शुक्रवार, 25 मार्च 2016

मकान गिरा फिर भी प्रसन्न


     मैं छोटा था, और मेरे पिता गरीब थे। उन्होने बड़ी मुश्किल से एक अपना मकान बनाया। गरीब भी थे और ना-समझ भी थे, क्योंकि कभी उन्होंने मकान नहीं बनाये थे।उन्होंने बड़ी मुश्किल सेएक मकान बनाया। वह मकान ना-समझी से बना होगा। वह बना और हम उस मकान में पहुँचे भी नहीं और वह पहली ही बरसात में गिर गया। हम छोटे थे और बहुत दुःखी हुए।वे गांव के बाहर थे।उनको मैने खबर की कि मकान तो गिर गया और बड़ी आशायें थीं कि उसमें जायेंगे। वे तो सब धूमिल हो गयीं। वे आये और उन्होने गाँव में प्रसाद बाँटा और उन्होने कहा, कि परमात्मा का धन्यवाद।अगरआठ दिन बाद गिरता तो मेरा एक भी बच्चा नहीं बचता।हमआठ दिन बाद ही उस घर में जाने को थे।और वह उसके बाद ज़िन्दगी भर इस बात से खुश रहे कि मकान आठ दिन पहले गिर गया। आठ दिन बाद गिरता तो बहुत मुश्किल  हो जाती। यूँ भी ज़िन्दगी देखी जा सकती है। और जो ऐसे देखता है,उसके जीवन में बड़ी प्रसन्नता का उद्भव होता है। आप ज़िन्दगी को कैसे दखते हैं इस पर सब निर्भर है। हम इतने प्रसन्न हों कि हम मौत को और दुःख को गलत कर दें। जो
इतनी प्रफुल्लता और आनंद को अपने भीतर संजोता है, वह साधना में गति करता है। साधना की गति के लिए यह बहुत ज़रूरी है।

बुधवार, 23 मार्च 2016

मन कुंचर काया उद्यानै। गुरु आंकुस सच सबद पछानै।।


        
युनान के राजा फिलिप्स के पास किसी ने उपहार के रूप में एक अश्व भेजा, जो बड़ा ही मुँहजोर था। कोई भी सवार उसे न तो काबू में ला सकता था,न ही उस पर सवारी करने में सफल हो सकता था। शाह फिलिप्स ने बड़ा प्रयत्न किया कि किसी प्रकार वह घोड़ा काबू में लाया जावे। बड़े बड़े घुड़सवारऔर अश्वविद्या के ज्ञाता भी हार गये,किन्तु वह किसी के भी किसी तरह काबू में न आ सका। देखने में यह एक अति सुन्दर जानवर था,तथा सब प्रकार से स्वस्थ पुष्ट और स्वारी के योग्य मालूम होता था,किन्तु यह किसी की समझ में नहीं आता था कि इसमें क्या औगुण है, जिससे यह किसी के काबू में नहीं आता। कोशिश करने पर भी जब कोई उसके औगुण को न पा सका,तो हारकर शाह फिलिप्स ने उस घोड़े को वापिस भेज देने का निश्चय किया।यह बात फिलिप्स के पुत्र सिकन्दर को मालूम हुई,तो उसे बहुत दुःख हुआ। उसने अपने पिता से प्रार्थना की,""यह घोड़ा मुझे दे दिया जावे,मैं इसे काबू में लाने का यत्न करूँगा।'' पिता ने बहुत कुछ समझाया बुझाया कि,""बेटा!जिस घोड़े पर काबू पाने में बड़ेबड़े चतुर सवार भीअसफल रहे हैं,तू उसे क्योंकर काबू में ला सकेगा?तू तो अभी अल्पायु है,यह तेरे बस का काम नहीं।''किन्तु सिकन्दर न माना। उसने उत्तर दिया,""पिता जी!कोशिश और हिम्मत करने से कौन सा कठिन से कठिन कार्य पूरा नहीं किया जा सकता?
     इस पर सिकन्दर के पिता ने आज्ञा दे दी। सिकन्दर ने घोड़े की बाग थामी और उसे लेकर काफी देर तक इधर-उधर घुमाता रहा।इसप्रकार करने से उसने घोड़े काऔगुण खोज लिया कि यहअपनी ही छाया से डरता और बिदकता है।अब सिकन्दर ने घोड़े का रुख सूर्य की ओर कर दिया।ऐसा करने से घोड़े की छाया पीछे कीओर चली गईऔर घोड़ा बराबर आगे की तरफ बिना झिझके बिदके चलता गया। अब सिकन्दर उचककर उसकी गर्दन पर सवार हो बैठा। घोड़े ने कोई अड़चन पैदा न की। सिकन्दर ने घोड़े को एड़ी लगाई, तो वह वायु से बातें करने लगा। अब उसकी परछार्इं पीछे की ओर रहने से घोड़ा ज़रा भी न बिदका। सिकन्दर ने उसे खूब दौड़ाया यहाँ तक कि घोड़ा पूरी तरह थक गयाऔर अपनी मस्ती तथा उद्दण्डता खो बैठा।अब सिकन्दर पूरी तरह सेअश्व की शक्ति का स्वामी बन गया था। फिर सिकन्दर ने उसे उलटे रुख में चलाया। पहिले तो घोड़ा बिदका और घबराया,किन्तु अब चूँकि सिकन्दर उसकी शक्तिपर काबू पा चुका था,इसलिये घोड़ा विवश होकर रह गया। अब उसे अपनी छाया की ओर भी चलना पड़ा। इस प्रकार करने से धीरे धीरे उसकी अपनी छाया से डरने वाली आदत जाती रही और वह पूरी तरह से सिकन्दर के काबू में आ गया।
     यह तो एक दृष्टान्त हुआ। ठीक इसी प्रकार ही मन रूपी घोड़े का भी हाल समझना चाहिये। चूँकि यह मन माया के मिसाले से बना हुआ है, यह सब माया अपनी ही छाया है। वास्तव में यह अपना ही प्रतिबिम्ब है। माया में चन्चलता है,इसीलिये यह मन रुपी घोड़ा भी अपनी छाया से आप ही चन्चल हो उठता है और इन्द्रियों के विषयों की वासनाओं के कारण सदा बैचैन बना रहता है। विषय-वासनाओं की तरफ दौड़ता हुआ यह मन आप ही अपना शत्रु बनकर अपनेआप से घृणा करने लगता है। किन्तु जब इस मन रूपी घोड़े के मुख में सतगुरु के शब्द रूपी लगाम दी जावेऔर बुद्धि रूपी सिकन्दर ज्ञानरूपी काठी पर चढ़कर सवार होवे, तथा शान्तिऔर धैर्य के रिकाबों में पाँव रखे,वैराग्य का चाबुक लगावे, और इस घोड़े को सतगुरु रूप सूर्य के सम्मुख रखकर भक्तिमार्ग पर दौड़ावे-तब यह मन रूपी घोड़ा अपने आप थक कर स्थिर हो जावेगा। और संसार की प्रकृति रूपी छाया का भय अपने आप ही जाता रहेगा। जिस प्रकार कि परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैंः-
         मन चेतन ताज़ी करै, लव  की  करै लगाम।।
         शब्द गुरु का ताज़ना कोई पहुँचै सन्त सुठाम।।
         छिन छिन मन गुरु चरणन लावै एक पलक छुटन नहीं पावै।।
अर्थात मन को गुरु-शब्द द्वारा वश में करके कुमार्ग में जाने से रोके। तथा जहाँ जहाँ मन भटकता है,वहाँ वहाँ इसको गुरु के ध्यान में लगावे। इस प्रकार करते रहने यह मन स्थित और शान्त हो जावेगा और इसकी कल्पना आप से आप मिटती जावेगी।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

शिकारी आयेगा जाल बिछायेगा


कहते हैं कि एक बार किसी महात्मा का एक बाग में स्वाभाविक जाना हुआ। देखा कि वृक्षों पर कुछ सुन्दर सुन्दर तोते कलोल कर रहे हैं। सोचने लगे कि कितने कमनीय हैं ये तोते। फिर विचार आया कि कहीं ये किसी शिकारी के जाल में चोग के लालच में आकर फँस न जावें। इस विचार से उन्होने एक तोते को पकड़ा और अपने आश्रम पर ले आये।उसे यह पाठ पढ़ाना आरम्भ किया,""शिकारीआएगा,जाल बिछाएगा, दाना डालेगा हमको फँसायेगा परन्तु हम नहीं फँसेंगे।''जब कुछ दिन निरन्तर पढ़ाने के पीछे तोते ने वे शब्द रट लिये तो महात्मा जी ने जाकर उस तोते को बाग में दूसरे तोतों के बीच में छोड़ दिया। ज्यों ही उस तोते ने अपने साथियो में जाकर महात्मा की पढ़ाई हुई शिक्षा बोलनी शुरु की-दूसरे तोते भी उसकी नकल कर वे ही शब्द बोलने लगे-""शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, हमको फँसाएगा।परन्तु हम नहीं फँसेंगे।''पहले वह पढ़ा हुआ तोता शब्द बोलता और दूसरे तोते उसकाअनुकरण करते।भाव यह कि वहाँ एक प्रकार की पाठशाला खुल गई।जैसे अध्यापक बच्चों को पढ़ाता है इसी प्रकार वह तोता दूसरे तोतों को पढ़ाने लगा। उन तोतों को भी वे शब्द भलीभाँति कण्ठस्थ हो गये। महात्मी जी ने समझ लिया कि अब ये तोते किसी तरह भी शिकारी के जाल में नहीं आ सकते।
     संयोगवश एक शिकारी उस बाग में आ गया।उसकी दृष्टि बाग के तोतों पर पड़ी उसे उन्हें पकड़ने की चाह हुई। किन्तु जब उनके मुख से उठती हुई उस ध्वनि को सुना, तो वह अचकचा गया और सोचने लगा कि ये तोते तो किसी अध्यापक के पढ़ाये हुए हैं ये क्योंकर मेरे पाश में आ सकेंगे।अच्छा,प्रयत्न तो करता हूँ।उसने जाल बिछाकर चोग डाल दी।तोतों ने सामने पड़ी हुई चोग देखी और लालच के मारे जाल पर आ बैठे। फल यह हुआ कि वे जाल में फँसते भी जा रहे हैंऔर वे शब्द भी बोले जाते हैं। शिकारी जाल समेट कर प्रसन्न हुआ हुआ घर को चल दिया। वहां उन्हें उसने पिंजरों में डाल दिया। दो एक दिन के बाद उन्हें बाज़ार में बेचने के लिये चला। आश्चर्य तो यह है कि वे तोते पिंजड़ों में बैठे हुए-बाज़ार में बिक रहे हैं परन्तु मुख से उसी शब्द को दोहराए जा रहे हैं कि,""शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, हमें फँसाएगा किन्तु हम नहीं फँसेंगे।
     यही दशा प्रायः संसारियों की है। ये तोते क्या हैं? ये संसारी जीव हैं।इस जगत रूपी बाग में आ जाते हैं। काल रुपी शिकारी ने इस बाग में आकर संसारी जीवों को फँसाने के हेतु विलासिता की सामग्री बखेर दी है। तोतों की भाँति संसारी जीव दाने के लोभ में शिकारी के जाल में उतर आते हैं। उन्हें दाना तो नज़र आता है परन्तु माया का जाल और काल-शिकारी नज़र नहीं आते।प्रायः संसारी जीव सुनतेऔर पढ़ते हैं किमोह-माया बन्धन रुप है,काल रुपी शिकारी है-हम मोह-माया के बन्धन में फँसकर कालरूपी शिकारी के हवाले हो रहे हैं।जहाँ कि जीवात्मा को अनेक योनियों में आवागमन के चक्कर काटने पड़ते हैं। जितने भी धर्म ग्रन्थ हैं उन सबमें प्रभु की विशेषताएं लिखी हुई हैं। वे अपने प्रकाश की ओर ले जाते हैं,सुमार्ग दिखलाते हैं किन्तु वे स्वयं प्रकाश नहीं है। उनके पढ़ लेने मात्र से,और ऊँचे स्वर में पाठ कर लेने से,मन का अऩ्धकार दूर नहीं हो सकता। मन का अन्धेरा तभी दूर होगा जब हम धर्मग्रन्थों के बताये हुए मार्ग पर चलकर अपने जीवन को आचरणमय बनायेंगे। एक बार क्याअनेक बार भी ग्रंथों का पाठ किया जाये परन्तु लक्ष्य की प्राप्ति तभी होगी जब उनके दर्शाये हुए मार्ग पर आचरण किया जायेगा।

रविवार, 20 मार्च 2016

रब्ब दा पाइयाई बड्डा है


बाबा फरीद की माँ ने कहा बेटा घर में शक्कर नहीं है। बाज़ार से शक्कर ले आ। बाबा फरीद जी ने पूछा, माँ कितनी शक्कर ले आऊँ? माँ ने कहा, एक पाव ही काफी है। एक पाव शक्कर ले आ। बाबा फरीद परमात्मा के ध्यान में ऐसे बैठे कि शक्कर लाना ही भूल गये। और सारी रात बैठे ही रह गये। माँ ने भी उन्हें ध्यान से उठाना उचित न समझा और दरवाज़ा बन्द करके सो गई। फरीद जी सारी रात बैठे रहे सुबह हुई माँ ने दरवाज़ा खोलना चाहा दरवाज़ा खुले ही नहीं। दरवाज़ा बाहर की तरफ खुलता था। बाहर आँगन शक्कर से भरा पड़ा था और शक्कर दरवाज़े की झीरी में से कमरे में आने लगी थी। कठिनता से दरवाज़ा खोला। माँ ने देखा आँगन सारा ही शक्कर से भरा पड़ा है। बाबा फरीद जी समाधी से उठे तो माँ ने कहा मैने तो एक पाव शक्कर लाने को कहा था, इतनी सारी शक्कर क्या करनी थी। बाबा फरीद जी ने जवाब दिया माँ मैने तो अल्लाह से, परमात्मा से पाव के लिये ही कहा था, लेकिन मैं क्या करूँ भगवान का पाव ही बहुत बड़ा है। उसने तो अपने हिसाब से पाव ही दी होगी। परमात्मा का हम जीवों के साथ इतना प्यार है वह हमारी हर माँग को पूरा करता है इसलिये ये कहा है कि माता से हरि सौ गुणा। आगे वर्णन करते हैं। 
हरि से गुरु सौ बार।
ईश्वर के प्यार से सतगुरु का प्रेम अपने शिष्य से, प्रिय सेवक से, सौ गुणा अधिक होता है। सतगुरु का शिष्य से आत्मिक नाता है। सतगुरु शिष्य का आत्मिक पिता भी है माता भी है स्वयं ईश्वर भी और सतगुरु भी। सतगुरु में चारों रूप समाये हुये हैं। मात पिता सतगुरु मेरे शरण गहूं किसकी। गुरू बिन और न दूसरा आस करूँ जिसकी। सतगुरु पिता की तरह पालक और माता की तरह शिष्य की हर गल्तियों को नज़र अन्दाज़ करता है। इसलिये उन्हें सबसे अधिक प्रेम करने वाला कहा गया है। सतगुरु करूणा और प्रेम का स्वरूप हैं। सतगुरु को ईश्वर से सौ गुणा अधिक प्यार करने वाला इसलिये कहा है ईश्वर ने जीव की हर इच्छा को पूरा करना है चाहे वह उचित है या अनुचित। जीव की इच्छा चाहे माया की दलदल में फँसाने वाली है चाहे चौरासी में ले जाने वाली है या उसे नरक में ले जाने वाली है या उसे स्वर्ग तक पहुँचाने वाली है उसे ईश्वर ने पूरा करना है। उसे आप की अच्छी या बुरी माँग से कोई सरोकार नहीं। जो माँगोगे मिलेगा। क्योंकि वह हमारी स्वतन्त्रता में रूकावट नहीं डालता भले ही जीव कितना दुःखी और अशान्त हो, लेकिन सतगुरु का ह्मदय मक्खन से कोमल होता है।
श्रीरामायण में वर्णन हैः-      
         सन्त ह्मदय नवनीत समाना। कहा कविन्ह पर कहई न जाना।
         निज  प्रताप  द्रवहिं नवनीता। परहित द्रÏव्ह सो सन्त पुनीता।।
सतगुरु का ह्मदय मक्खन से भी कोमल होता है। मक्खन तो जब स्वयं को
सेक (गर्मी) पहुँचता है तो वह पिघलता है। लेकिन सन्तों का ह्मदय दूसरों के दुःख को देखकर  पिघल जाता है।

शनिवार, 19 मार्च 2016

दादूदयाल जी को गुरु ने चिताया


सन्तमहापुरुष जीव को जगायें तभी जीव जाग सकता है क्योंकि सारा संसार तो स्वंय सो रहा है सोया हआ किसी सोये को कैसे जगा सकता है? जागा हुआ ही सोये को जगा सकता है। सन्त महापुरुष जागे हुये होते हैं वे ही जीवों को जगा सकते हैं और जगाते हैं आवाज़ लगाते हैं।जो उनकी आवाज़ को सुनकर जाग जाते हैं वो अपना काम बना लेते हैं।
    सन्त दादू दयाल जी के जीवन गाथा में एक प्रसंग मिलता है जब सन्त दादू दयाल जी दूकान का कार्य करते थे एक बार उनके श्री गुरुमहाराज जी दूकान पर आये बाहर से आवाज़ लगाई।दादू।श्री दादूदयाल जी अपने बही खाते में व्यस्त थे।वर्षा हो रही थी वर्षा की आवाज़ की वजह से कुछ कार्य में व्यस्त रहने के कारण गुरुदेव द्वारा दी गई आवाज़ों को श्री दादूदयाल जी ने न सुना। कुछ देर गुरुदेव को इन्तज़ार करते बीत गई तो दादू दयाल जी ने थोड़ी देर बाद निगाह उठाई तो सामने गुरुदेव को पानी में भींगते हुए दुकान के बाहर खड़े पाया तो एकदम उठे दौड़कर दण्डवत वन्दना की। प्रार्थना करके अन्दर ले आये और क्षमा माँगने लगे।विनय की प्रभो आप अन्दर क्यों न आ गये?और न ही आवाज़ लगाई।आपको बाहर इन्तज़ार करना पड़ा आपको कष्ट हुआ इसके लिये क्षमा कर देना। गुरुदेव ने कहा- दादू।मुझे तो थोड़ी देर इन्तज़ार करनी पड़ी है और जो ईश्वर तेरी कईजन्मों से इन्तज़ार कर रहा है कि कब दादू जागे और मेरे पास आये।उस इन्तज़ार का क्या होगा? कहते हैं उसी समय सन्त दादूदयाल जी दुकान का कार्य छोड़कर प्रभु भजन भक्ति में लीन हो गये।जाग गये।सतपुरुष ही अपनी दया से जीवों को जगाते हैं वे जीव आप जैसे सौभाग्यशाली है जो महापुरुषों की शरण में आ गये हैं उनके सतसंग द्वारा उनके वचनों द्वारा जो जाग करके अपने निजी कार्य आत्मा के कल्याण में लग गये हैं और अपना जीवन सफल बना रहे हैं।
     हमारा सबका कर्तव्य है कि महापुरुषों के वचनों के अनुसार जो हमारे जीव कल्याण के लिये ये साधन बनाये हैं उनपर चलते हुए मोह की नींद को त्याग  कर जागकर अपना काम जो आत्म  कल्याण का निजी कार्य है श्री आरती पूजा सतसंग सेवा सुमरिण और भजन ध्यान करते हुये अपने जीवन को सफल बनाना है और परलोक भी सँवारना है।

