से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। महाप्रभु उसकी ऐसी अवस्था देखकर चकित रह गये और प्रेम विभोर होकर मौन खड़े, उसे पाठ करते देखते रहे। जब वह ब्राह्मण पाठ कर चुका, तो स्वाभाविक ही उसकी दृष्टि चैतन्य महाप्रभु तथा अन्य लोगो पर पड़ी। वह तुरंत अंदर से चटाई निकाल लाया, सबको आदर- सम्मान के साथ बिठाया, फिर हाथ जोड़ कर बोला- मेरे अहोभाग्य है जो आप सबने मुझ जैसे गरीब की कुटिया पर कृपा की। कहिये, क्या आज्ञा है? महाप्रभु चैतन्य ने बड़ी ही मधुर वाणी में कहा – “इन विद्वान ब्राह्मणों का कहना है कि आप गीता का बहुत ही अशुद्ध पाठ करते है क्योंकि आपको संस्कृत भाषा का सही ज्ञान नहीं है। अभी हमने स्वंय भी आपको गीता का पाठ करते देखा। शब्दों का उच्चारण आपका वास्तव में ही बहुत अशुद्ध है। आप क्या सोचकर गीता का पाठ करते है और पाठ करते समय आप क्या भाव रखते है?” ब्राह्मण ने उत्तर दिया- “भाषा- वाषा की बात मैं जानता नहीं, क्योंकि मैं कुछ विशेष पढ़ा लिखा नहीं हूँ। मुझे तो बस इतना पता है कि गीता में भगवान श्री कृष्ण तथा उनके प्रिय भक्त का संवाद है। गीता पढ़ते समय मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मेरे सामने रथ में साक्षात् भगवान श्री कृष्ण तथा भक्त अर्जुन बैठे है और भगवान अर्जुन के प्रति वचन फरमा रहे है। उनके साक्षात् दर्शन कर मेरा हृदय प्रेम – विभोर हो जाता है और मैं संसार को पूर्णतया भूल जाता हूँ।” यह सुनते ही महाप्रभु चैतन्य एकदम उठे और उसे सीने से लगाते हुए कहा- “कौन कहता है कि तुम अशुद्ध पाठ करते हो? तुम्हारे जैसा गीता का पाठ करने वाला हमने आज तक नहीं देखा। सच पूछो तो गीता का वास्तविक पाठ तुम्ही ने समझा है। माखन तुम खाते हो और छाछ ये ब्राह्मण पाते है, जो अपने को विद्वान समझते है। विद्वान वास्तव में ये सब नहीं तुम हो, क्योंकि जिनके हृदय में प्रभु प्रेम का निवास है। वही सच्चा विद्वान अथवा पंडित है। उदाहरण के तौर पर शबरी, गोपियाँ ये सब ज्यादा पढ़ी लिखी विद्वान नहीं थी लेकिन इनके मन में भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति थी।”

