गुरुवार, 28 जनवरी 2016

राजा,मन्त्री,सिपाही को बोली से पहचाना


    जब किस कउ इहु जानसि मंदा। तब सगले इसु मेलहि फंदा।।
सत्पुरुष चेतावनि देते हुये फरमाते हैं कि ऐ मनुष्य! जब तक तू किसी को बुरा समझता रहेगा,स्मरण रख कि तब तक हर प्रकार के दुःख तेरे गले में अपना फंदा डाले रहेंगे और तू चौरासी के चक्र से मुक्त न हो सकेगा। चौरासी के फंदे को काटने का साधन यही है कि किसी से कटु वचन बोल कर उसका दिल मत दुखाओ। वास्तव में देखा जाये तो मनुष्य की निरख-परख और उसका मूल्यांकन तो उसकी बोलचाल से ही किया जाता है।
   एक राजा साथियों सहित शिकार खेलने वन में गया। एक हरिण को देखकर उसके पीछे हो लियाऔर अपने साथियों से अलग हो गया। इधर हरिण भी उसकी आँखों से ओझल हो गया। हरिण को खोजते-खोजते जब वह कुछआगे गया तो एक स्थान पर उसे एक सूरदास ऋषि बैठे दिखाई दिये।राजा ने उनसे पूछा-हे विशाल नेत्रों वाले ऋषिदेव!क्या आप यह बताने की कृपाकरेंगे कि इधर से कोई  हरिण तो नहीं निकला।ऋषि ने उत्तर दिया-राजन्!कुछ देर हुई इधर से एक हरिण गया है। राजा ने हरिण के पीछे फिर घोड़ा दौड़ाया।कुछ देर बाद मंत्री उधर आ निकला। उसने भी ऋषि को सम्बोधित करते हुये कहा-हे सूरदास! क्या आप बता सकेंगे कि इधर से कोई गया है या नहीं। ऋषि ने उत्तर दिया-मंत्री जी! कुछ देर हुई इधर से राजा साहिब गुज़रे हैं। मंत्री के जाने के कुछ समय बाद कोतवाल वहाँ आयाऔर बड़े कठोर शब्दों में बोला-एअन्धे!इधर से कोई आदमी गुज़रा है? ऋषि ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-हां, कोतवाल साहिब!कुछ देर हुई,पहले राजासाहिब और फिर मंत्री जी इधर से गये हैं।कुछ देर बाद जब वे तीनों मिले,तो वार्तलाप के मध्य इस बात का वर्णन आया कि ऋषि ने,जो कि सूरदास है,यह कैसे जान लिया कि अमुक व्यक्ति राजा है,अमुक मंत्री तथा अमुक कोतवाल। वे तीनों उसके पास गये।राजा ने उससे पूछा-हे ऋषिदेव!कृपा करके आप यह बतलाइये कि सूरदास होने पर भी आपने हमें कैसे पहचान लिया? ऋषि ने उत्तर दिया-राजन!प्रत्येक व्यक्ति को उसकी बोलचाल से पहचाना जा सकता है। वार्तालाप से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-स्तर का पता चल जाता है। आपकी वाणी नम्र और मधुर थी,मंत्री की वाणी मेंआपकी अपेक्षा नम्रता और मधुरता कम थी,परन्तु कोतवालसाहिब की वाणी तो बहुत ही कठोर थी।यह सुनकर वे समझ गये किअनुभवी लोगों कीअन्दर कीआँख खुली होती है, जिस कारण उन्हें सच्चाई का पता चल जाता है।जब तक ह्मदय पर द्वैत का पर्दा पड़ा रहता है, तब तक विवेक की आँख नहीं खुलती।
          बानी तो अनमोल है, जो कोई जानै बोल।
          हीरा तो दामों मिलै, शब्द का तोल न मोल।।
     फरमाते हैं कि प्रकृती कीओर से मनुष्य को जो बोलने काअधिकार मिलाहुआ है,यह एक दुर्लभऔर मूल्यवान रत्न है,यदि कोई सौभाग्यशाली सत्पुरुषों की संगति में जाकर उसके प्रयोग का ढंग सीख ले अर्थात बोलने की युक्ति जिसे आ जाये तो वह व्यक्ति बहुत अधिक मालदार हो सकता है,क्योंकि हीरे जवाहर तो दाम से मिल जाते हैं,परन्तु सत्पुरुषों का शब्द किसी भी मूल्य-तोलमोल से नहीं मिल सकता। यह जब भी मिलेगा, उनकी कृपा से मिलेगा। हीरे का मूल्य लगाया जा सकता है, परन्तु शब्द के मूल्य का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसलिये सत्पुरुष उपदेश करते हैं किः-
          हिये तराजू तोल के, तब मुख बाहर खोल।
अर्थात् जब भी बोले, पहले मन में अच्छी प्रकार सोच समझ लो कि बोलने में क्या लाभ और क्या हानि है? इस प्रकार जो लाभ-हानि का अनुमान लगाकर और भलीभाँति सोच विचार कर बोलता है,तो वह सौभाग्यशाली सदैव सम्मान और सुख से जीवन व्यतीत करता है। जो बिना तोल के जैसा आया बोल दिया, उनका जीवन सदैव फसाद और अशान्ति का शिकार बना रहता है।

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