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

मौत को सदा याद रखो


एक युवक एक सन्त जी के पास आता था।एक दिन उसने उनसे प्रश्न किया कि आपका जीवन ऐसा निर्मल है आपके जीवन की धारा ऐसी निर्दोष है कि कहीं कोई मलिनता नहीं दिखाई देती।आपका जीवन इतना पवित्र है, आपके जीवन में इतनी सात्विकता है इतनी शान्ति है लेकिन मेरा मन में यह प्रश्न उठता है कि कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर तो नहीं, कहीं ऐसा तो नहीं कि भीतर मन में विकार भी चलते हों मन में वासनायें भी चलती हों भीतर पाप भी चलता हो भीतर अपिवत्रता, बुरार्इंया हों भीतरअन्धकार हो,अशान्ति हो,चिन्ता हो ऊपर से आपने सब व्यवस्था कर रखी हो। क्योकि मुझे भरोसा नहीं आता कि अदमी इतना शुद्ध कैसे हो सकता है मैने आपको सब तरफ से देखा और परखा है कहीं कोई भूल दिखाई नहीं पड़ती। हो सकता है मेरी खोज की सामथ्र्य आपकी छिपाने की सामथ्र्य से कम होगी ऐसा सन्देह मन में होता है कि आप में कहीं न कहीं भूल होनी चाहिए।
       सन्त जी ने कहा कि तुम्हारा प्रश्न का उत्तर तो मैं बाद में दूँगा। कई दिन से एक बात मैं तुझे कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाता था। वह ये कि कई दफे तेरा हाथ पर नज़र गई लेकिन में सोचता था अभी तो देर हैअभी क्यों तुझे मरने से पहले मार देना। लेकिन अब देर नहीं है अब सत्य को छिपाना उचित नहीं है। कल सुबह सूरज उगने के साथ ही तेरा अन्त हो जायेगा। इधर सूरज उगेगा, उधर तेरा सूरज डूब जायेगा। तेरी मौत की घड़ी करीब आ गई है।यह हमारा तुम्हारा आखरी मिलन है। अब मै तुझे कह के निश्चिन्त हुआ। तुझसे कह के मेरा बोझ हलका हो गया।अब तू पूछ क्या पूछना है?वह युवक प्रश्न पूछना भूल गया। जब अपनी मौत आ गई तो किस में दोष हैं किसमें दोष नहीं हैं किसको क्या प्रयोजन है? वह उठकर खड़ा हो गया उसने कहा कि मुझे अभी कोई प्रश्न नहीं सूझता।मुझे अब घर जाने दें। सन्त ने कहा।रूको भी इतनी जल्दी क्या है। कल सुबह कोअभी काफी देर है अभी तो दिन पड़ा है रात पड़ी है चौबीस घन्टे लगेंगे इतनी घबड़ाने की कोई ज़रूरत नहीं हैअपना प्रश्न तो पूछते जाओ फिर मैं उत्तर दे न पाऊंगा। क्योंकि कल तुम विदा हो जाओगे। युवक ने कहा रखो अपना उत्तर अपने पास मुझे कोई प्रश्न नहीं पूछना मुझे घर जाने दो।हाथ पैर उसके काँपने लगे। आया था  तो शरीर में  बल था जवानी थी लेकिन लौटते समय दीवार का सहारा लेकर चलने लगा।अचानक स्वास्थ्य खो गया।घर जाकर बिस्तर पर लग गया घर के लोगों ने कहा क्या हुआ है आज?कोई बिमारी है, कोई दुःख है कोई पीड़ा है,कोई चिन्ता है? उस युवक ने कहा न कोई बिमारी है न कोई दुःख लेकिन सब गया चिन्ता है भीतर एक कँपकपी है कल मर जाना है फकीर ने कहा है कि उम्र की रेखा कट गई है। घर के लोग रोने लगे। मोहल्ले पड़ोस के लोग एकत्र हो गये। वह युवक बुझी बुझी हालत में था। अब गया तब गया। तभी फकीर ने द्वार पर दस्तक दी कहा रोओ मत। मुझे भीतर आने दो।चुप हो जाओ।उस युवक को हिलाया कहाआँखें खोल उसने आँखें खोलीं। फकीर ने कहा तेरे सवाल का जवाब देने आया हूँ युवक ने कहा जवाब माँगता कौन है?फकीर ने कहा जो मैने यह तेरे हाथ की रेखा की बात कही है वह तेरा सवाल का जवाब है अभी तेरी मौत आई नहीं है। वह युवक यह सुनकर उठकर बैठ गया-तो मौत नहीं आ रही है ?फकीर ने कहा यह मज़ाक था सिर्फयह बताने को कि अगर मौत आती है तो आदमी के जीवन में पाप खो जाता है।चौबीस घन्टे में कोई पाप किया? किसी को दुःख पहुँचाया?किसी से झगड़ा किया?उस युवक ने कहा-दुःख की बात करते हैं। दुश्मनों से क्षमा माँग ली। सिवाय प्रार्थना के इन चौबीस घन्टों में कुछ नहीं किया। फकीर ने कहा जो पवित्रता मेरे जीवन में दिखाई देती है वह मौत के बोध के कारण है। तुझे चौबीस घन्टे बाद मौत दिखाई पड़ी मुझेचौबीस साल बाद दिखाई पड़ती है इससे क्या फर्क पड़ता है मौत सत्तर दिन बाद आयेगी कि सत्तर साल बाद आयेगी। जो आ रही है वहआ ही गई है।इस बोध ने मेरे जीवन को बदल दिया है।
मृत्यु का बोध जीवन को रूपान्तरित करता है जीवन को पुष्य कीगरिमा से भरता है जीवन को पवित्रता की सुवास से भरता है जीवन को पँख देता हैपरलोक जाने के लिये परमात्मा की खोज कीआकाँक्षा जगाता है।

