सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

शीतऋतु में परीक्षा ली


श्री गुरुमहाराज जी के चरणों में  एक उपदेशी ने कई बार इस बात के लिये प्रार्थना की कि श्री महाराज जी! मुझको भी भजनाभ्यास की युक्ति बताने की कृपा फरमावें। किन्तुआप उसकी बात को सुनकर सदैव मौन धारण कर लेते थे।जब उसने बार बार विनय की तो श्री महाराज जी ने फरमाया कि लुकमान हकीम का यह नियम था कि जब कोई व्यक्ति उन के पास शिष्य होने को आता तो वे उसकी भली-भाँति परीक्षा कर लेते थे। एक बार एक व्यक्ति शीतऋतु में शिष्य बनने के विचार से उपस्थित हुआ।लुकमान ने रात को उसे एक चारदीवारी के अन्दर बन्द कर दिया, जहाँ शीत से बचने के लिये कोई स्थान न था।जब हिमपात प्रारम्भ हुआ और शीतल वायु भी चलने लगी,तो उसके अंग-प्रत्यंग शीत से शिथिल पड़ने लगेऔर शरीर ठण्डा होने लगा। उस समय उस मनुष्य ने उठकर चारों ओर देखना आरम्भ किया। कि कदाचित कोई वस्तु अथवा स्थान ऐसा मिल जाये जिससे सर्दी हटाऊँ!किन्तु वहाँ केवल एक भारी पत्थर और एक सोटे के और कुछ न पाया।मन में सोचा कि इन्हीं के माध्यम से प्राण बचाने का कोई ढंग निकालना चाहिये।अन्ततोगत्वा सोटा संभाल कर खड़ा हो गयाऔर उस पत्थर को उठाना,सरकाना और इधर से उधर लुढ़काना प्रारम्भ किया। इस प्रकार जब अत्यन्त परिश्रम किया तो शरीर में गर्मी आईऔर सर्दी दूर हो गई। जब खूब थक गया तो एक स्थान पर बैठ गया।जब फिर शरीर जकड़नाआरम्भ हुआ,तो वही पत्थर और सोटा संभाला। इसी प्रकार प्रयत्न और परेशानी में रात्रि व्यतीत की। प्रातः जब लुकमान के सम्मुख उपस्थित हुआ तो उन्होने उसको शिष्य बना लिया और अपने घर वापिस जाने काआदेश दिया। वह व्यक्ति सोचने लगा कि न तो इन्होने कछ पढ़ाया।न कुछ सिखाया और न ही कुछ बताया, फिर ये गुरु कैसे और मैं शिष्य कैसा?लुकमान ने उसके मन की अवस्था समझकर कहा कि भाई!जो कुछ है तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है। हमको केवल इतना देखना था कि तुम उसआन्तरिक ज्ञान से कहां तक लाभ उठा सकते हो?सो हमने देख लिया कि कल रात बिना किसी पहनने अथवा ओढ़ने की वस्तु के,उस सख्त सर्दी और हिमपात से तुमने अपने प्राण बचा लिये।वहां तुमको किसने बताया और सिखाया?वह मेरा सूक्ष्म रूप था,जो तुम्हारे घट में विद्यमान है।वही सदैव तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहेगा। तुम्हारा उस से सम्बन्ध जुड़ा रहना चाहिये।
     उपरोक्त कथा सुनाकर श्री महाराज जी ने फरमाया कि भक्त जी! बताने को तो हमने भी आपको सब कुछ बता दिया है। अब तुम केवल इतना कर लो कि हमारे ध्यान को चित्त में दृढ़ कर लो।वह परोक्षरूप से तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करता रहेगा।और तुम्हारी सुरति उच्च स्थानों की सैर का आनन्द उठाती रहेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें