बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संत हृदय नवनीत समाना..

गन्ने मारने वाले पर भी उपकार किया
छत्रपति शिवाजी के गुरुदेव समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी समय के पूर्ण सन्त महापुरुष थे और शिवाजी की उनके चरणों में अटूट श्रद्धा एवं अचल निष्ठा थी।एक बार समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी अपने कुछ शिष्यों केसाथ शिवाजी से मिलने के लिये जा रहे थे कि मार्ग में गन्ने का खेत आ गया जिसमें रस से भरे खूब लम्बेऔर मोटे गन्ने खड़े थे। समर्थ जी के शिष्यों को भूख और प्यास तो सता ही रही थी,क्योंकि दोपहर का समय हो गया थाऔर सुबह से उऩ्होने कुछ भी खाया-पिया नहीं था,अतः गन्नों को देखकर वह रह न सके। और खेत में घुस गए और गन्ने तोड़ तोड़ कर खाने लगे। समर्थ स्वामी श्री रामदास जी ने पहले तो उन्हें रोकना चाहा,परन्तु फिर कुछ सोचकर वे मौन रह गये। किसान उस समय वहाँ मौजूद नहीं था,परन्तु थोड़ी देर बाद जब वह वापिस आया तो वहाँ की हालत देखकर उसे क्रोध आ गया। लाठी तो उसके हाथ में थी ही, अतः उसने ताबड़तोड़ शिष्यों पर बरसानी शुरु कर दी। दो-तीन लाठियाँ उसने समर्थ स्वामी श्री रामदास जी की पीठ पर भी धर दीं। यह देखकर शिष्यों को क्रोध तो बहुत आया, परन्तु स्वामी जी ने हाथ के संकेत से उन्हें शान्त रहने को कहा। तत्पश्चात वे चुपचाप वहाँ से उठे और शिवाजी के महल की ओर चल पड़े।
     छत्रपति शिवाजी का यह नियम था कि जितने दिन समर्थ स्वामी श्री रामदास जी उनके पास रहते थे, तो गुरुदेव के स्नान की सेवा वे स्वयं किया करते थे। दूसरे दिन प्रातःकाल जब नित्यनियम के अनुसार शिवाजी अपने गुरुदेव को स्नान कराने लगे तो क्या देखते हैं कि गुरुदेव की सुकोमल पीठ पर नीले निशान पड़े हैं।यह देखकर उनकी आँखों में अश्रु छलक आए और वे क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होने गुरुदेव से
पूछा-""गुरुदेव!ऐसी धृष्टता किस नराधम ने की है?''समर्थ स्वामी जी ने शिवाजी की बात को टालते हुए कहा-"'शिवा! तुम स्नान कराओ,देर हो रही है।'' यद्यपि शिवाजी ने कई बार अपना प्रश्न दोहराया, परन्तु गुरुदेव ने हर बार हँसकर टाल दिया। किन्तु शिवाजी को चैन कहाँ था?स्नान के उपरान्त शिवाजी ने अन्य शिष्यों से पूछकर सारा वृतान्त जान लिया और दूसरे दिन राजदरबार में उपस्थित होने के लिये उस किसान को आदेश भिजवा दिया।
     सैनिक किसान का पता लगाकर उसके घर पहुँचा और छत्रपति शिवाजी का आदेश उसे सुना दिया। शिवाजी का आदेश सुनकर किसान काँप उठा।भय के मारे उसे रात भर नींद न आई।सारी रात यही सोचता रहा कि न जाने मुझसे क्याअपराध हो गया है जो राजदरबार में उपस्थित होने के लिए आदेश मिला है।दूसरे दिन दरबार लगा।एक ऊँचे सिंहासन पर गुरुदेव समर्थ स्वामी जी विराजमान हुए तथा उनके चरणों के निकट ही न्यायाधीश की कुर्सी पर आज शिवाजी स्वयं बैठे।उनकेआदेश से किसान को राजदरबार में लाया गया। दरबार में प्रवेश करने पर उसकी दृष्टि जैसे ही ऊँचे सिंहासन पर विराजमान समर्थ जी पर पड़ी,उसके पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। वह समझ गया कि उसने कल जो व्यवहार इनके साथ किया है, उसके फलस्वरूप उसे अब कठोर दण्ड भुगतना पड़ेगा। उस बेचारे को क्या पता था कि ये शिवाजी के गुरुदेव हैं, वह तो इन्हें कोई साधारण साधू समझा था।
     शिवाजी ने उस किसान को सम्बोधित करते हुए कहा-""पूज्यनीय गुरुदेव के प्रति तुमने जो कल घोर अपराध किया है, उसका दण्ड तुम्हें भुगतना पड़ेगा।इससे तुम बच नहीं सकते।''तत्पश्चात् उन्होने गुरुदेव के चरणों में विनय की-""देव!इसअधमअपराधी के लिएआप किस दण्ड का आदेश देते हैं?''समर्थ स्वामी जी ने मुस्कराते हुए शिवाजी कीओर देखा और बोले, शिवा!जो हम कहेंगे,क्या वही दण्ड इसे दोगे?'' ""क्यों नहीं गुरुदेव!आपकीआज्ञा काअक्षरशः पालन किया जाएगा।''शिवाजी ने हाथ जोड़कर विनय की। गुरुदेव ने वचन किये,"'तो फिर शिवा!इसे वह गन्ने का खेत और उसके साथ लगती हुई सारी भूमि दान कर दो। दो तीन गांव और भी इस के नाम पर कर दो जिससे कि यह अपना जीवन निर्वाह सुखपूर्वक कर सके।'' शिवाजी सहित सारा दरबार समर्थ स्वामी जी के ये वचन सुनकर स्तब्ध रह गया।कैसा अनोखा न्याय है।सन्त जन किस प्रकार दूसरों के अपराधों को क्षमा कर देते हैं, यह सोचकर वह किसान समर्थ स्वामी जी के चरणों में लोटपोट हो गया। स्वामी जी के इस व्यवहार ने उस किसान की काया-पलट कर दी। वह उनका अनन्य शिष्य बन गया।
       साधु चरित सुभ चरित कपासु।निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
       जो सहि दुख  परछिद्र  दुरावा। वंदनीय  जेहि जग जस  पावा।।
अर्थात सन्तसत्पुरुषों की करनी कपास के समान होती है। कपास को चखकर यदि देखें तो उसमें रस नहीं होता,परन्तु वह होती बड़ी श्वेत है। उसमें से फिर सूत खींचा जाता है।वह कपास ओटे जाने,काते जाने और बुने जाने के कष्टों को झेलकर और फिर वस्त्र बनकर लोगों के शरीरों को ढाँप देती है।सन्त सत्पुरुष भी इसी तरह स्वार्थ से रहित और विमल चरित्र होते हैं।अपने ऊपर दुःख कष्ट सहकर भी दूसरों के दोषों को,
दूसरों के अपराधों को क्षमा कर देते हैं। तभी तो यह संसार उनकी वन्दना करता और उन का यश गाता है।

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