गुरुवार, 17 मार्च 2016

सिकन्दर का अमृत कुण्ड तक पहुँचना


     सिकंदर उस जल की तलाश में था जिसे पीने से लोग अमर हो जाते हैं। बड़ी प्रसिद्ध कहानी है उसके सम्बन्ध में। अमृत की तलाश में था। कहते हैं कि दुनियाँ भर को जीतने का उसने जो आयोजन किया,द्म वह भी अमृत की तलाश के लिए। और कहानी है कि आखिर उसने वह जगह पा ली। वह उस गुफा में प्रवेश कर गया जहाँ अमृत का झरना है। आनन्दित हो गया।जन्मों जन्मों की जीवन की आकांक्षा की तृप्ति का क्षण आ गया। सामने  कल-कल नाद करता हुआ झरना है,इसी गुफा की तलाश थी। झुका ही था कि अंजलि में भर ले अमृत को और पी जाए, अमर हो जाए, कि एक कौवा बैठा हुआ था गुफा के भीतर। वह ज़ोर से बोला, ""ठहर,रुक। यह भूल मत करना।''सिकंदर ने कौवे की तरफ देखा। बड़ी दुर्गति की अवस्था में था कौवा। पहचानना मुश्किल था कि कौवा है, पंख झड़ गये थे, आँखें अन्धी हो गयीं थीं। ऐसा जीर्ण-शीर्ण उसने कौवा ही नहीं देखा था। बस, कंकाल था। सिकंदर ने पूछा रोकने का कारण? और रोकने वाला तू कौन? कौवे ने कहा, मेरी कहानी सुन लो। मैं भी अमृत की तलाश में था और यह गुफा मुझे भी मिल गयी थी, और मैने यह अमृत पी लिया। और अब मैं मर नहीं सकता। और अब मैं मरना चाहता हूँ। देखो मेरी हालत। आँखेंअन्धी हो गयी हैं, देह ज़राजीर्ण हो गयी है, पंख झड़ गये हैं, उड़ नहीं सकता, पैर गिर गये हैं, गल गये है, लेकिन मर नहीं सकता। एक बार मेरी तरफ देख लो। फिर तुम्हारी मर्ज़ी हो, तो अमृत पी लो। लेकिन अब में चिल्ला रहा हूं, चीख रहा हूं, कि कोई मुझे मार डाले, लेकिन मारा नहीं जा सकता। जी भी नहीं सकता क्योंकि जीने के सब उपकरण क्षीण हुए जा रहे हैं और मर भी नहीं सकता क्योंकि यह अमृत दिक्कत हो गया है। और अब प्रार्थना एक ही कर रहा हूँ परमात्मा से कि मुझे मार डालों, मुझे मार डालों। बस एक ही आकाँक्षा है किसी तरह मर जाऊं अब मर नहीं सकता। रूक जाओ, सोच लो एक दफा, फिर तुम्हारी मर्ज़ी।और कहते है सिकंदर सोचता रहा, और चुपचाप गुफा से बाहर वापिस लौट आया। उसने अमृत पिया नहीं।
     कौव्वा कौन था?मन था जिसके कहने पर आकर उसने गुरुदेव के वचनों पर विश्वास न रहा और मन रुपी कौव्वे के बहकावे में आकर अमृत पीने से वंचित रह गया। और दूसरी बात इस कथा में ये कि, तुम
जो भी चाहते हो अगर वह पूरा हो जाए तो भी तुम मुश्किल में पड़ोगे अगर वह पूरा न हो तो तुम मुश्किल में पड़ते हो। तुम मरना नहीं चाहते। अगर यह हो जाए, गुफा तुम्हें मिल जाए और तुम अमृत पी लो, तो तुम मुश्किल में पड़ोंगे। क्योंकि तब तुम पाओगे अब जी कर क्या करें?और जब जीवन तुम्हारे हाथ में था, जब तुम जी सकते थे, तब तुम आकांक्षा करते थे कि अमृत मिल जाए क्योंकि जब मृत्यु है, तो जियें कैसे?न मृत्यु के साथ जी सकते हो,न अमृत के साथ जी सकते हो। न गरीबी में जी सकते हो,न अमीरी में जी सकते हो। न नर्क में,न स्वर्ग में।और फिर भी तुम अपने को बुद्धिमान समझते हो।आदमी बिल्कुल बद्धिहीन है वह जो भी माँगता है उसी के जाल में भटकता है अगर पूरा हो जाता है, तो मुश्किल खड़ी हो जाती है।पूरा नहीं होता, तो मुश्किल खड़ी होती है। तुम सोच कर देखो, अतीत में लौटो अपनी ज़िन्दगी का एक दफा लेखा-जोखा करो। तुमने जो माँगा, उसमें से कुछ पूरा हुआ है उससे तुम्हें सुख मिला?तुमने जो माँगा उसमें से कुछ पूरा नहीं हुआ है, उससे तुम्हें सुख मिला?तुम दोनों हालत में दुःख पा रहे हो। जो माँगा है उससे उलझ गये, जो मिला है उससे उलझ गये जो नहीं मिला उससे उलझे हुए हो। बुद्धमानी क्या है? बुद्धिमत्ता का लक्षण क्या है? उस सूत्र को माँग लेना जिसे माँग लेने से फिर दुःख नहीं होता। इसलिए धार्मिक व्यक्ति के अतिरिक्त कोई बुद्धिमान नहीं है। क्योंकि परमात्मा को माँगने वाला ही पछताता नहीं। बाकी तुम जो भी माँगोगे, पछताओगे। इसे तुम गाँठ बाँध कर रख लो तुम जो भी माँगोगे,पछताओगे। सिर्फ परमात्मा को माँगने वाला कभी नहीं पछताता।
उससे कम में काम भी नहीं चलेगा। वही जीवन का गंतव्य है।

बुधवार, 16 मार्च 2016

मर्दाना बकरा बना दिया गया


एक समय का वृत्तान्त है कि जब मर्दाना श्री गुरुनानक साहिब के साथ जा रहा था तो मार्ग में एक सजधज का नगर देखकर उसकी चाह हुई कि मैं घूम फिर कर इस की शोभा देख लूँ उसने श्री गुरुमहाराज जी से विनय की-परन्तु उऩ्होंने यह कह कर रोक दिया कि,""ऐ मर्दाना! इस बाहर की बनावट को न देख यह जादूगरों की नगरी है।परन्तु मर्दाने के मन ने नहीं माना उसने पुनः अनुरोध किया कि भगवन!मुझे आप थोड़े समय के लिये आज्ञा दे दें।मैं शीघ्र ही वापिस लौट आऊँगा। गुरुमहाराज जी ने कहा जैसी तुम्हारी इच्छा। (नोट-) हम भी कई अवसरों पर ऐसी आज्ञा लेते हैं कि अपना निर्णय  तो पहले  सुना देते हैं। परन्तु मुख से कहते हैं कि "' गुरु महाराज जी!आज्ञा दीजिये- यह आज्ञा नहीं होती।'' मर्दाना नगरी में घूमने चला गया। पहली ही गली में जादूगर ने उसे गले में धागा बाँध कर भेडू बना दियाऔर खूंटे से बाँध दिया। मर्दाने को कुछ देर तक लौटे हुए न देखकर श्री गुरुनानकदेव जी स्वयं नगर में प्रविष्ट हुए।मार्ग में मर्दाने ने गुरु जी को देखा और अपनी बोली में  चिल्लाया-गुरुमहाराज जी जान गये कि यही मर्दाना है। उन्होने उसके गले से जादू का धागा खोल कर उसे फिर से मर्दाना बना दिया। मर्दाना उनके चरणों में गिर पड़ा और लगा पश्चाताप करने और क्षमा माँगने।
     ऐसे ही यह संसार एक इन्द्रजाल का देश है। सन्त सतगुरु तो बार बार पुकार कर कहते हैं कि इसमें कमलपत्र की तरह ऊपर ऊपर रहो। परन्तु जो मनुष्य उनके वचनों की अवहेलना करके अपनी इच्छानुसार जगत के भीतर प्रवेश कर जाता है उसके गले में आशाओं के पाश पड़ जाते हैं और वह नर से पशु बन जाता है भगवान को भूल कर मैं मैं और मेरी मेरी करने लगता है। जिससे काल और माया का फंदा उसके गले में पड़ा रहता हैऔर जीव सदा दुःखी रहता है।सच्चे सुख से वंचित हो जाता है। जो सतपुरुषों की शरण में आ जाते हैं उनकी आज्ञानुसार जीवन की सब कार्यवाही करते हैं वे काल और माया के बन्धन से मुक्त होकर सच्चे सुख को प्राप्त करके अपना जीवन सफल कर जाते हैं।

मंगलवार, 15 मार्च 2016

राजकुमार नौकर का दीवाना हो गया


एक राजकुमार अपने एक नौकर के प्यार में ऐसा दीवाना हो गया कि वह नौकर के संकेतों पर नाचने लगा। नौकर जो कुछ भी कहता, वह वही कुछ करता। नौकर से अपने काम लेने की बजाय वह उलटा उसी के काम करने लगा।यह बात जब राजा को ज्ञातहुई तो उसने राजकुमार को बुलाकर समझाया,परन्तु राजकुमार पर राजा की बातों का ज़रा भी असर न हुआ,अपितु वह कहने लगा-""पिता जी! हम दोनों में कोई भेद नहीं, हम दोनों एक जान हैं।''यह उत्तर सुनकर राजा बड़ा परेशान हुआ और सोच में पड़ गया कि राजकुमार को कैसे समझाया जाये?अन्ततः राजा ने मंत्री को बुलवायाऔर उससे कहा कि राजकुमार को इस विषय में किसी युक्ति से समझाये। मंत्री ने कहा-""राजा साहिब!मैं पूरा यत्न करूँगा।''एक दिन मंत्री ने राजकुमार से कहा-""पड़ोसी राजा का आपकी आयु का एक लड़का है। उसने आपको निमंत्रण भेजा है।राजा साहिब का विचार है किआप उसका निमंत्रण स्वीकार कर दो-चार दिन के लिए वहाँ हो आयें।'' राजकुमार ने मान लिया और मंत्री के साथ दूसरे दिन पड़ोसी राजकुमार से मिलने चला गया। वहाँ पहुँचने पर उसका भव्य स्वागतऔर खूब आदर-सत्कार हुआ।दोनों राजकुमार दिनभर खूब घूमते फिरते। जिधर से भी वे निकलते, सभी लोग हाथ जोड़कर खड़े हो जाते और दोनों की जय-जयकार करते। नौकर-चाकर हर पल उनकी सेवा-टहल में लगे रहते।उस राजा के लड़के काऔरअपना ऐसा मान-सम्मान देखकर राजकुमार की आँखें खुलीं। मंत्री ने उचित अवसर देखकर राजकुमार से कहा-""आपने अपनी हस्ती को पहचाना?''आप भी इसकी तरह ही राजा के पुत्र हैं।'' राजकुमार को अपनी हैसियत और श्रेष्ठता का बोध हुआ और वह उस दिन से अपने को राजकुमार समझने लगा और उसने नौकर का मोह छोड़ दिया।
इसी तरह ही यह जीव भी वास्तव मेंआत्मा है और परमपिता परमात्मा की सन्तान है,परन्तु भूल से वह स्वयं को शरीर समझ बैठा है। मनुष्य शरीर तो उसे इसलिए प्राप्त हुआ है कि वह इससे अपना वास्तविक काम ले ले। जीवात्मा स्वामी है जबकि शरीर नौकर है। आत्मा की हस्र्ती और उस का दर्ज़ा तो शरीर से बहुत ऊँचा है।