सोमवार, 8 अगस्त 2016

सरल-प्रेम


यहूदी धर्म के प्रवर्तक हजरत मूसा एक बार एक पर्वतीय प्रदेश से होकर गुजर रहे थे। थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें खुदा की इबादत करता एक व्यक्ति मिला, जो अपने दोनों हाथों को उठाकर, आँखे बंद किये हुए, कुछ इस तरह प्रार्थना कर रहा था - "ऐ मेरे प्यारे खुदा! मै तुझसे बहुत प्यार करता हूँ। मेरी यह दिली तमन्ना है कि जब तू इस धरती पर आये तो मै तेरे लम्बे हो चुके बालों को काट कर, करीने से अपने हाथों से सवांरू। वहाँ जन्नत में रहते-रहते तुझे बहुत दिन हो गये, तेरी सफ़ेद दाढ़ी भी बढ़कर बहुत घनी हो गयी होगी। जब तू यहाँ आयेगा, तो मै खुद अपने हाथों से तेरी दाढ़ी बनाऊंगा। तेरे बालों में इत्रवाला तेल लगाऊंगा। तुझे पीने को बकरी का मीठा दूध दूँगा और लजीज मक्खन की रोटियाँ खिलाऊंगा। इन सब बातों को कहते-कहते, उस व्यक्ति का, जो पेशे से एक नाई था, गला रूँध गया और उसकी आँखे नम हो गई। हजरत मूसा ने जब उसकी इस अटपटी और विचित्र प्रार्थना को सुना, तो पहले तो उन्हें बहुत हँसी आयी, फिर गुस्से से लाल-पीले होकर उस व्यक्ति के पास आये और फटकारते हुए उससे कहने लगे, "अरे मूर्ख! क्या खुदा की इबादत ऐसे ही की जाती है? जिसने सूरज-चाँद बनाये हैं, जो सितारों को रौशनी देता है, क्या उसके पास किसी चीज़ की कमी है जो वह तेरे पास बाल कटाने और दाढ़ी बनवाने आयेगा? जो सबके रोटी-पानी का इंतजाम करता है, उसे तू बकरी का दूध पिलायेगा? अरे क्या जन्नत में जायकेदार पकवानों की कमी है, जो तू उसे यहाँ रोटी खाने को बुला रहा है? वह वृद्ध नाई बेचारा बिलकुल पवित्र और निश्चल ह्रदय का स्वामी था। उसे खुदा के ऐश्वर्य के बारे में कहाँ कुछ पता था? वह तो उसे भी अपने जैसा ही मानता था। जब हजरत मूसा ने उससे यह बातें कहीं, तो वह बेचारा डर गया कि कहीं उसने खुदा की शान में कोई गुस्ताखी तो नहीं कर दी है? वह हजरत मूसा से माफ़ी मांगने लगा और उनसे प्रार्थना की कि वही उसे कोई अच्छी सी प्रार्थना सिखा दें। मूसा ने उसे एक विस्तृत, शानदार, परन्तु जटिल प्रार्थना सिखाई, जिसका वे उस समय प्रचार कर रहे थे।
