मंगलवार, 26 जनवरी 2016

अनार रस कम निकला


मनुष्य के मन के विचारों तथा उसकी भावनाओं का प्रभाव केवल मनुष्य पर ही नहीं होता, प्रत्युत पशु, पक्षियों एवं पेड़ों को भी वे प्रभावित किये बिना नहीं रहतीं। कथा है कि एक राजा आखेट के लिये वन में गया और साथियों से बिछुड़कर मार्ग भूल गया तथा दो तीन दिन भूखा-प्यासा भटकता रहा। भूख-प्यास से मरणान्न हो रहा था कि उसे एक उद्यान दिखाई दिया। भूखे प्यासे भटकते रहने से यद्यपि शरीर निढाल हो रहा था, फिर भी गिरते-पड़ते अत्यन्त कठिनाई से उद्यान में पहुँचा। वहां अनार के हरे-भरे पेड़ों को देखकर जान में जान आई। माली को संकेत से निकट बुलाया और उससे फलों का रस मांगा। माली वस्तुतः एक महात्मा थे, जिन्होंने अपने आश्रम में वह उद्यान लगा रखा था। उन्होंने पके हुये अनार तोड़े, उनका रस निकाला और गिलास भरकर राजा को दिया। रस पीकर राजा की जान में जान आई। उसने कहा कि ऐसा ही रस का एक गिलास और भी भर कर ला दो।
     महात्मा जी अब की बार जब पके अनार तोड़ने के लिये गये, तो एक भी अनार पका हुआ दिखाई न दिया। विवश होकर वे अधपके अनारों को तोड़कर रस निकालने का प्रयत्न करने लगे। काफी देर बाद वे केवल आधा गिलास रस लेकर राजा के पास आये। राजा ने पूछा कि पहली बार जब आप रस लेने गये थे, तो मिनटों में ही गिलास भरकर ले आये थे, परन्तु अब की बार आप काफी देर बाद लौटे हैं, फिर भी रस का आधा गिलास ही लाये हैं। इसका क्या कारण है? महात्मा जी ने उत्तर दिया-क्षमा कीजियेगा, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पहली बार जब आपने रस मांगा था, उस समय आपके मन में शुभ भावना थी, जिसके प्रभाव से जब मैं पेड़ों के पास गया, तो मुझे तुरन्त पके अनार दिखाई पड़ गये। उनको तोड़कर और दाने निकालकर निचोड़ा, तो तत्काल ही गिलास रस से भर गया। किन्तु अब की बार कदाचित आपकी भावना में कुछ अन्तर आ गया था, जिसके प्रभाव से सब पेड़ मुरझा गये थे। मैं प्रत्येक पेड़ के पास गया, परन्तु मुझे एक भी पका हुआ अनार दिखाई न पड़ा। मैं मन ही मन बड़ा चकित हुआ और सोचने लगा कि अभी अभी इन पेड़ों को क्या हो गया है? जब मुझे कोई पका अनार न मिला, तो मैने कच्चे पक्के अनार तोड़े, परन्तु जब रस निकालने लगा तो देखा कि दाने सूखे हुये हैं। बहुत प्रयत्न करने पर और बहुत से अनारों के दानों को निचोड़ने पर भी रस का गिलास नहीं भरा गया। राजा भी सत्यवादी था। उसने अपना अपराध स्वीकार करते हुये कहा महात्मन्! मैं इस देश का राजा हूँ। पहली बार जब आप रस लेने गये थे, तब मैंने मन ही मन विचार किया था कि आपके हाथ से रस पीकर मैं आपको प्राणदाता मानूँगा और आपके गुण गाऊँगा। किन्तु जब दूसरी बार आप रस लेने के लिये गये, तो मेरे मन में विचार उठा कि आपके पास तो बहुत बड़ा बाग है और इससे आप को बहुत आय होती होगी, अतएव आप पर राजस्व लगाना चाहिये। वास्तव में मेरी इस दुर्भावना का फल ही मुझे प्राप्त हुआ है कि रस का गिलास भी न मिल सका। मैं आपको वचन देता हूँ कि भविष्य में कभी भी किसी के प्रति कुभावना को मन में प्रविष्ट न होने दूँगा। आप जैसे महान सन्त की पल भर की संगति ने मेरा ह्मदय प्रकाशमान कर दिया है। सन्त उपदेश करते हैं कि अपनी भावनाओं को शुभ बनाने का यत्न करते रहो। इससे मालिक भी प्रसन्न रहते हैं। जिससे आपका जीवन भी खुशी से बीतता है और परलोक भी संवरता है।

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