सोमवार, 14 मार्च 2016

सन्त शाही स्नानघर में जाने लगे तो


सन्त इब्रााहीम अधम अपने शिष्यों को सदैव मन को पवित्र निर्मल करने का उपदेश किया करते थे। एकदिन वे कुछ शिष्यों के साथ एक नगर में पहुँचेऔर वहां के प्रसिद्ध स्नानागार की ओर रुख किया।प्राचीन समय में इन स्नानागारों में बड़े बड़े धनाढय व्यक्ति ही स्नान आदि किया करते थे, साधारण मनुष्य की वहां पहुँच नहीं थी। सन्तइब्रााहीमअधम के कपड़े उस समय बहुत मैले थे। जब वे स्नानागार में प्रवेश करने लगे,तो द्वार पर खड़े चौकीदार ने उन्हें रोककर कहा-ऐ गन्देआदमी!अन्दर कहाँ जाताहै?
     सन्त इब्रााहीम अधम ने शिष्यों को सम्बोधित करते हुये कहा-देखो!जब इस स्नानागार में भी मैले मनुष्य को प्रवेश करने की आज्ञा नहीं है,तो मालिक का धाम, जो अति पावन है, वहां मनुष्य की पहुँच मलीन मन से कैसे हो सकती है? उस पावन दरबार में तो केवल वही पहुँच सकता है,जिसका मन पवित्र-निर्मल है,क्योंकि मालिक को पवित्र एवं निर्मल मन वाले व्यक्ति ही प्रिय हैं। उनके उस उपदेश का शिष्यों के ह्मदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। तब तक चौकीदार को भी ज्ञात हो चुका था। कि जिनको उसने रोका है, वे प्रसिद्ध सन्त इब्रााहीम अधम हैं। उसने उनके चरणों में गिरकर अपनी भूल के लिये क्षमा माँगी।
     अभिप्राय यह कि प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये मन का पवित्र निर्मल होना अत्यावश्यक है और यह केवल सेवा भक्ति तथा नाम सुमिरण से ही सम्भव है।बिना इसके मन की मलीनता धुल नहीं सकती। धन्य हैं वे गुरुमुखआत्मायें जो सन्त सत्पुरुषों की चरण शरण ग्रहण कर सत्पुरुषों द्वारा निर्धारित किये गये भक्ति के नियमों का परिपालन करके मन को पवित्र, निर्मल एवं शुद्ध करने में संलग्न हैं। उनका जीवन ही वस्तुतः सफल, सकार्थ और सराहनीय है।

रविवार, 13 मार्च 2016

पड़ोसी पर करूणा करो जिससे झगड़ा है


बु
द्ध एक गंव में रूके हैं और एक आदमी को उन्होने ध्यान की दीक्षा दी है। उससे कहा कि करूणा का पहला सूत्र कि ध्यान के लिए बैठे तो समस्त जगत के प्रति मेरे मन में करूणा का भाव भर जाए, इससे शुरु करना।उसने कहा और सब तो ठीक है, सिर्फ मेरे पड़ोसी को छुड़वा दें, उसके प्रति करूणा करना बहुत मुश्किल है।बहुत दुष्ट हैऔर बहुत सता रखा है उसने और मुकदमा भी चल रहा है।और झगड़ा-झांसा भी हैऔर गुंडे भी उसने इकट्ठे लगा रखे हैं, मुझे भी लगाने पड़े हैं। सारे जगत के प्रति करूणा में मुझे ज़रा भी दिक्कत नहीं है,यह पड़ोसी भर को छोड़ दें, क्या इतने से कोई दिक्कत आएगी ध्यान में? सिर्फ एक पड़ोसी।
     बुद्ध ने कहा, सारे जगत को छोड़,सिर्फ एक पड़ोसी पर ही करूणा करना काफी होगा। क्योंकि दोष जो भरा है वह उस पड़ोसी के लिए है, सारे जगत से कोई लेना-देना नहीं है।करूणा,वह दोष का परिहार करेगी जो हमारे चित्त में इकट्ठे होते हैं।दूसरा बुद्ध ने कहा, मैत्री। समस्त जगत के प्रति मैत्री का भाव। समस्त जगत में आदमी ही नहीं,सब कुछ।तीसरा बुद्ध ने कहा है,मुदिता।प्रफुल्लता का भाव,प्रसन्नता का भाव।ध्यान रखना कि जब हम प्रफुल्लित होते हैं तब जगत के प्रति हमारे भीतर से कोई भी दोष नहीं बहता।और जब हम दुःखी होते हैं,हम सारे जगत को दुःखी करने का आयोजन सोचने लगते हैं। दुःखी आदमी सारे जगत को दुःखी देखना चहता है। उससे ही उसको सुख मिलता है। और कोई सुख नहीं है उनका। जब तक आप उनसे ज्यादा दुःखी न हों, तब तक वह सुखी नहीं हो पाते। दुःखी आदमी को जब चारों तरफ दुःख दिखायी पड़ता है, तब वह बड़ी निश्चिन्तता से बैठ जाता है।बुद्ध ने कहा है तीसरा,मुदिता। प्रफुल्लता से बैठना। ह्मदय को प्रफुल्लता से भरना। और चौथा बुद्ध ने कहा है, उपेक्षा। कुछ भी हो जाए-अच्छा हो कि बुरा,फल मिले कि न मिले, ध्यान लगे कि न लगे, ईश्वर से मिलन हो कि न हो,असफलता आए, सफलता आए,श्रेय,अश्रेय कुछ भी हो, उपेक्षा रखना। दोनों में समतुल रहना। दोनों में चुनाव मत करना। ये चार को बुद्ध ने कहा है। इनसे ह्मदय के दोष अलग हो जाएंगे। ध्यान इनके बाद सुगम बात होगी, सहज बात होगी।

शनिवार, 12 मार्च 2016

वासना

सिकंदर अफलातून का शिष्य था।अफलातून से वह दर्शन सीखता था। लेकिन सिकंदर था सम्राटऔर अफलातून एक गरीब दार्शनिक था। एक दिन सिकंदर ने उससेकहा कि तुम घोड़ा बन जाओ,और मैं तुम्हारे ऊपर सवारी करना चाहता हूँ। तो अफलातून को उसने घोड़ा बना दिया, जैसे बच्चे बना लेते हैंऔरअफलातून पर सवारी की।उसके दस-पांच दरबारी जो मौजूद थे, उनको उसने कहा देखो ज्ञानी की दशा। यह ज्ञानी मुझे सिखाने चला है।तो अफलातून ने कहा कि मेरी ही वासनाओं की वजह से यह मेरी दशा है,जो तुम्हारा घोड़ा बना हूँ। मैं तुम्हें ज्ञान सिखाकर भी सौदा ही कर रहा हूँ, उससे भी मैं कुछ पाना ही चाहता हूँ। वह पाने की चाह ही इस हालत में ले आयी कि तुम मेरे सिर पर बैठ गये हो। मेरी चाह ने ही मुझे घोड़ा बना दिया, तुमने नहीं। तुम क्या कर सकते हो? मेरीवासना ने ही मुझे नीचे गिराया है,तुम मुझे नीचे नहीं गिरा सकते हो।
   इस जगत में जो भीआपकी दशा है,वह आपकी ही वासना के कारण है। वासना का अर्थ है, जो मिला है उससे हम तृप्त नहीं। जो है उससे हम तृप्त नहीं। हम अस्तित्व से कहते हैं कि इतना काफी नहीं,यह और चाहिए यह और चाहिए। अस्तित्व से हमारी मांग है कि हम तृप्त होंगे तब, जब यह सब हो जाये। अस्तित्व ने जो दिया है, उससे हम राजी नहीं।और अस्तित्व ने सब दिया है। जीवन दिया है और जीवन केअनूठे रहस्य दिये हैं और जीवन का परमानन्द छिपा रखा है भीतर आपके। लेकिन वह खुलेगा तब जब आप राजी हो जायें अस्तित्व से।आपको तो उसे देखने की फुरसत ही नहीं कि अस्तित्व ने क्या दिया। आप तो माँग
किये जा रहे हैं, कि ये दो वो दो, इस देने की माँग में वह छिप ही गया है,जो दिया ही हुआ है और आपको पता नहीं, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है।जो आपको मिला ही हुआ है, उसके सामने जो आप मांग रहे हैं वह कुछ भी नहीं।