नाई को प्रार्थना सिखाकर वे अपनी मंजिल पर आगे बढ़ गये, बिना इस बात पर विचार किये कि वह अनपढ़ नाई कैसे उस कठिन प्रार्थना को याद रख सकेगा। उसी दिन रात्रि के समय जब मूसा गहरी निद्रा में सोये हुए थे, स्वयं खुदाबन्द करीम एक फ़रिश्ते के रूप में उनके स्वप्न में प्रकट हुए और कहने लगे, "क्यों रे मूसा! मैंने तुझे किस कार्य के लिये धरती पर भेजा था? क्या तुम्हारे लिये यह उचित था कि उस निर्दोष व्यक्ति की श्रद्धा और विश्वास पर कुठाराघात करो, जो विशुद्ध ह्रदय से केवल मुझे ही चाहता था? क्या तुम नहीं जानते कि इस सृष्टि में जो कुछ भी है वह मै ही हूँ?
क्या मेरे स्वरुप को व्यक्तित्व की किसी सीमा में आबद्ध किया जा सकता है, जो तुमने उसकी मान्यता का खंडन किया? क्या मै उसकी इच्छा के अनुरूप रूप धारण कर वहाँ नहीं जा सकता था, जो तुमने उसके भावभरे ह्रदय को पलभर में तोड़कर रख दिया? स्वप्न में फ़रिश्ते की यथार्थ और बोधपूर्ण बात सुनकर मूसा के प्रज्ञाचक्षु खुल गये। उस वृद्ध नाई के प्रति किये गये अपने दुर्व्यवहार पर मूसा को बड़ी शर्म आयी। प्रातः होते ही वे उस नाई के पास पहुँचे और उनसे यह कहकर क्षमायाचना की कि जो प्रार्थना आप कल कर रहे थे, उसे ही करते रहिये। अल्लाह आपसे बड़े खुश हैं। इस घटना के बाद उन्होंने फिर कभी किसी श्रद्धालु व्यक्ति की भावनाओं को चोट पहुँचाने का प्रयास नहीं किया। हजरत मूसा को तो समय रहते इसका तत्वबोध हो गया कि ईश्वर मनुष्य की भ्रामक धारणाओं से कितना परे है? पर हममे से अधिकांश लोग आज भी ईश्वर को अपने-अपने मत की संकीर्ण परिधि में ही देखते हैं। हम उसकी व्यापकता, उसके स्वरुप और व्यक्तित्व को अपने-अपने संकुचित मानसिक द्रष्टिकोण की सीमाओं से जोड़ कर ही देखते हैं। यही सभी धर्मो और सम्प्रदायों के बीच फैली कटुता और विरोधाभास का मूल कारण है। यदि हम अपने विवेक रुपी पंछी को ज्ञान के महासागर में उन्मुक्त विचरण करने देने को तैयार हो जाय, तो उस अनंत परमेश्वर की दिव्य ज्योति हम सभी में प्रसारित हो जाय और दुखों और अज्ञान की अँधेरी छटा को सदा के लिये दूर कर दे। “हमारे धुल और गन्दगी से सने हाथ-पैर तो पानी से धोने पर साफ हो जाते हैं, लेकिन मन की मलिनता प्रेम भाव से ही स्वच्छ हो सकती है। केवल कह देने से आदमी न तो पुण्यात्मा बनता है और न पापी सिर्फ। सत्कर्म और प्रभु का सुमिरन ही उसे पवित्र और निष्पाप बनाता है।”

