शाह अब्दुल लतीफ को नूर मुहम्मद कल्होड़े ने एक घोड़ी भेजी कि इस पर चढ़कर मेरे पास आ जाओ। शाह साहिब जैसे ही उस पर सवार हुये, वह कूदने-फांदने लगी। शाह साहिब ने उसकी लगाम कसने की अपेक्षा ढीली छोड़ दी। घोड़ी कूदना-फांदना छोड़ कर सीधी तरह चलने लगी। शिष्यों ने जब आपसे पूछा कि लगाम कसने की बजाय आपने ढीली क्यों छोड़ दी, तो आपने उत्तर दिया, हमने जब अपने मन की लगाम सदगुरु को सौंपी, तभी वह चंचलता छोड़कर शान्त हुआ। मन की तरह हमने घोड़ी की लगाम भी उन्ही के हवाले कर दी। उन्होंने (सद्गुरु ने) इसकी सब मस्ती उतार दी और अब देख लो कि सब चंचलता और कूद-फांद छोड़कर कैसी शान्ति से चल रही है।
सिंध के सन्त सामी साहिब ने एक स्थान पर फरमाया है कि उस सेवक के भाग्यों की मैं कहां तक सराहना करूँ, जिसने अपने मन की बागडोर सद्गुरु को सौंप रखी है और जो अपने सब विचार छोड़कर सद्गुरु की आज्ञा-मौज अनुसार सेवा-भक्ति में लीन रहता है।
Jai gurandi💐
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