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

जा को कछु न चाहिये सोई शहनशाह


एक निर्धन परिवार के घर एक लूला-लंगड़ा लड़का पैदा हुआ। उसके पिता ने एक दिन यह सोचकर कि यह लड़का तो हम पर सदैव बोझ बना रहेगा, उसे एक निर्जन स्थान पर छोड़ दिया। थोड़ी देर के पश्चात् कुछ सन्त महात्मा भगवान का भजन-कीर्तन करते हुए उधरआ निकले। लड़के के रोने की आवाज़ सुनकर उनका ध्यान उधर चला गया। क्या देखते हैं कि एक लूला-लंगड़ा लड़का रो रहा है। उसे इस निर्जन स्थान में देखकर वे समझ गए कि इसे कोई यहाँ जानबूझ कर छोड़ गया है। उनका ह्मदय दया से भर गया और वे उसे उठाकर अपने आश्रम पर ले गये। सन्तों की शुभ संगति तथा सदुपदेशों से उसके ह्मदय पर बचपन में ही भक्ति का ऐसा गहरा रंग चढ़ गया कि नाम, भक्ति तथा प्रभु प्रेम के अतिरिक्त उसकेअन्दरअन्य कोई कामना ही शेष न रही। बालक जानकर जब कभी लोग उससे पूछते कि तुम्हारे मनमें यदि किसी वस्तु की इच्छा हो तो बताओ,तो वह उन्हें यही उत्तर देता कि मुझे कुछ नहीं चाहिये।
     एक बार भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद जी उधरआ निकले। लोगों के मुख से उस लड़के की प्रशंसा सुनकर कि वह सर्वथा कामना रहित हो गया है, नारद जी के मन में उसे देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। उस लड़के से मिलने पर नारद जी उसके भक्तिपूर्ण विचारों से अत्यन्त प्रभावित हुए और उसे वरदान माँगने को कहा। लड़के ने सदैव की तरह उत्तर दिया-मुझे किसी वस्तु की इच्छा नहीं है। नारद जी ने बार बार आग्रह किया, परन्तु लड़के ने हर बार यही उत्तर दिया कि मुझे किसी वस्तु की इच्छा नहीं है। नारद जी ने देवलोक में जाकर सबके सम्मुख उस लड़के की भक्ति एवं निष्कामता की अत्यन्त  सराहना की। सुनकर इन्द्र को भी बड़ा आश्चर्य हुआ। वह देवताओं सहित वहाँ आया और बोला,मैं इन्द्र हूँऔर ये सब देवगण हैं। हम तेरे शरीर भी सर्वांग-सम्पन्न कर सकते है,ऋद्धि सिद्धि भी दे सकते हैं। तथा इनके अतिरिक्त यदि कुछ और चाहो, तो वह भी दे सकते हैं। आज तुम जो चाहो हमसे मांग लो,हम तुमसे अति प्रसन्न हैं।लड़के ने अपना वही उत्तर दोहरा दिया-मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।
     इन्द्र ने कहा- कुछ न कुछ तो तुम्हें मांगना ही पड़ेगा। लड़के ने उत्तर दिया-यदि आप लोगों की यही इच्छा है कि मैं कुछ न कुछ आप लोगों से अवश्य मांगूँ,तो फिर मैं यह माँगता हूँ कि आप लोग पुनः मुझे दर्शन देने की कृपा न करें।यह उत्तर सुनकर वे समझ गये कि नाम भक्ति के प्रताप से लड़के का ह्मदय पूरी तरह कामना रहित हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि वे उसका शरीर भी ठीक कर गये और उसे ऋद्धियाँ सिद्धियाँ भी दे गये।
    यह सन्तों की विशेषता है कि वे मनुष्य को भक्ति की दात बख्शकर उसे (अकाम) बना देते हैं। उन जैसा जीव का हितैषी तथा परोपकारी संसार में अन्य नहीं है।

गुरुवार, 10 मार्च 2016

रुपये का कुछ दे दो


एक दिन श्री वचन हुये कि एक व्यक्ति रुपया हाथ में लिये दुकान दुकान पर कहता फिरता था कि ""रुपये का कुछ दे दो।''प्रत्येक दुकानदार अपनी अपनी वस्तुओं के विषय में पूछता कि यह वस्तु दे दें अथवा वह दे दें,परन्तु वह यही कहता था कि मुझे "'कुछ दे दो''। जब दिन भर फिरते फिराते हो गया तो किसी दुकानदार ने बुलाकर कहा कि रुपया हम को दो, हम उसके बदले में तुम्हें ""कुछ'' दे देंगे।
     उस दुकानदार ने रुपया ले लिया और दस-बारह तंग मुँह की मिट्टी की हाँडियां भीतर से निकाल लाया जो सब खाली थीं, केवल एक-दो में थोड़े से दाल-कंकर आदि डाले हुये थे। पहले खाली हांडियों को बारी-बारी दिखलाकर पूछा कि देखो इनमें क्या है?वह व्यक्ति उन्हें हिला-हिलाकर देखता और कहता गया कि कुछ नहीं, कुछ नहीं। जब कई बार ऐसा हो गया तो दाल आदि वाली हांडी दिखलाकर पूछा कि देखो इसमें क्या है? उसने उत्तर दिया कि इसमे तो ""कुछ'' है।दुकानदार ने वही हांडी उस ग्राहक को देते हुये कहा कि जब इसमें ""कुछ'' है तो बस ले जाइये। ग्राहक ने जब उस हाँडी को लेकर खूब ध्यान से देखा तो ज्ञात हुआ कि उसमें दाल-कंकर आदि कुछ वस्तुयें पड़ी हुई हैं। यह देखकर उसने उस हांडी को पटक दिया और कहा कि वास्तव में यह कुछ भी कुछ नहीं।
     यह कथा सुनाकर श्री परमहंस दयाल जी ने फरमाया कि जो लोग भजन-भक्ति ,तपस्या एवं त्याग,उद्यम और पुरुषार्थ करते हैं और उनके प्रतिकार स्वरुप कुछ प्राप्त करने की कामना करते हैं, तो स्वाभाविक ही प्रत्येक उद्यमऔर पुरुषार्थ का फल तोअवश्यमेव मिलता ही है,अतः उस फल को पाकर वे लोग समझने लगते हैं कि अब उन्हें कुछ मिल गया है। किन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाये,तो क्या कुछ मिला? यदि किसी प्रकार की सिद्धि शक्ति उसको प्राप्त हो जाती है,तो वे यह समझने लगते हैं कि उनको कुछ मिल गया है परन्तु जब भक्ति-परमार्थ के समुद्र में गोता लगाते हैं,तब उन्हें पता चलता है कि कुछ मिलना भी वास्तव में कुछ नहीं। और यदि सांसारिक मान-सम्मान और जगातिक सुख भोगोंं की प्राप्ति हो गई, तो वे भी चूँकि अनित्य और नश्वर है, इसलिये वे भी कुछ नहीं। किस फकीर ने क्या खूब कहा हैः-
          इशरते-दुनियाँ दो लहज़ा के सिवा कुछ भी नहीं।
          कालिबे-खाकी से जब निकली हवा तो कुछ भी नहीं।।
अर्थात संसार के ऐश्वर्य भोगों को नित्यता प्राप्त नहीं। शरीर से जब आत्मा निकल जाती है,तब मनुष्य से कुछ भी नहीं हो सकता।अतएव मनुष्य को चाहिये कि मालिक की भक्ति निष्काम भाव से करे ताकि उसके दोनों लोक संवर जायें अर्थात यहां भी जीवन सुख से व्यतीत हो और परलोक भी संवर जाये।

बुधवार, 9 मार्च 2016

घर के नौकर मालिक बने


गुरजिएफ कहा करता था कि मैने एक ऐसे घर के सम्बन्ध में सुना है जिसका मालिक कहीं दूर यात्रा पर गया था। बहुत बड़ा भवन था, बहुत नौकर थे। वर्षों बीत गए,मालिक की खबर नहीं मिली।मालिक लौटा भी नहीं,सन्देश भी नहींआया।धीरे-धीरे नौकर यह भूल गए कि कोई मालिक था भी कभी। भूलना भी चाहते हैं नौकर कि कोई मालिक है तो जल्दी भूल गए। फिर कभी कोई यात्री उस महल के बाहर से निकलताऔर कोई नौकर सामने मिल जाता तो वह उससे पूछता कौन है इस भवन का मालिक?नौकर कहता,मैं हूँ इसका मालिक।लेकिन आसपास के लोग बड़ी मुश्किल में पड़े क्योंकि कभी द्वार पर कोई मिलता,कभी द्वार पर कोई और बहुत नौकर थे और हरेक कहता कि मालिक मैं हूँ।
     सारे लोग चिंतित हुए कि कितने मालिक हैं इस भवन के।तब एक दिन सारे गांव के लोग इकट्ठे हुए और उन्होने पता लगाया।सारे घर के नौकर इकट्ठे किए, तो मालूम हूआ वहां कई मालिक थे। अब बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। सब नौकर लड़ने लगे। उन्होने कहा,मालिक हम हैं और जब बात बहुत बढ़ गई तब उसी एक बूढ़े नौकर ने कहा, क्षमा करें, हम व्यर्थ विवाद में पड़े हैं। मालिक घर के बाहर गया है। हम सब नौकर हैं। मालिक लौटा नहीं, बहुत दिन हो गए,हम भूल गए। और अब कोई ज़रूरत भी नहीं रही याद रखने की। शायद वह कभी लौटेगा भी नहीं।फिर मालिक तत्काल विदा हो गए यानी वे तत्काल नौकर हो गये। गुरजिएफ कहा करता था, यह आदमी के चित्त की कहानी है।
     जब तक भीतर की आत्मा जागती नहीं तब तक चित्त का एक-एक टुकड़ा एक-एक नौकर कहता है, मैं हूँ मालिक। जब क्रोध करने वाला टुकड़ा सामने होता है तो वह कहता है, मैं हूँ मालिक।ओर वह मालिक बन जाता है है कुछ देर के लिए, और पूरा शरीर उसके पीछे चलता है। इसी तरह अन्य विकार। मालिक बने हुए हैं। असली मालिक का पता ही नहीं। जब तक असली मालिक न आ जाये तब तक अराजकता रहेगी। इसी तरह मन कई खण्डों में बंटा है जब तक मन सब तरफ से एकत्र नहीं होता एक नही होता सुख प्राप्त नहीं हो सकता।

