मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

यह मन भूत समान है


भगवान श्री कृष्ण जी नेअपने प्रिय सखाअर्जुन को मन को वश में करने के दो साधन बताये हैं।एक अभ्यास और दूसरा बैराग्य। जब मन चंचल होकर इधर-उधर दौड़ने लगे तो उसे वैराग्य के द्वारा समझा बुझाकर पुनः अभ्यास में लगा देना चाहिये। युक्ति से मुक्ति मिलती है-ऐसा लोक प्रसिद्ध है।इसी तरह युक्ति से ही इस मन को जो भूत की भान्ति महा- चंचल और पवन से भी वेगवान है-रोकने के लिये सदगुरु के शब्द नामका जाप ही उपयुक्त साधन है।मन रूपी भूत फिर चैन के साथ अभ्यास में स्थिर होने लगता है। इस पर एक प्राचीन दृष्टान्त है।
     एक मनुष्य भूत-विद्या में अतिदक्ष था। उसने ह्मष्ट पुष्ट भूत पकड़ा और उसे नगर में बेचने चला। संयोगवश उसकी एक प्रतिष्ठित सेठ से भेंट हो गई।सेठ ने पूछ ही लिया किः-बाबा!यह काली कलूटी बला कौन सी है? इसे आप कहाँ ले जा रहे हैं? उसने उत्तर दिया यह एक भूत है। इसमें असीम बल है। कितना भी भारी से भारी कार्य क्यों न हो यह उसे पल भर में निपटा देता है।यह पवन सेअधिक द्रुतगति,बिजली से बढ़कर शक्तिमान और वज्र से भी दारूणतर और जल से भी कोमल है। इसमें असंख्य गुण हैं। यह अनेक वर्षों के कामों को मिनटों में और सहरुाशः लोगों के कामों को अकेला ही कर लेता है। जहाँ पवन का प्रवेश नहीं, यह वहाँ भी अनायास पहुँच जाता है। इस भूत की तुलना मन पर ठीक बैठती है।
          कबहूँ मन गगना चढ़ै, कबहूँ गिरै पाताल।।
          कबहूँ मन उनमुनि लगै, कबहूँ जावै चाल।।
भूत की भूरि प्रशंसा सुनकर सेठ जी ललचा उठे।उसेअपने लिये उपयोगी समझ कर दाम पूछे। स्वामी ने भूत के  दाम पाँच सौ रुपये कह दिया। दाम सुनकर सेठ बड़ा विस्मित हुआ कि इतना गुणी होने परभी मोल तो उसका कुछभी नहीं। जब यह एकदिन में ही पाँच सौआदमियों के बराबर कार्य कर सकता है फिर यह बात क्या है?भूत बेचने वाले ने कहा,भाई! जहाँ इसमें असंख्य गुण हैं वहाँ एक प्रबल दोष भी है। जब इसे काम न मिले तो स्वामी को ही खाने के लिये भागता है। यह सुनकर पहले तो सेठ एकदम भयभीत हुआ। परन्तु फिर उसे  विचार  आया  कि मेरी तो नगर नगर में सैंकड़ों कौठियाँ हैं। विलायत तक मेरा कारोबार है। मेरे तो हज़ारों ही धन्धे हैं। जो  प्रतिदिन अपूर्ण पड़े रहते हैं। फिर यह भूत निष्क्रिय क्योंकर रहेगा। यदि यह मेरे दैनिक कार्य ही पूरे कर दिया करे तो भी भाग्यों की बलिहारी है। यह सोच कर भूत को खरीद लिया।
     भूत तो भूत ही था।उसने मुँह फैलाकर सेठ से काम माँगा। कई दिनों तक तो सेठ ने उसे काम में लगाये रखा।परन्तु वह भूत तो महीनों का काम क्षण-भर में कर लाता।अभी मिनट भी पूरा नहीं हुआ होता कि वह भूतआ सिर पर सवार होता।और नया काम माँगताअन्यथा खाने को मुँह फाड़ देता। इससे सेठ तो उस भूत के हाथों तंग आ गया।उसका मस्तिष्क चकरा गया कि इतनी क्षिप्रता में उसके लिये नया काम सोचा नहीं जा सकता। कँपकँपीआरम्भ हो गई।