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

दान


बात उन दिनों की है जब महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर राज्य करते थे। राजा होने के नाते वे काफी दान आदि भी करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर के रूप में फैलने लगी और पांडवों को इसका अभिमान होने लगा।

कहते हैं कि भगवान दर्पहारी हैं। अपने भक्तों का अभिमान तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। एक बार कृष्ण इंद्रप्रस्थ पहुंचे। भीम व अर्जुन ने युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की कि वे कितने बड़े दानी हैं। तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर और नहीं सुना। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, कैसे? कृष्ण ने कहा कि समय आने पर बतलाऊंगा।

बात आई गई हो गई। कुछ ही दिनों में सावन प्रारंभ हो गया व वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्राह्मण हूं और मेरा व्रत है कि बिना हवन किए कुछ भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, मुझ पर कृपा करें, अन्यथा हवन तो पूरा नहीं ही होगा, मैं भी भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।

युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार के कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया। संयोग से कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़- धूप के बाद भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ।

ब्राह्मण की आखों में चमक आ गई। भगवान ने अर्जुन व भीम को भी इशारा किया, वेष बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी वही उत्तर प्राप्त हुआ।

ब्राह्मण निराश हो गया। अर्जुन-भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान को ताकने लगे। लेकिन वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, हे देवता! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास। उसने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा, आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए। कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए ब्राह्मण के साथ अपना सेवक भी भेज दिया।

ब्राह्मण लकड़ी लेकर कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए। वापस आकर भगवान ने कहा, साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है। अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।

इस कहानी का तात्पर्य यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए कि हम उस स्थिति तक पहुंच जाएं जहां पर स्वाभाविक रूप से जीव भगवान की सेवा करता है। हमें भगवान को देखने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने को ऐसे कार्यों में संलग्न करना चाहिए कि भगवान स्वयं हमें देखें। केवल एक गुण या एक कार्य में अगर हम पूरी निष्ठा से अपने को लगा दें, तो कोई कारण नहीं कि भगवान हम पर प्रसन्न न हों। कर्ण ने कोई विशेष कार्य नहीं किया, किंतु उसने अपना यह नियम भंग नहीं होने दिया कि उसके द्वार से कोई निराश नहीं लौटेगा।

सोमवार, 1 अगस्त 2016

महर्षि वशिष्ठ-विश्वामित्र विवाद


          सतसंगत आधी घड़ी, तप के बरस हज़ार।
          तो भी नहीं बराबरी, कह्रो सुकदेव विचार।।
     गर्भ योगीश्वर महामुनी शुकदेव जी भलीभाँति विचार कर जीवों के कल्याण के लिये कथन करते हैं कि यदि एक पलड़े में आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य और दूसरी ओर सहरुा वर्षों के तप का पुण्य रखा जाये, तो भी सतसंग का पलड़ा ही भारी रहेगा। अर्थात् सहरुा वर्ष का तप भी आधी घड़ी के सत्संग की तुलना नहीं कर सकता। सत्संग की इतनी बड़ी महिमा है।
      एक बार महर्षि वसिष्ठ जी भ्रमण करते हुए महर्षि विश्वामित्र जी के आश्रम पर पधारे। महर्षि विश्वामित्र जी ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल उन्हें अर्पित किया। कुछ दिनों के उपरांत महर्षि विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के आश्रम पर गये। महर्षि वसिष्ठ जी ने भी उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में उन्हें आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य अर्पित किया। महर्षि विश्वामित्र जी को तो अपने तप का बड़ा अहंकार था। तप की तुलना में सत्संग को तो वे कोई महत्व ही नहीं देते थे, अतः वसिष्ठ जी के व्यवहार से उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने मन ही मन विचार किया कि मैने तो इऩ्हें एक सहरुा वर्ष के तप का पुण्य अर्पित किया था और यह मुझे सतसंग का पुण्य दे रहे हैं, वह भी आधी घड़ी के सत्संग का। क्या इनका ऐसा करना उचित हैं?
     यद्यपि मुख से उन्होने इस विषय में कुछ न कहा, परन्तु मनुष्य का चेहरा तो ह्मदय का दर्पण होता है। मनुष्य लाख अपने भावों को छिपाने का प्रयत्न करे, उसका चेहरा सब कुछ प्रकट कर देता है। महर्षि विश्वामित्र जी के ह्मदय के भाव भी छिपे न रह सके, उनके चेहरे पर रोष के चिन्ह झलक उठे। महर्षि वसिष्ठ जी को समझते देर न लगी कि विश्वामित्र जी के चेहरे पर ऐसे भाव क्यों उभरें हैं? अतएव उन्हें शान्त करने के लिए महर्षि वसिष्ठ जी ने सत्संग की महिमा बखान की और अनेकों प्रमाण देकर उसे तप से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। किन्तु महर्षि विश्वामित्र उनके विचारों से तनिक भी सहमत न हुए। उन्होंने कहा-तप की तुलना में सतसंग का कोई मूल्य नहीं। तप ही श्रेष्ठ है।
     इस प्रकार काफी समय तक दोनों महर्षि दलीलों द्वारा अपने अपने पक्ष को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे। जब काफी देर वाद-विवाद हो चुका और दोनों किसी परिणाम पर न पहुँचे तब महर्षि वसिष्ठ जी ने कहा-मैने जो आधी घड़ी के सत्संग का फल आपको अर्पित किया है, मेरी दृष्टि में यद्यपि वह  सहरुा वर्ष के तप से बढ़कर है, परन्तु आप ऐसा नहीं समझते। वाद-विवाद से तो यह मसला हल होने से रहा, क्यों न किसी अन्य से इसका निर्णय करा लिया जाये? आपस में वाद-विवाद करने से क्या लाभ? महर्षि विश्वामित्र इस बात पर सहमत हो गये। ऋषियों मुनियों की सभा बुलाई गई, परन्तु ब्राहृर्षियों के विवाद का निर्णय ऋषि-मुनि करें, यह कहाँ सम्भव था? जब वहाँ निर्णय न हुआ तो दोनों ने ब्राहृा जी के पास जाने का निश्चय किया। दोनों ब्राहृलोक पहुँचे और पूरी बात बतला कर इस विषय में ब्राहृा जी से अपना निर्णय देने के लिये कहा। ब्राहृा जी ने मन में सोचा कि ये दोनों ही ब्राहृर्षि हैं। मैं जिसके पक्ष में निर्णय दूँगा वह तो प्रसन्न हो जायेगा, परन्तु जिसके विपरीत निर्णय होगा, उसके कोप का भाजन तो मुझे ही बनना पड़ेगा। इसलिये इनके विवाद में पड़ने की अपेक्षा उन्हें किसी अन्य के पास भेज देना ही उचित है। यह सोचकर उन्होने कहा-सृष्टि के कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण सतसंग तथा तप आदि विषयों की गहनता पर विचार करने का कभी मुझे अवसर ही नहीं मिला, इसलिये इस विषय में किसी प्रकार का निर्णय देने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। आप लोग शिवजी के पास जायें। वे तपीश्वर हैं, अतः वे ही इसका निर्णय भली प्रकार कर सकते हैं।
