गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अँगुली कटी के कारण बली से बच गया


     एक राजा था उसका मन्त्री बड़ा ही विचारवान और ईश्वर का भक्त था। एक दिन राजा साहिब कलम बना रहे थे। अचानक चाकू उनकी अँगुलि पर लग गया। लहु की धारा बहने लगी। राजा के सारे कर्मचारी और राज दरबारी महाराजा के साथ अपनी सहानुभूति प्रकट करने लगे परन्तु वह महामन्त्री हर एक से यही कहता कि कोई चिन्ता की बात नहीं परमात्मा जो कुछ भी करते हैं उसमें भलाई छिपी होती है। इस दुःख का परिणाम अच्छा ही होगा।
     प्रभु भक्त मन्त्री राजा को भी यही बात कह कर शान्त कर देता कि महाराज! आप घबड़ाइये नहीं परमात्मा की ओर से जो कुछ भी होता है उसमें जीव का कल्याण छुपा है। परमात्मा की ओर से कभी भी किसी का अनिष्ट,अमंगल और अहित नहीं हुआ करता इस चोट में भी आपकी भलाई झांक रही है। दूसरे राज कर्मचारियों ने महाराजा के कान भरने शुरु किये कि यह आपका मन्त्री आपके कष्ट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करता। ऐसा मन्त्री अवश्य ही आपको किसी दिन धोखा देगा। मन्त्री वह कैसा जिसमें अपने स्वामी के दुःख में इतनी साहनुभूति भी न हो, ऐसे मनुष्य को तो तत्काल दरबार से पृथक कर देना चाहिये।
     महाराजा भी उन की बातों में आ गये और मन्त्री को राज दरबार से बाहर कर दिया। किन्तु मन्त्री को इस बात का तनिक भी दुःख न हुआ। उसके मुख में वही पंक्ति काम कर रही थी। परमात्मा जो कुछ भी करता है अच्छा ही करता है। मैं तो उस की विराट इच्छा में सर्वदा प्रसन्न रहने वाला हूँ। जैसे ही राजा की अँगुली का घाव ठीक हुआ वह आखेट करने के लिये अपनेअहलकारों के साथ किसी जंगल में निकल गये। अभी नया मन्त्री चुना न गया था। स्वयं राजा ही आगे आगे जा रहे थे कि एक शिकार उन्हें दिखाई दिया बस फिर क्या था नरेश ने अपना घोड़ा उसके पीछे डाल दिया। दुर्भाग्यवश वह आखेट तो उसके हाथ न लगा और राजा एक गहन वन में जा पहुँचे। जंगली हिंसक जानवर वहाँ इधर उधर भागते हुए चिंघाड़ रहे थे और कहीं बड़े भयंकर विषैले सर्प वृक्षों की शाखाओं पर लटकते हुए भय उत्पन्न करते थे। अहलकारों के दुर्बल घोड़े राजा से विलग हो गये। राजा अकेले ही विश्राम करने की इच्छा से कोई रमणीय, शान्त और एकान्त स्थान खोजने लगे। भगवान भास्कर ने भी विदा ले ली। निशा की देवी ने पदार्पण करके दसों दिशाओं को अऩ्धकार में डुबो दिया। अकस्मात् महाराजा क्या देखते हैं कि सामने कहीं प्रकाश दिखाई दे रहा है। ज्यों ही राजा उसकी तरफ बढ़े कि कुछ सैनिकों ने आकर उसको घेर लिया। अब भूपति बड़े घबड़ाये कि यह क्या विपत्ति मुझ पर आ टूटी है। मैं तो निकला था शिकार करने परन्तु अपने आप ही मैं शिकार बन गया।राजा मन ही मन कहने लगे यह तो वो ही बात हुई जो कभी हज़रत मूसा के साथ हुई थी-मूसा डरया मौत से फिर आगे मौत खड़ी। अच्छा मेरे मालिक!जो तेरी मौज तू बड़ा ही बेपरवाह है।परन्तु तू ही सर्वरक्षक है तू बख्शनहार भी है। दीन बन्धो!प्रभो! मेरे अपराधों को क्षमा कर। दयालुदेव! बख्श दे मेरे गुनाह!क्षमाशील हो नाथ! मुझे केवल आपका ही भरोसा है। सैनिक ने कहा-तुम कौन हो? राजा ने कहा-मैं एक नगरी का राजा हूँ,शिकार खेलने के लिये निकला था, परन्तु जंगल में भटक गया और आपकी नगरी में भूल से आ गया। सैनिक ने कहा-तुम्हें पता होना चाहिये कि इस नगरी के राजा का यह हुक्म है कि रात्रि के समय जो कोई भी कुलीन पुरुष हमारी सीमा में आ जाय, उसकी बलि दे दो, हमारे यहाँ देवी का मन्दिर है तुम्हें भी अब हम वहीं ले जाएंगे, चलो हम कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। राजा चुपचाप उनके साथ और कोई चारा न देखकर चल पड़ा।
