रविवार, 28 फ़रवरी 2016

धीरज


          धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
          माली सींचै केवड़ा,ऋतु आये फल होय।।
ये वचन परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के हैं जो सत्य हैं उनका कथन है किः- ऐ मन!धैर्य धारण कर। धैर्य से ही सब कार्य सिद्ध हो जायेगा। माली यदि पौधे को पानी की जगह केवड़े से भी सींचे इस आशा से कि पेड़ अधिक प्रसन्न हो जायेगा और फल जल्दी दे देगा अथवा उचित जल न देकर सैंकड़ों घड़े पानी दे डाले-परन्तु विधि के विधान केअऩुसार उस वृक्ष पर फल तो नियत ऋतु में ही आएँगे पहले नहीं। सन्त मत का सिद्धान्त है कि दयालु भगवान ने यह कर्तव्य दैव पर छोड़ दिया है। हर एक व्यक्ति का भाग्य उसी की झोली में डाल देवे। विधि तो भूल नहीं करता। किन्तुअशान्त और अधीर लोग धैर्य नहीं करते और शीघ्र अति शीघ्र फल की याचना करते हैं।आप कोई भी उदाहरण ले लो जल्दी का फल नीरस ही निकलता है।आम को ही समय से पूर्व तोड़कर देख लो वह मीठे की जगह खट्टा ही मिलेगा।इसलिये सब कार्यों में धैर्य और विधि-विधान को छोड़ कर जो शीघ्रता करता है वह अपने लिये अशान्ति मोल लेता है। सन्त इन उदाहरणों से समझाते हैं कि धैर्य का फल मधुर होता है। किस काम के करने मे अधीर नहीं होना चाहिये। उतावला सो बावला। यह कहावत ठीक है इसी तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित दिए हुए दोनों उदाहरणों से मिलती है।
     एक मनुष्य भवन बना रहा था।जब उसकी छत पड़ने का समय आया तो सैंटरिंग होने के बाद लिंटल पड़ गया। वास्तुकार ने कहा कि इसे ग्यारह दिन के बाद खोलना।एक उतावले व्यक्ति ने उसे तीन दिन के बाद ही खोल दिया।फल यह हुआ कि उस मकान की छत नीचेआ पड़ी। परिणाम यह निकला कि वह जितनी जल्दी सुखी होना चाहता था उतनी ही देर के लिये सुख उससे दूर हो गया। जिससे वह पुरुष महीनों तक दिन भर में भी धूप में ही जलता रहा।छाया तो उसे क्या ही मिलनी थी।
     एक कुम्हार किसी गाँव में कोयला खरीदने गया था। एक अतिथि उसके घर पर आयाऔर उसकी पत्नी से पूछा कि वह सज्जन कहां गया है और कब आवेगा?वह क्योंकि बड़ी भक्तिमति थी। धैर्य और अधैर्य के परिणाम को समझती थी। उसने उत्तर दिया यदि वह धीरता से आया तो आज सायं तक आ जायेगा यदि उतावली करेगा वह देर से लौटेगा।वह अतिथि ठहर गया सन्ध्या हो गई। रात्री भी आ गई किन्तु गृह स्वामी न लौटा। अतिथि वहीं रुका रहा। कई दिनों के बाद जब वह घर आया तो अतिथि ने पूछा कि,इतने दिन कहां लगाये? उसने प्रत्युत्तर दिया कि हमें कोयलों की आवश्यकता थी।उसके लिये एक जंगल में जाकर लकड़ियाँ मोल लीं।उन्हें कटवायाऔर भट्ठी में जलाकर उनका कोयला बनवाया। भूल हमसे यह हो गई किअभी वह कोयला पूरा बुझ भी न पाया था कि उसे गाड़ियों में तुरन्त ही भरवा दियाऔर घर की ओर चल पड़े।परिणाम यह हुआ कि क्योंकि वह कोयले अभी अध जले थे वे धीरे धीरे सुलगने लगे। हम सबऔर हमारे श्रमिक लोग भी थके मांदे थे। हमारीआँख लग गई-जब जागे तो क्या देखा कि बोरियों में तो प्रचण्ड अग्नि लग गई है-तत्काल उठे गाड़ियाँ खाली कींऔर महाकठिनाई के साथ आग को शान्त किया-उन कोयलों को पुनः पूरी तरह ठंडा किया कि कहीं आग दोबारा न जल उठे। इसलिये हमें इतना विलम्ब हो गया। यदि हम उतावली न करते तो एक सप्ताह पहले घर पहुँच जाते।

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