     दोनों महर्षि कैलाश पर्वत पर शिवजी के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बताई। शिवजी ने भी उनके झगड़े में पड़ने की अपेक्षा उन्हें टालना ही उचित समझा, अतः उन्होने कहा- जब से मैने हलाहल का पान किया है, तब से मेरा चित्त स्थिर नहीं है। जब तक चित्त स्थिर न हो, तब तक किसी विषय पर निर्णय देना कठिन ही नहीं असम्भव है। इसलिये आप लोग भगवान विष्णु से अपने विवाद का निर्णय करायें, वही इसका सही निर्णय कर सकते हैं। महर्षि वसिष्ठ तथा महर्षि विश्वामित्र वहां से चल कर विष्णु लोग पहुँचे और अपना विवाद उनके समक्ष प्रस्तुत कर निर्णय देने के लिये कहा। भगवान विष्णु नेत्र मूँदकर कुछ देर न जाने क्या सोचते रहे, फिर प्रकट में बोले-सतसंग और तप का महात्मय वही जान सकता है और इन दोनों में कौनसा साधन श्रेष्ठ है, इस बात का निर्णय भी वही कर सकता है, जो स्वयं इन साधनों में लगा हुआ हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं है, फिर भला इनका निर्णय मैं कैसे कर सकता हूँ। मेरे विचार में इनका निर्णय करने में शेष जी ही समर्थ हैं। वे मस्तक पर पृथ्वी उठाये निरन्तर तप करते रहते हैं, और अपने सहरुा मुखों से सत्संग करते रहते हैं। इसलिये आप दोनों उन्हीं के पास जायें तो ठीक रहेगा। दोनों महर्षि शेष जी के पास पाताल जा पहुँचे। उनका विवाद सुनकर शेष जी बोले-आप दोनों महानुभाव देख ही रहे हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी का बोझ मेरे मस्तक पर है। इस बोझ के होते हुये किसी विषय पर विचार करना और फिर उसपर अपना सही निर्णय देना मेरे लिये असम्भव है। आपमें से कोई अपने प्रभाव से इस पृथ्वी को कुछ क्षण के लिये अधर में रोक ले जिससे कि मैं स्वस्थ चित्त होकर इस समस्या पर कुछ विचार कर सकूं।
     महर्षि विश्वामित्र को अपने तप का अभिमान तो था ही और उन्हें विश्वास भी था कि इस विवाद में विजय उन्हीं की होगी, अतः उन्होने तुरन्त अंजलि में जल लेकर संकल्प करते हुये कहा-मैं अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल अर्पित करता हूँ, पृथ्वी कुछ समय के लिये आकाश में स्थिर रहे। किन्तु पृथ्वी अपने स्थान से टस से मस न हुई। तब शेष जी ने महर्षि वशिष्ठ जी की ओर देखकर कहा-आप ही इस पृथ्वी को अधर में स्थिर करें ताकि मैं स्वस्थ चित्त होकर आपकी समस्या पर विचार कर सकूँ। ब्राहृर्षि जी अंजलि में जल लेकर संकल्प  करते हुये बोले-मैं आधी घड़ी के अपने सत्संग का पुण्य अर्पित कर निवेदन करता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षण अधर में टिकी रहें। उनके ऐसा कहते ही पृथ्वी शेष जी के फणों से ऊपर उठकर निराधार स्थित हो गई। आधी घड़ी का सत्संग श्रेष्ठ है अथवा सहरुावर्ष का तप-इसका निर्णय अपने आप ही हो गया, शेषजी को कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। सत्संग का स्पष्ट प्रताप देखकर विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के चरणों में नतमस्तक हो गये। उन्होंने सत्संग की महानता स्वीकार कर ली।
     ऐसा महान प्रताप है सतसंग का। यही कारण है कि सभी सद्ग्रन्थों एवं सन्तों सत्पुरुषों ने सतसंग की मुक्त कंठ से महिमा गायन की है और इसकी प्राप्ति को सौभाग्य का चिन्ह बतलाया है। श्री रामायण में वर्णन है कि
:-बड़े भाग पाइय सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा।। अर्थात् बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है जिससे बिना किसी परिश्रम एवं प्रयास के ही जन्म-मरण का चक्र नष्ट हो जाता है।
सत्संगत में ज्ञान मिलत है, मिटत सकल दुःख द्वन्द्व। ज्ञान प्रताप चौरासी छूटै, टूटें जम के फंद।।
फरमाते हैं कि सत्संगति में ही ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान के प्रताप से दुःख,कष्ट, क्लेश आदि नष्ट हो जाते हैं और यमराज के बंधन टूट जाते हैं, जिससे चौरासी के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। जीव भव सागर से पार हो जाता है। गुरुमुख जन बड़े सौभाग्य शाली हैं जिन्हें समय के सन्त सत्पुरुषों की शुभ संगति उनका सत्संग प्राप्त है इसलिये गुरुमुखों का कर्तव्य है कि सन्तों महापुरुषों के हितकारी उपदेश को ह्मदयंगम कर नित्यप्रति सत्संग करें और सत्संग से पूरा पूरा लाभ उठाते हुए अपने जीवन का कल्याण करें।