सोमवार, 7 मार्च 2016

वारिस को बचाने की चिन्ता ही नहीं


एक बार स्वामी रामतीर्थ जी सत्संग की गंगा प्रवाहित करते हुए जापान के विभिन्न नगरों का भ्रमण कर भगवत-प्रेमियों को कृतार्थ कर रहे थे। एक दिन जब वेअपनी मस्ती में कहीं जा रहे थे,तो उन्होने देखा कि एक विशाल भवन से आग की भयंकर लपटें निकल रहीं है।भारी भीड़ जमा है। शोरगुल हो रहा है। मकान का मालिक सेठ घबराया हुआ लोगों की मिन्नतें कर रहा है कि अमुक कमरे में से अमुक सामान निकाल लाओ। आग की लपटों से जूझते हुये कई लोग सेठ का सामान बाहर निकाल रहे हैं।आग की लपटें फैलती जा रही थींऔर सामान निकालना मुश्किल होता जा रहा था। लोग हिम्मत हारने लगे तो सेठ ने गिड़गिड़ा कर कहा
मेरे चार बक्से जिसमें बहुमुल्य सामान है अमुक कमरे से और निकाल लाओ। लोगों ने वे चार बक्से भी जान जोखिम में डालकर निकाल दिये। सेठ की आँखों में चमक सी कौंध गई, वह लोगों आभार प्रकट करने लगा।स्वामी जी के कदम वहीं रुक गए। एकाएक वे ठहाके पर ठहाके लगाते हुये कहने लगे-अचम्भा।अचम्भा।अचम्भा।लोगों को यद्यपि उनका हँसना अच्छा नहीं लगा,परन्तु उन्होंने भारतीय सन्यासियों की अद्भुत लीलाओं का स्मरण कर उनसे पूछा, अचम्भा किस बात का? और आप हँस क्यों रहे हैं?स्वामी जी ने कहा, दौलत के वारिस की याद नहीं केवल दौलत की चिन्ता है।
     इसलिये महापुरुष हमें शिक्षा देते रहते हैं कि शरीर और संसार की चिन्ता के साथ शरीर के स्वामीआत्मा की भी विशेष चिन्ता करनी चाहिये।जिससे कि उस सेठ जैसी स्थिति में पड़कर हँसी का पात्र न बनना पड़े। 

रविवार, 6 मार्च 2016

वारण्ट पत्र



किसी मनुष्य ने घोर तप किया। भगवान ने उस पर प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। उसने वर यह मांगा कि""जब मुझे इस असार संसार से कूच करना हो मुझे एक सप्ताह पूर्व इस का ज्ञान हो जाए।'' भगवान तथास्तु कह कर अन्तर्हित हो गये। वह मनुष्य मृत्यु से निर्भीक और निश्चिन्त होकर संसार के आनन्द लेने लगा।उसे इस बात का स्वप्न में भी विचार न रहा कि यह विश्व विनश्वर है।यहाँ न कोई रहा है और न कोई रहेगा। इस क्षणभंगुर विश्राम शाला से एक न एक दिन हर किसी को जाना है। निदान एक दिन यमदूत उसके सिर पर आ धमका। वह तो नितान्तअसावधान था। मरने की उसे आशंका तक भी न थी। संसार के लोभ में वह इतना ग्रस्त था कि उसे मौत और प्रभु की तनिक भी खबर न रही। परन्तु मरता क्या न करता। चारोंओर से निराश होकर वह यमदूतों के साथ चल खड़ा हुआ। धर्मराज की अदालत में पहुँचते ही उसने प्रश्न किया। श्रीमान मैने तो श्रीमान् से वचन लिया था कि मुझे मरने से एक सप्ताह पूर्व सूचना मिलनी चाहिए।किन्तु क्या कारण है जो मुझे सूचना बिना दिये एकदम से गिरफ्तारी का वारंण्ट जारी किया गया जिसके अनुसार मुझे बन्दी बनाकर यहां लाया गया है। धर्मराज तत्काल अपने दूतों से बोले, क्यों भाई! आप ने इसे सूचित न किया था? उन्होने हाथ बाँधकर निवेदन किया कि प्रभो! हम ने तो इसे कई बार सूचना दी किन्तु यह हरबार आनाकानी करता रहा। अन्ततोगत्वा हमने सरकार के अनुसार इसको बन्दी बनाने का आदेश इसके द्वार पर चिपका दिया। तदनुसार इस अपराधी  को नियत तिथि  व  समय बन्दी करके आपके न्यायाधिकरण में उपस्थित कर दिया है।
     यह सुनते ही वह एकदम चीखा,श्रीमान्!यह एकदम झूठ है। मुझे एक बार भी सूचना नहीं दी गई। मृत्यु के दूतों नेअपनी सत्यता को प्रमाणित करने के लिये सरकारी वकील को खड़ा किया।वकील ने सारा चिट्ठा पढ़कर सुनाया।जिसमें लिखा था कि इसे 1-2-3-4 बार प्रस्थान करने के सन्देश दिये गये किन्तु हर बार यह कहीं अदृश्य हो जाने का विफल प्रयास करता रहा।परन्तु हम इसे खोज कर प्रस्थान काल में इस से पत्र पर हस्ताक्षर करवा लेते थे।उन दिनों यह सुरापान में इतना प्रमत्त रहता था कि हमारी सूचना को एकदम से काट देता था। अन्ततः हमने श्रीआज्ञानुसार जमानत के बिनाआदेश-पत्र दिखाकर इसे बन्दी बना लिया और आपके सन्मुख प्रस्तुत कर दिया।इतना सुनने पर वह एक बार फिर चीख उठा। श्रीमान्! यह मिथ्या कथन है।नितान्त असत्य है। मुझसे कोई भी हस्ताक्षर नहीं कराया गया। नाही कोई आदेश पत्र द्वार पर चिपकाया गया।यमराज ने कड़क करअपने साथियों की ओर फिर देखा क्यों भाई! क्या बात है?धर्मराज का संकेत पाकर सरकारी वकील ने विवाद करना आरम्भ किया।
सरकारी वकील-(अपराधी से) क्यों भाई! तुम्हारे शहर में कोई मृत्यु हुई? बन्दी-ऐसी बातें जो प्रायः प्रतिदिन देखने में आती थीं।परन्तु मैं तो निर्भय था कि मुझे तो एक सप्ताह पूर्व सूचना मिलेगीऔर मैं उन दिनों परलोक सुधार लूँगा।
वकील-तेरे मुहल्ले में कोई मरा?
बन्दी- जी हाँ प्रभो! परन्तु इससे मुझे क्या सरोकार?वैसे तो मेरे मुहल्ले
में, फिर मेरे निकट के सम्बन्धियों में और फिर मेरे अपने ही घर में मृत्यु के आक्रमण हुए परिणाम यह हुआ कि मेरे पिता-दादा उठ गये। प्रत्युत मैं स्वयं ही उन्हें कंधों पर लादकर मरघट तक पहुँचा आया किन्तु मुझे तो सूचना न हुई फिर मेरे द्वार परआदेश-पत्र कहां चिपकाया गया? वकील-क्या इससे तुझे सूचना न मिली?जब मृत्यु के दूतों ने तेरे नगर में, फिर तेरे मुहल्ले में, पुनः तेरे ही घर में ढोल बजाना आरम्भ कर दिये यही तो सूचना थी कि अब तेरी बारी आने वाली है।
          बारी बारी अपने चले पियारे मित्त।।
          तेरी बारी जीयरा,नियरै आवै नित्त।।
          माली आवत देखि कै, कलियाँ करें पुकारि।।
          फूलि फूलि चुनि लिये, काल्हि हमारी बार।।
इससे सपष्ट होता है कि तेरी आँखों पर प्रमाद की पट्टी बँधी हुई थी और तू जीवन के नशे में बेसुध था क्या यह ठीक नहीं है?
अपराधी-यह तो सत्य है परन्तु यह तो सर्वथाअसत्य है कि मेरे दरवाजों पर समर चिपकाया गया। वकील ने अट्टहास करते हुए कहा, अरे! मरने से पहले क्या तुझे कई बीमारियों ने नहीं घेर रखा था? क्या तू आए दिन वैद्यों और डाक्टरों की दवाइयों के अधीन नहीं हुआ था? तेरे माथे पर चिन्ता परेशानी का डेरा नहीं आ गया था?
बन्दी-लज्जा से सिर झुकाये हुए, जी हाँ यह तो सच है।
वकील- फिर तू स्वयं ही बता कि इससे यह सिद्ध न हो गया कि तेरे द्वार पर प्रयाण काल का समन वस्तुतः ही चिपकाया गया था। जीव के नेत्रों से टपटप आँसूँ गिरने लगे।ढाढें मार मार कर रोने लगा,श्रीमान!
मुझपर दया करो, मेरी बड़ी भारी भूल थी। मैने आपके इशारों को नहीं समझा। मेरी आँखों पर असावधानी की पट्टी बँधी रही। तुम्हारे दूत झनझोर झनझोर कर जगाते रहे परन्तु मेरे कानों पर जूँ तक न रींगी। परन्तु प्रभो! अब करुणा करके मुझे कुछ समय दो, जिससे मैं कुछ भजन पूजन कर सकूँ। परन्तु अब वहाँ उसकी सुनने वाला कौन था? धर्मराज के यमदूत उसे किसी तरफ घसीटते हुए ले गये। तभी तो महापुरुष कथन करते हैं किः-
          कह नानक राम भज ले जात अवसर बीत।।

