शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

प्रत्येक अवस्था में भजन आवश्यक


      राम भगति  एहि तन  उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी।।
      तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु वेद भजन नहिं बरना।।
अर्थः-चूंकि मुझे इसी प्रकार शरीर से मेरे ह्मदय में मालिक की भक्ति उत्पन्न हुई, इसी से हे स्वामी!यह मुझे परम प्रिय है। मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता, क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता।
     तीसरी पादशाही श्री गुरुअमरदास जी को वृद्धावस्था में गुरु-गद्दी मिली। एक बार मुसलमान दरवेश उनके दर्शनों को आये,देखा तो वे भजनाभ्यास में लीन थे, फकीर जी प्रतीक्षा में बैठ गये कि जब वे भजन से उठेंगे तो वार्तालाप करेंगे।कुछ देर के पश्चात जब श्री गुरु अमरदास जी भजन से उठे उन मुसलमान दरवेश ने प्रश्न किया-महाराज! अब तो आप पदवी के मालिक हैं,अबआपको भजन करने की क्या आवश्यकता है? श्री गुरु अमरदास जी ने एक प्रमाण देकर समझाया कि एक गरीब मनुष्य को मिट्टी छानने की आदत थी। वह किसी न किसी मार्ग पर बैठ कर प्रतिदिन मिट्टी छाना करता था। एक दिन उसको मिट्टी में से लाल मिल गया,जो लाखों के मूल्य का था।लाल को पाकर वह धनवान तो बन गया,परन्तु मिट्टी छानने के काम को उसने फिर भी न छोड़ा। किसी ने पूछा-भाई! अब तो तुम सेठ बन गये हो, अब मिट्टी किसलिये छानते हो? उत्तर मिला कि मिट्टी से मुझे लाल मिला है, इसलिये मेरा  इसके साथ प्यार है।यह उदाहरण देकर श्रीगुरुअमरदास जी ने फरमाया-फकीर सार्इं!मुझपर जोअपने सद्गुरुदेवजी की कृपा हुई है,वह इसी सेवा भजन के कारण ही हुई है।और आपको यह भी ज्ञात हो कि सतपुरुषों की सेवा भी दो प्रकार की है-एक सूक्ष्म और दूसरी स्थूल। स्थूल सेवा तो वह है जो आज्ञा और मौज अनुसार शरीर द्वारा की जाती है और सूक्ष्म सेवा वह है जो उनके पवित्र आदेशानुसार हर समय सुरत-साधना का अभ्यास किया करते हैं। इससे हमें उनकी दैवी प्रसन्नता प्राप्त होती रहती है। यही कारण है कि हमेंभजनाभ्यास से प्यार है।यह सुनकर उस दरेवश ने श्रीगुरुमहाराज जी के चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया।

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