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

साक्षी है ध्यान की आत्मा


यहूदी धर्म में विद्रोही साधकों की एक रहस्य-धारा है हसीद। इसके स्थापक बाल शेम एक दुर्लभ व्यक्ति थे। मध्य रात्रि को वे नदी से वापस लौटते। यह उनकी रोज़ की चर्या थी वे बस बैठते थे वहां-कुछ न करते। बस "स्व' को देखते हुए, द्रष्टा को देखते हुए। एक रात जब वे नदी से वापस आ रहे थे, तब वे एक धनी व्यक्ति के बंगले से गुज़रे और पहरेदार प्रवेशद्वार पर खड़ा था। पहरेदार उलझन में पड़ा हुआ था कि हर रात, ठीक इसी समय यह व्यक्ति वापस आ जाता था। पहरेदार आगे आया और बोला,"मुझे क्षमा करें आपको रोकने के लिए, लेकिन मैं अपनी उत्सुकता को और ज्यादा रोक नहीं सकता। तुम मुझ पर दिन-रात छाये हुए हो दिन-प्रतिदिन। तुम्हारा काम-धंधा क्या है? तुम नदी पर क्यों जाते हो? अनेक बार मैं तुम्हारे पीछे गया हूं, लेकिन वहां कुछ भी नहीं होता-तुम बस बैठे रहते हो घंटों, फिर आधी रात को तुम वापस आते हो।' बालशेम ने ंकहा, "मुझे पता है कि तुम कई बार मेरे पीछे आये हो, क्योंकि रात का सन्नाटा इतना है कि मैं तुम्हारे पदचाप की ध्वनि सुन सकता हूं, और मैं जानता हूँ कि हर रात तुम बंगले के द्वार के पीछ छिपे रहते हो, लेकिन केवल ऐसा ही नहीं है कि तुम मेरे बारे में उत्सुक हो, मैं भी तुम्हारे बारे में उत्सुक हूं,ं तुम्हारा काम क्या है?' पहरेदार बोला, "मेरा काम? मैं एक साधारण पहरेदार हूँ।' बालशेम ने कहा," हे परमात्मा, तुमने तो मुझे कुंजी जैसा शब्द दे दिया। मेरा धंधा भी तो यही है।' पहरेदार बोला, "लेकिन मैं नहीं समझा! यदि तुम पहरेदार हो तो तुम्हें किसी बंगले या महल की देख-रेख करनी चाहिए। तुम वहां क्या देखते हो नदी की रेत पर बैठे-बैठे?' बालशेम ने कहा, "हमारे बीच थोड़ा फर्क है। तुम देख रहे हो कि बाहर का कोई व्यक्ति महल के भीतर न घुस पाये, मैं बस इस देखने वाले को देखता रहता हूं, कौन है यह द्रष्टा?-यह मेरे पूरे जीवन की साधना है कि मैं स्वयं को देखता हूँ।'
     पहरेदार बोला, "लेकिन यह एक अजीब काम है। कौन तुम्हें वेतन देगा?' बालशेम ने कहा, "यह इतना आनंदपूर्ण आल्हादकारी परम धन्यता है कि यह स्वयं अपना पुरस्कार है। इसका एक क्षण-और सारे खज़ाने इसके सामने फीके हैं।' पहरेदार बोला, "यह अजीब बात है, मैं अपने पूरे जीवन निरीक्षण करता रहा हूं लेकिन मैं ऐसे किसी सुंदर अनुभव से परिचित नहीं हुआ हूँ। कल रात मैं आपके साथ आ रहा हूँ, मुझे इसमें दीक्षित करें। मुझे पता है कि कैसे निरीक्षण करना है आयाम की ज़रुरत है। आप शायद किसी दूसरे ही आयाम के द्रष्टा हैं।'
     केवल एक ही चरण है और वह चरण है एक नया आयाम, एक नई दिशा या तो हम बाहर देखने में रत हो सकते हैं और अपनी समग्र चेतना को भीतर केंद्रित कर सकते है, फिर तुम जान सकोगे, क्योंकि तुम "जानने वाले' हो, तुम चैतन्य हो, तुमने इसे कभी खोया नहीं है, तुमने अपनी चेतना को हज़ार बातों में उलझा भर रखा है, अपनी चेतना को सब तरफ से वापस लौटा लो और उसे स्वयं के भीतर विश्रामपूर्ण होने दो और तुम घर वापस आ गये हो।'