     दैवात् एक महात्मा उधर आ निकले। सेठ को उद्विग्न देखकर उन्हें दया होआई।प्रेम भरे बचनों में उन्होने घबड़ाहट का कारण पूछा। सेठ ने चरणों में झुककर प्रणाम किया। फिर अति क्रन्दन करते हुए भूत के सम्बन्ध में सारी गाथा अथ से इति तक सुना दी। महात्मा जी ने हँसकर कहाअब तुम रत्ती भर भी चिन्ता न करो।हम तुम्हें एक ऐसी युक्ति बताते हैं जिससे इस भूत का बाप भी तुम्हारेआगे एड़ियां रगड़ता फिरेगा।सेठ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर बड़ी उत्कण्ठा से पूछा-ऐ दीनबन्धु देव! मुझे तुरन्त ही बताइये।नहीं तो वह भूत आया ही चाहता होगा मुझे उससे बड़ा भय लग रहा है।महात्मा जी ने कहा-उसी भूत के हाथों एक लम्बा बाँस कहीं से मँगवा लो। उसे उसी भूत के हाथों से भूमि में सुदृढ़ता से गड़वा दो। बस, जब तुम्हारा और कोई कार्य न हो तो उस  भूत को उस बाँस परचढ़ने और उतरने का काम बता दो। यह एक ऐसा कार्य है जो जन्मों तक भी समाप्त नहीं हो सकता। फिर देखो ऐसा करने पर वह कैसे विवश और विह्वल होकर तुम्हारे पाँव पड़ता है।थोड़े ही दिनों में ही उसे नानी याद आ जायेगी।
     यह सुनकर सेठ की हर्ष से बाछें खिल गई। अब उसके मन में व्याकुलता का चिन्ह शेष नहीं रह गया था। भूत के आते ही सेठ ने महात्मा के कथनानुसार एक बाँस उसके हाथों मँगवाया और उसे भूमि में गाड़ देने की आज्ञा दी। गड़ जाने पर भूत को उस पर चढ़ने उतरने की आज्ञा दे दी। इस प्रक्रिया से वह भूत तत्काल ही विवश हो गया। उसकी सब सिट्टी-पिट्टी जाती रही। भूत को सेठ के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करने के लिये बाध्य होना पड़ा।अब मैं तुम्हें खाने की धमकी कदापि नहीं दूँगा। जब भी आप का कोई काम होगा उसे सम्पन्न करके मैं शान्ति से बैठ जाऊँगा। कथा-कहानी वास्तविकता को समझाने के उद्देश्य से लिखी जाती हैं।इस किस्से में भूत से भाव है ""मानवमन।''
          यह मन भूत समान है, दौड़ै  दाँत  पसार।।
          बाँस गाड़ि उतरै चढ़ै, सब बल जावै हार।।
     इसी मन के हाथों सारी सृष्टि आकुल है।इसका उपाय सन्त सदगुरु ही बताते हैं। हर मनुष्य के भीतर स्वाभाविक रूप में जो श्वासों का तार बाँस की न्यार्इं गड़ा हुआहै।उसी में गुरु-शब्द हो रहा है।उसके आने-जाने पर ध्यान रखना ही मन-भूत का उतरनाऔर चढ़ना है।इसका रहस्य पूर्ण सदगुरुदेव जी से हाथ आता है।उनकी बताई हुई इस युक्ति की कमाई से यह मन समस्त चंचलताओं को छोेड़ देता है।और इसके सुस्थिर हो जाने
पर ही जीव की चिन्ताएं मिट जाती हैंऔर मनुष्य तब सकल कल्पनाओं से छूट कर सुख-शान्ति का भागी बन जाता है।

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