सोमवार, 25 जनवरी 2016

गोपीचन्द को माता की शिक्षा


    राजा गोपीचन्द अपने पिता के देहावसान के उपरान्त राज्य सिंहासन पर बैठे। उनकी माता बड़ी विवेकवान,विचारशील और भक्ति के विचारों वाली थी।उसने गोपीचन्द को समझाया-बेटा!जिस राज्य सिंहासन केआज तुमअधिकारी हो,इसपर तुमसे पहले तुम्हारे पिता और उनसे पहले तुम्हारे दादा परदादा बैठ बैठ कर इस नश्वर संसार से चले गये। तुम्हें भी एक दिन इस राज्यसिंहासन को छोड़ कर जाना होगा,अतएव उचित यही है कि तुम सन्त सतपुरुषों की चरण-शरण ग्रहण कर मालिक के सच्चे नाम की कमाई करो, जो इस लोक में तो क्या उस लोक में भी जीव का साथ नहीं छोड़ता, जो शाश्वत और सदैव अंग-संग रहने वाला है।
     इस प्रकार उसने गोपीचन्द को भक्ति मे मार्ग पर लगाया।जब गोपी चन्द राज्य त्याग कर वन में जाने लगे,तो माता ने उन्हें पुनः शिक्षा देते हुए कहा-बेटा!किले के अन्दर रहना,स्वादिष्ट व्यंजन खाना और नरम-नरम गदेलों पर शयन करना। गोपीचन्द माता के ये शब्द सुनकर मन में अत्यन्त विस्मित हुये।उनकी समझ में माता की बातें न आर्इं, अतएव वे माता को सम्बोधित करते हुये बोले-माता जी! एक ओर तो आप मुझे राज्य त्याग कर भक्ति-पथ पर लगा रही हैं।और दूसरी ओर ऐसा उपदेश दे रही है। भला! वन में किला, स्वादिष्ट व्यंजन और नरम-नरम गदेले कहां? माता ने समझाते हुये कहा-बेटा!किला सतगुरु की आज्ञा है। यदि तू सदगुरु की आज्ञा के अन्दर रहेगा तो मन-माया और काम क्रोधादि शत्रुओं से सदैव बचा रहेगा।स्वादिष्ट व्यंजन खाने काअभिप्राय यह है कि जब भजन करते करते तुझे भूख खूब सताने लगे,तब भोजन करना।ऐसी स्थिति मेंसूखी रोटीअथवा वृक्षों के पत्ते भी तुझे ऐसे स्वादिष्ट प्रतीत होंगे जैसे स्वादिष्ट व्यंजन। नरम-नरम गदेलों पर सोने का तात्पर्य यह है कि जब तुम्हें नींद अत्यन्त व्याकुल करे, तब सोना। ऐसी दशा में पत्थर भी तुम्हें नरम गद्दों की तरह प्रतीत होंगे।
     अब मनुष्य को मन में विचार करना चाहिये कि आत्मकल्याण का कार्य कितना महत्व पूर्ण है?यदि यह कार्यअति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण न होता तो गोपी चन्द की माता पुत्र से राज्य का त्याग करवा कर उसे कभीअपने से विलग न करती। कौन माताअपने पुत्र को अपने से विलग करना चाहती है? किन्तु जिन सौभाग्यशाली जीवों को सन्त सत्पुरुषों की शुभ संगति प्राप्त हो जाती हैऔर उस शुभ संगति के प्रताप से जिन्हें इस बात की समझ आ जाती है कि आत्म कल्याण का कार्य केवल मनुष्य जन्म में ही सम्भव हैऔर यह जन्म जीवात्मा को मिला ही इसीलिये है,वे स्वयं तो इस कार्य को करते ही है,अन्यान्य प्राणियों को भी इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।जो जीव सन्त सतपुरुषों की ऐसी हितभरी वाणी को सुनकर जाग पड़ते हैं और आलस्य त्याग कर अपने कार्य में अर्थात आत्म कल्याण में जुट जाते हैं। वे अत्यन्त सौभाग्यशाली है,क्योंकि वे मनुष्य जन्म के उद्देश्य को पूरा करके इस लोक में भी सच्चे सुखआनन्द की प्राप्ति करते हैं और मालिक के धाम में भी उज्जवलमुख होते हैं। ऐसे सौभाग्य शाली जीव धन्यवाद के पात्र हैं।

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