शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

09.01.2016 भगवान बुद्ध


     एक दिन भगवान बुद्ध पांच सौ भिक्षुओं के साथ आलवी नगर आए। आलवी नगरवासियों ने भगवान को भोजन के लिए निंमत्रित किया। उस दिन आलवी नगर का एक निर्धन उपासक भी भगवान के आगमन को सुनकर धर्म-श्रवण के लिए मन किया। किंतु प्रातः ही उस गरीब के दो बैलों में से एक कहीं चला गया। सो उसे बैल को खोजने जाना पड़ा। बिना कुछ खाए-पीए ही दोपहर तक वह बैल को खोजता रहा। बैल के मिलते ही वह भूखा-प्यासा ही बुद्ध के दर्शन को पहुंच गया। उनके चरणों में झुककर धर्म-श्रवण के लिए आतुर हो पास ही बैठ गया। लेकिन बुद्ध ने पहले भोजन बुलाया। उसके बहुत मना करने पर भी पहले उन्होने जिद्द की और उसे भोजन कराया। फिर उपदेश की दो बातें कहीं। वह उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही रुाोतापत्ति-फल को उपलब्ध हो गया। भगवान के द्वारा किसी को भोजन कराने की यह घटना बिलकुल नई थी। ऐसा पहले कभी उन्होने किया न था और न फिर पीछे कभी किया। तो बिजली की भांति भिक्षु-संघ में चर्चा का विषय बन गई। अंततः भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की। तो उन्होने कहा, भूखे पेट धर्म नही। भूखे पेट धर्म नहीं समझा जा सकता। भिक्षुओ, भूख के समान और कोई रोग नहीं है। और तब उन्होने यह गाथा कही-
""भूख सबसे बड़ा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुःख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है, वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।''
     भूख को सबसे बड़ा रोग कहा बुद्ध ने। क्यों? क्योंकि जब भूख प्रगाढ़ हो, पेट भरा न हो, तो सारी चेतना पेट के इर्द गिर्द ही घूमती है। जब शरीर भूखा हो तो चेतना-ऊंचाइयों पर उड़ ही नहीं सकती। शरीर के आसपास ही मंडराती है। एक सत्य तुमने देखा होगा, पैर में कांटा चुभ जाए तो फिर चेतना वहीं-वहीं घूमती है न! सिर में दर्द हो तो चेतना वहीं-वहीं घूमती है न! जहां पीड़ा हो, चेतना वहीं रुक जाती है।
     इसलिये हमारे पास जो शब्द है-वेदना, वह बहुत अद्भुत है। वेदना के दो अर्थ होते हैं, बोध और दुःख। वेदना बना है विद से, जिससे वेद बना है। इसलिए उसका एक अर्थ होता है, बोध, ज्ञान। और वेदना का दूसरा अर्थ होता है, दुःख, पीड़ा। एक ही शब्द के ये दो अर्थ और बड़े अजीब से। जिनका कोई तालमेल नहीं। लेकिन तालमेल है। जब दुःख होता है, तो वहीं सारा बोध संगृहीत हो जाता है। जहां दुःख है, वहीं बोध संगृहीत हो जाता है। फिर दुःख से हटना मुश्किल हो जाता है। अब जो आदमी भूखा है, उसके लिए शरीर ही शरीर दिखाई पड़ता है। कहां आत्मा की बातें। हम कहते हैं न! भूखे भजन न होहिं गोपाला। अब एक आदमी भूखा है, अगर भगवान की प्रार्थना भी करे, तो कुछ होगा नहीं। सारी प्रार्थना पर भूख छा जाएगी।
     इसलिए गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कि कोई गरीब व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। गरीब व्यक्ति चेष्टा करके अपवाद हो सकता है। लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता है। ऐसा भी नहीं है कि समृद्ध समाज अनिवार्य रुप से धार्मिक हो जाएगा, लेकिन समृद्ध समाज की धार्मिक होने की संभावना है। ऐसा भी नहीं कि हर समृद्ध व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा। लेकिन समृद्ध व्यक्ति की धर्म की तरफ उत्सुकता बढ़ने की ज्यादा संभावना है बजाय गरीब व्यक्ति के। जहां समृद्धि है, जहां पेट पूरी तरह भर गया है, वहीं आत्मा का खालीपन दिखाई पड़ने लगता है।
      हमारे भीतर तीन तल हैं-शरीर की ज़रुरते हैं, फिर मन की ज़रुरतें हैं, फिर आत्मा की ज़रुरतें हैं। शरीर की ज़रुरतें हैं-रोटी, रोज़ी, कपड़ा , मकान। फिर मन की ज़रुरतें हैं, संगीत, साहित्य, कला। अब जिसका शरीर भूख से व्याकुल है, वह शेक्सपियर पढ़ेगा? कैसे पढ़ेगा? कालिदास को समझेगा? कैसे समझेगा? शास्त्रीय संगीत सुन पाएगा? इधर पेट में भूख कचोटती होगी, शास्त्रीय संगीत नहीं समझ पाएगा, न सुन पाएगा। मन की ज़रुरतें। जब मन की ज़रुरते भी भर जाती हैं, शास्त्रीय संगीत में भी अब कुछ नहीं दिखाई पड़ता, वह संगीत भी चुक गया, अब किसी और बड़े संगीत की खोज शुरु होती है, तब ध्यान। एक ऐसे संगीत की खोज शुरु होती है जहां वाद्य की भी ज़रुरत नहीं रह जाती। एक ऐसे संगीत की खोज शुरु होती है जो भीतर बज ही रहा है, जिसको बजाना नहीं  पड़ता-अनाहत नाद-जो अपने से बज रहा है। ओंकार-तब आत्मा की ज़रुरतें शुरु होती हैं।
     तो महात्मा बुद्ध ने ठीक कहा कि ""भूख सबसे बड़ा रोग है। संस्कार सबसे बड़े दुःख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।'' उन्होंने उस भूखेआदमी को भोजन कराया। लेकिन यह बात एक ही दफा घटी है, यह भी ख्याल रखने जैसी बात है। ऐसा बुद्ध ने बार-बार नहीं किया। क्योंकि यह भूखा आदमी सिर्फ भूखा आदमी ही नहीं था, इस भूखे आदमी के भीतर बड़ी मुमुक्षा थी। यह बड़ी प्रगाढ़ता से आकांक्षा कर रहा था। परमात्मा के खोज की, सत्य के खोज की-या जो भी नाम दो। यह सिर्फ भूखा होता तो बुद्ध को इसमें कोई विशेष उत्सुकता नहीं थी। उत्सुकता इसलिए थी कि इसके भीतर एक और बड़ी भूख थी जो इस छोटी भूख के कारण दबी पड़ी थी। इसके भीतर एक भड़ी भूख का अंकुर फूट रहा था, जो नहीं फूट पा रहा था, क्योंकि यह छोटी भूख इसे खाए जा रही थी।
     यह सुबह ही से बुद्ध का ही स्मरण करता घूम रहा था। खोज रहा था बैल को, स्मरण कर रहा था बुद्ध का। इतनी जल्दी थी इसे कि घर से बिना खाए-पीए निकल पड़ा था कि जल्दी-जल्दी बैल को खोजकर बुद्ध के पास पहुँच जाऊं। फिर इतनी आतुरता थी कि बैल मिल गया तो उसे किसी तरह बांध-बूंधकर खेत-खलिहान में, भागा! घर नहीं गया कि दो रोटी खा ले। भागा! कि पहले बुद्ध को सुन लूं। इसकी धर्म की प्यास निश्चित प्रगाढ़ रही होगी।
     तुम तो छोटे-छोटे कारणों से चूक जाते हो। कभी ध्यान नहीं करते, क्योंकि कहते हो कि आज ज़रा शरीर स्वस्थ नहीं है। कभी कहते हो, आज ध्यान कैसे करें, घर में मेहमान आए हैं। कभी कहते हो, आज ध्यान कैसे करें, आज ज़रा दफ्तर में थक गए। आज कैसे ध्यान करें, आज कैसे ध्यान करें, तुम बहाने खोजते रहते हो। इस आदमी ने बहाना नहीं खोजा। इसके पास बहाने काफी थे-बैल खो गया, अब कहां बुद्ध के पास जाएं। बैल खोजें कि बुद्ध को खोजें। बात छोड़ देता। तुम होते तो बात ही छोड़ दिए होते। फिर बैल भी मिल गया होता तो कहता, अब दोपहरी भर थका-मांदा हूं, घर थोड़ा भोजन करुं, विश्राम करुं, फिर देख लेंगे, ऐसी जल्दी क्या है। और बुद्ध कोई भागे थोड़े ही जाते हैं।
     इसकी बड़ा प्रगाढ़ आकांक्षा रही होगी कि भूखा ही आ गया। इसका कुम्हलाया हुआ चेहरा, इसका भूखा पेट, यह थका-मांदा जब बुद्ध के चरणों में झुका होगा तो उन्होने देखा होगा-इसका शरीर ही भूखा नहीं है, इसकी आत्मा भी भूखी है। यह सच में ही---तो उन्होने बड़ी जिद्द की कि तू पहले भोजन कर। उसे भोजन कराया। भिक्षुओं में चर्चा की बात उठ ही गई होगी कि यह कौन विशिष्ट आदमी आ गया, एक गंवार सा किसान है बुद्ध इसमें क्या देख रहे हैं।
     जो कभी-कभी तुम्हें नहीं दिखाई  पड़ता, वह बुद्धों को दिखाई पड़ता है। क्योंकि तुम्हें तो हीरे तभी दिखाई  पड़ते हैं, जब जौहरी उन्हें साफ-सुथरा करके, निखारकर, पालिश करके रख देते हैं, तब दिखाई पड़ते हैं। बुद्धों को तो हीरे तब दिखाई पड़ जाते हैं जब वे पत्थर की तरह पड़े हैं। जब उनमें कोई चमक नहीं है। यह एक अनगढ़ हीरा था। यह चमक सकता था। यह पत्थर नहीं था।
     बुद्ध ने उसे भोजन कराया पहले, फिर उसे दो शब्द कहे, ज्यादा नहीं, और कथा कहती है कि उन दो शब्दों को, उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही वह रुाोतापत्ति-फल को उपलब्ध हो गया। रुाोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, जो व्यक्ति बुद्ध की धारा में प्रविष्ट हो गया। जो बुद्ध की चेतना में प्रविष्ट हो गया। जो नदी में उतर गया। किनारे पर खड़ा था, उसने कहा, ठीक, अब मैं आता हूं, अब चलता हूं सागर की तरफ। रुाोतापत्ति। जो धारा में उतरा है वही तो सागर पहुँचेगा। वहां ऐसे लोग थे जो वर्षों से बुद्ध को सुन रहे थे और अभी रुाोतापत्ति-फल को उपलब्ध नहीं हुए थे। अभी किनारे ही पर खड़े सोच-विचारकर रहे थे, दुविधा में पड़े थे-करें कि न करें? जंचती भी है बात कुछ, नहीं भी जंचती है बात कुछ। इसने कुछ सोच-विचार न किया इसने तो बुद्ध के दो शब्द सुने और इसने कहा, बस काफी है। डूब गया। रुाोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, डूब गया, डुबकी ले ली। बुद्धमय हो गया।

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