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

गुरु-शिष्य के झोंपड़े को आँधी ने उड़ा दिया


     दो फकीर थे। दोनों वर्षाकाल के लिए अपने झोंपड़े पर वापिस लौट रहे थे। आठ महीने घूमते थे,भटकते थे गाँव-गाँव,उस परमात्मा का गीत गाते थे। वर्षाकाल में अपने झोंपड़े पर लौट आते थे।गुरु बूढ़ा था। जवान शिष्य था। जैसे ही वे करीब पहुँचे झील के किनारे अपने झोंपड़े के,देखा कि छप्पर ज़मीन पर पड़ा है।ज़ोर की आँधीआयी थी रात,आधा छप्पर उड़ गया है।छोटा सा झोंपड़ा।उसका भी आधा छप्पर उड़ गया है। वर्षा सिर पर है। अब कुछ करना भी मुश्किल होगा। दूर जंगल में निवास है। युवा सन्यासी शिष्य ने कहा,देखो,हम प्रार्थना कर करके मरेजाते हैं,और उसकी तरफ से यह फल।इसलिए तो मैं कहता हूँ कि कुछ सार नहीं है। प्रार्थना,पूजा मिलता क्या है?दुष्टों के महल साबित है, हम गरीब फकीरों की झोंपड़ी गिरा गई आँधी। यह आँधी उसी की है। जब वह क्रोध से बातें कह रहा था, तभी उसने देखा कि उसका गुरु घुटने टेक कर,बड़े आनन्दभाव सेआकाश की तरफ हाथ जोड़े बैठा है। उसकी आँखों से परम संतोष के आँसू बह रहे हैं। और वह गुनगुना कर कह रहा है,कि परमात्मा तेरी कृपा।आँधी का क्या भरोसा। पूरा ही छप्पर ले जाती। ज़रूर तूने बीच में रोका होगा, ज़रूर तूने बाधा डाली होगी।और आधा बचाया। आधा छप्पर अभी भी ऊपर है।
    फिर वे दोनों गये।एक ही झोंपड़े में वे प्रवेश कर रहे हैं लेकिन दो भिन्न तरह के लोग है। एक असंतुष्ट था,एक सन्तुष्ट। स्थिति एक है, लेकिन दोनों के भाव अलग हैं। इसलिए दोनों अलग झोंपड़ों में जा रहे हैं। ऊपर से तो दिखायी पड़ता है, कि एक ही झोंपड़े में जा रहे हैं। रात दोनों सोये। जो असंतुष्ट था,वह तो सो ही न सका। उसने नेक करवटें बदली और बार बार कहा कि क्या भरोसा कब वर्षा आ जाए।अभी वर्षा आयी नहीं। लेकिन वह चिंतित और परेशान है उसने कहा, नींद नहीं आती। नींदआ कैसे सकती है?यह कोई रहने की जगह है? लेकिन गुरु रात बड़ी गहरी नींद सोया। जब चार बजे उठा तो उसने एक गीत लिखा। क्योंकि आधे झोंपड़े में से चाँद दिखायी पड़ रहा था। और उसने लिखा कि परमात्मा अगर हमें पहले  से पता होता, तो हम तेरी आँधी को भी इतना कष्ट न देते कि आधा छप्पर अलग कर देते। हम खुद ही अलग कर देते। अब तक हम नासमझी में रहे। सो भी सकते हैं, चाँद भी देख सकते हैं। आधा छप्पर दूर जो हो गया। तेरा आकाश इतने निकट और हम उसे छप्पर से रोके रहे। तेरा चाँद इतने निकट कितनी बार आया और गया, और हम उसे छप्पर में रोके रहे। हमें पता ही न था तू माफ करना।

रविवार, 24 जुलाई 2016

सुखी होने की तरकीब


दूसरों का सुख दिखायी पड़ता है, अपना दुःख दिखायी पड़ता है।अपना सुख दिखायी नहीं पड़ता दूसरे का दुःख दिखायी नहीं पड़ता।सब दुःखी हैं अपने दुःख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण। और जब तक आपकी यह वृत्ति है तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुःख अगर आपको दिखायी पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरु हो गये। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखायी पड़ेगा।
     एक फकीर था जून्नून।कोई भी आदमी उसके पास मिलनेआता,तो वह हँसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है ?वह कहता एक तरकीब मैने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूँ,जिससे मैं सुखी हो जाऊँ। एक आदमी आया, उसके पास एक आँख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है?उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया,मेरे पास दोआंखें हैं,हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद।एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गज़ब अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिये हैं। एक मुर्दे की लाश को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा,हम अभी जिन्दा हैं,और पात्रता कोई भी नहीं है।और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गये होते इस आदमी की जगह तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।
     जुन्नून दुःखी नहीं था,कभी दुःखी नहीं हो सका क्योंकि उसने दूसरे का दुःख देखना शुरु कर दिया।और जब कोई दूसरे का दुःख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि मेंअपना सुख दिखायी पड़ता है।और जबकोई दूसरा का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुःख दिखायी पड़ता है।
प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करने का एक अन्य उपाय यह है कि मनुष्य को परमात्मा ने जो कुछ दे रखा है,सदा उसमें ही सन्तुष्ट रहे। परमात्मा का आभारी रहकर मन में यह विचार करता रहे कि अनेकों ऐसे मनुष्य भी संसार में होंगे, जिन्हे ये वस्तुयें भी उपलब्ध नहीं हैं।