     राजा को पण्डितों के समक्ष लाया गया। उसके शरीर के अंगों की परीक्षा करते हुए उन्हें एक अंगुली कटी हुई नज़र आई। बस फिर क्या था झट से पण्डित ने कहा-कि इसे ले जाओ यह पुरुष बलि देने को योग्य नहीं है क्योंकि इसका अंग भंग हुआ हुआ है।पण्डितों के ऐसा कहने पर वह राजा तो मृत्यु के मुख से बच गया। सिपाहियों को नया आदेश हुआ कि तुम बलिकार्य के लिये ऐसे पुरुष को लाओ जिस के सम्पूर्ण अँग सही हों यही विधान है शास्त्र  का।
     इस प्रकार राजा जीवनदान पाकर जब लौट रहे थे तो मार्ग में सोचने लगे कि प्रभु कितने ही कल्याणकारी हैं। यदि मेरी अँगुली कटी न होती तो मैं आज महाकाल का ग्रास बन जाता। इस कटी हुई अंगुलि का ही प्रताप है जो मेरे प्राण और मेरा राजपाट दोनों पर कोई आंच नहीं आ सकी। महाराजा के मन में अपने मन्त्री को राज्य से निकाल देने का भी बड़ा पश्चाताप होने लगा। मन्त्री कितना अच्छा था जो कहता था कि ईश्वर जो करता है उस में जीव का हर तरह से भला ही छुपा होता है। मैने लोगों की बहकावट में आकर ऐसे बुद्धिमान, धर्मात्मा, सुशील और आज्ञापालक मन्त्री को अपमानित करके निकाल दिया। यह अच्छा नहीं किया। राजा स्वयंश्रद्धाभाव के साथ मन्त्री के घर पर पहुँचा और उससे बड़ी विनयपूर्वक क्षमा माँगी और कहा-""कि ऐ मन्त्रिश्रेष्ठ!मुझसे बड़ा घोर अपराध हुआ जो मैने लोगों के कहने से आपको मन्त्रिपद से हटा दिया। मुझे आप क्षमा करें और चल कर अपना काम देखें।''मन्त्री ने कहा-राजन्! इसमें आपका कोई दोष नहीं यह जो कुछ भी हुआ है सब उसी परमात्मा की आज्ञा अनुसार हुआ है। मालिक को ऐसा ही स्वीकार था यह सारा कौतुक उसी की इच्छा से ही सम्पन्न हुआ। वह प्रभु तो सब का मंगल करते हैं।देखिये,यदि डाकिया किसी के पास उसके पुत्र के मरने की तार ला देता है तो इसमें उसका क्या दोष?यह सब लीला उसी दयामय भगवान की है। उसी ने मेरे द्वारा अपनी मौज को पूरा करवाया है।इसी में ही बहुत भला हो गया।""मन्त्री जी!भला कैसा?''राजा ने शंकित स्वर से पूछा। मैने आप को नौकरी से हटा दिया। यह कोई भला काम थोड़े ही था? मन्त्री ने कहा, राजन्!यदि आप मुझे नौकरी से न हटाते तो मैं भी आपके साथ शिकार पर होता। हम दोनों अपने अपने शक्तिशाली घोड़ों पर इकट्ठे ही जंगल में गये होते। दोनों को ही उन सिपाहियों ने पकड़ लेना था।आप अंगुली के कटे होने से मुक्त हो जाते और मेरी बलि हो जानी थी।अब आप ही कहिये परमात्मा ने दोनों का ही किस सुन्दर ढंग से परम कल्याण कर दिया। सत्य है मन्त्री जी!मैने माना कि ईश्वर जो कुछ भी करता है उसमें प्राणी का सर्वथा मंगल छुपा होता है।वह सर्वरक्षक, दीनबन्धु,करुणासिन्धु और न्यायकारी है। प्रभु दयालु होते हैं। वे कभी किसी की बुराई नहीं सोचते कभी जीव को प्यार से और कभी मार से उसे सुमार्ग पर ले आते हैं।

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