शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

दूसरे के सुख में सुखी होना ही सुख है


आदमी अपने दुःख से उतना दुःखी नहीं होता। जितना दूसरे के सुख से दुःखी होता है। सच्चा मनुष्य वह है जो दूसरे के सुख में अपना सुख ढूँढ ले।
     यदि हम दूसरे के दुःख में दुःखी होते हैं और उसके सुख में भी सुख का अनुभव करते हैं, तो हम सच्चे मनुष्य हैं। इसके विपरीत यदि हम किसी के सुख पर दुःखी होते हैं, उससे ईष्र्या करते हैं और यह सोचते हैं कि जो सुख दूसरे को हासिल है, वह मुझे भी मिल जाए तो फिर हम दुःख के ही पात्र बनते हैं।
     अरब की एक मशहूर लोककथा है। दो अच्छे मित्र थे, उनमें एक अंधा था और एक लंगड़ा। चूँकि एक देख नहीं सकता था और दूसरा चलने में असमर्थ था। इसलिए दोनों एक-दूसरे की सहायता से भिक्षा मांगते और अपना गुजारा करते थे। दोनों में कई बार विवाद भी होता, लेकिन एक-दूसरे की ज़रूरत के कारण निपट जाता। एक दिन विवाद बहुत बढ़ गया और दोनों ने एक-दूसरे की पिटाई कर दी। कहते हैं दोनों की दशा देख भगवान को बड़ी पीड़ा हुई। भगवान ने सोचा, अंधे को आँखें और लंगड़े को पैर दे दिए जाएं तो दोनों सुखी हो जाएंगे। भगवान अंधे के समक्ष प्रकट हुए। यह सोचकर कि यह निश्चित रूप से अपने लिए आँखें मांगेगा, लेकिन जैसे ही भगवान ने पूछा- वत्स, कोई एक वर मांगो। इस पर अंधे ने कहा-भगवान, मेरे लंगड़े मित्र को अंधा भी कर दो। भगवान आश्चर्यचकित हो लंगड़े के पास पहुँचे, तो उसने कहा, हे भगवान! मेरे अंधे मित्र को लंगड़ा कर दो। घोर आश्चर्यचकित हो भगवान ने "तथास्तु' कहा और अंधा व्यक्ति लंगड़ा भी हो गया तथा लंगड़ा अंधा भी। दोनों पहले से भी दुःखी हो गए। इससे अच्छा होता कि अंधा अपने लिए आँखें और लंगड़ा अपने लिए पैर मांग लेता, तो इतना दुःख तो न होता।
  दरअसल, सांसारिक मनुष्य एक-दूसरे से घृणा, नफरत, ईष्र्या, करने में ही सारा जीवन बिता देते हैं, जबकि प्रेम, प्यार, शांति-सद्भाव से ज़िन्दगी को जीकर इस जीवन को सार्थक किया जा सकता है।

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