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

वारण्ट पत्र


किसी मनुष्य ने घोर तप किया। भगवान ने उस पर प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। उसने वर यह मांगा कि""जब मुझे इस असार संसार से कूच करना हो मुझे एक सप्ताह पूर्व इस का ज्ञान हो जाए।'' भगवान तथास्तु कह कर अन्तर्हित हो गये। वह मनुष्य मृत्यु से निर्भीक और निश्चिन्त होकर संसार के आनन्द लेने लगा।उसे इस बात का स्वप्न में भी विचार न रहा कि यह विश्व विनश्वर है।यहाँ न कोई रहा है और न कोई रहेगा। इस क्षणभंगुर विश्राम शाला से एक न एक दिन हर किसी को जाना है। निदान एक दिन यमदूत उसके सिर पर आ धमका। वह तो नितान्तअसावधान था। मरने की उसे आशंका तक भी न थी। संसार के लोभ में वह इतना ग्रस्त था कि उसे मौत और प्रभु की तनिक भी खबर न रही। परन्तु मरता क्या न करता। चारोंओर से निराश होकर वह यमदूतों के साथ चल खड़ा हुआ। धर्मराज की अदालत में पहुँचते ही उसने प्रश्न किया। श्रीमान मैने तो श्रीमान् से वचन लिया था कि मुझे मरने से एक सप्ताह पूर्व सूचना मिलनी चाहिए।किन्तु क्या कारण है जो मुझे सूचना बिना दिये एकदम से गिरफ्तारी का वारंण्ट जारी किया गया जिसके अनुसार मुझे बन्दी बनाकर यहां लाया गया है। धर्मराज तत्काल अपने दूतों से बोले, क्यों भाई! आप ने इसे सूचित न किया था? उन्होने हाथ बाँधकर निवेदन किया कि प्रभो! हम ने तो इसे कई बार सूचना दी किन्तु यह हरबार आनाकानी करता रहा। अन्ततोगत्वा हमने सरकार के अनुसार इसको बन्दी बनाने का आदेश इसके द्वार पर चिपका दिया। तदनुसार इस अपराधी  को नियत तिथि  व  समय बन्दी करके आपके न्यायाधिकरण में उपस्थित कर दिया है।
     यह सुनते ही वह एकदम चीखा,श्रीमान्!यह एकदम झूठ है। मुझे एक बार भी सूचना नहीं दी गई। मृत्यु के दूतों नेअपनी सत्यता को प्रमाणित करने के लिये सरकारी वकील को खड़ा किया।वकील ने सारा चिट्ठा पढ़कर सुनाया।जिसमें लिखा था कि इसे 1-2-3-4 बार प्रस्थान करने के सन्देश दिये गये किन्तु हर बार यह कहीं अदृश्य हो जाने का विफल प्रयास करता रहा।परन्तु हम इसे खोज कर प्रस्थान काल में इस से पत्र पर हस्ताक्षर करवा लेते थे।उन दिनों यह सुरापान में इतना प्रमत्त रहता था कि हमारी सूचना को एकदम से काट देता था। अन्ततः हमने श्रीआज्ञानुसार जमानत के बिनाआदेश-पत्र दिखाकर इसे बन्दी बना लिया और आपके सन्मुख प्रस्तुत कर दिया।इतना सुनने पर वह एक बार फिर चीख उठा। श्रीमान्! यह मिथ्या कथन है।नितान्त असत्य है। मुझसे कोई भी हस्ताक्षर नहीं कराया गया। नाही कोई आदेश पत्र द्वार पर चिपकाया गया।यमराज ने कड़क करअपने साथियों की ओर फिर देखा क्यों भाई! क्या बात है?धर्मराज का संकेत पाकर सरकारी वकील ने विवाद करना आरम्भ किया।
सरकारी वकील-(अपराधी से) क्यों भाई! तुम्हारे शहर में कोई मृत्यु हुई? बन्दी-ऐसी बातें जो प्रायः प्रतिदिन देखने में आती थीं।परन्तु मैं तो निर्भय था कि मुझे तो एक सप्ताह पूर्व सूचना मिलेगीऔर मैं उन दिनों परलोक सुधार लूँगा।
वकील-तेरे मुहल्ले में कोई मरा?
बन्दी- जी हाँ प्रभो! परन्तु इससे मुझे क्या सरोकार?वैसे तो मेरे मुहल्ले
में, फिर मेरे निकट के सम्बन्धियों में और फिर मेरे अपने ही घर में मृत्यु के आक्रमण हुए परिणाम यह हुआ कि मेरे पिता-दादा उठ गये। प्रत्युत मैं स्वयं ही उन्हें कंधों पर लादकर मरघट तक पहुँचा आया किन्तु मुझे तो सूचना न हुई फिर मेरे द्वार परआदेश-पत्र कहां चिपकाया गया? वकील-क्या इससे तुझे सूचना न मिली?जब मृत्यु के दूतों ने तेरे नगर में, फिर तेरे मुहल्ले में, पुनः तेरे ही घर में ढोल बजाना आरम्भ कर दिये यही तो सूचना थी कि अब तेरी बारी आने वाली है।
          बारी बारी अपने चले पियारे मित्त।।
          तेरी बारी जीयरा,नियरै आवै नित्त।।
          माली आवत देखि कै, कलियाँ करें पुकारि।।
          फूलि फूलि चुनि लिये, काल्हि हमारी बार।।
इससे सपष्ट होता है कि तेरी आँखों पर प्रमाद की पट्टी बँधी हुई थी और तू जीवन के नशे में बेसुध था क्या यह ठीक नहीं है?
अपराधी-यह तो सत्य है परन्तु यह तो सर्वथाअसत्य है कि मेरे दरवाजों पर समर चिपकाया गया। वकील ने अट्टहास करते हुए कहा, अरे! मरने से पहले क्या तुझे कई बीमारियों ने नहीं घेर रखा था? क्या तू आए दिन वैद्यों और डाक्टरों की दवाइयों के अधीन नहीं हुआ था? तेरे माथे पर चिन्ता परेशानी का डेरा नहीं आ गया था?
बन्दी-लज्जा से सिर झुकाये हुए, जी हाँ यह तो सच है।
वकील- फिर तू स्वयं ही बता कि इससे यह सिद्ध न हो गया कि तेरे द्वार पर प्रयाण काल का समन वस्तुतः ही चिपकाया गया था। जीव के नेत्रों से टपटप आँसूँ गिरने लगे।ढाढें मार मार कर रोने लगा,श्रीमान!
मुझपर दया करो, मेरी बड़ी भारी भूल थी। मैने आपके इशारों को नहीं समझा। मेरी आँखों पर असावधानी की पट्टी बँधी रही। तुम्हारे दूत झनझोर झनझोर कर जगाते रहे परन्तु मेरे कानों पर जूँ तक न रींगी। परन्तु प्रभो! अब करुणा करके मुझे कुछ समय दो, जिससे मैं कुछ भजन पूजन कर सकूँ। परन्तु अब वहाँ उसकी सुनने वाला कौन था? धर्मराज के यमदूत उसे किसी तरफ घसीटते हुए ले गये। तभी तो महापुरुष कथन करते हैं किः-
          कह नानक राम भज ले जात अवसर बीत।।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

भिखारी से फिर राजकुमार बना


एक सम्राट का लड़का घर से भाग गया।पांच साल तक बाप ने उसकी फिक्र न की। क्रोध में था बाप भी। लेकिन एक ही लड़का था। बाप बूढ़ा होने लगा, तब उसे याद सताने लगी। फिर उसने अपने वज़ीर के कहा ढूँढो, उसे ले आओ वापिस। वह लड़का बेचारा,राजा का लड़का होना भी कभी-कभी बड़ा दुर्भाग्य होता है। लड़का तो न ठीक से पढ़ा, न लिखा। कभी कोई मेहनत न की थी। तो सिवाय भीख मांगने के और कोई उपाय न रहा। राजा का लड़का अगर राजा न रह जाये तो भिखारी ही हो सकता है,और कोई उपाय नहीं है। भीख मांगने लगा। पांच साल में तो भूल ही चुका था कि राजा का लड़का है।कैसे याद रखे,जबमांगनी पड़ती हो भीख तो कितनी देर  तक याद रखो कि राजा के लड़के हैं। थोड़े दिन याद रहा होगा,फिर भूल गया,फिर मिट गया ख्याल भी। वज़ीर खोजतेखोजते उस गांव में पहुंचे,जहां वह भरी दोपहरी में एक साधारण-सी गंदे होटल के सामने जुआ खेलते लोगों से भीख मांग रहा था।पैर में फफोले पड़े थे,कपड़े फट गये थे।कपड़े वही थे,पांच साल पहले जिनको लेकर निकला था।लेकिन अब पहचानना मुश्किल था। न कभी धुले थे, धूल, कीचड़ सब कट-पिट गये,सब पांच साल में बर्बाद हो गये। उन्हीं फटे कपड़ों कों पहने हुए हाथ जोड़े भीख मांग रहा था, जूते के लिए। जूते समाप्त हो गये थे और भरी तेज़ धूप थी और सड़कें जलती थीं। उसके पैर पर फफोले थे,और कपड़े बांधे था और लोगों से कह रहा था मेरे पैर पर फफोले हैं दया करो और कुछ चार पैसे दे दो, कि मैं जूते खरीद लूँ। लोग उसकी तरफ ध्यान ही न दे रहे थे। कोई उसकी फिक्र ही न कर रहा था। तभी रथ रूका उस द्वार के सामने आकर। वज़ीर ने नीचे उतरकर देखा, वही मालूम पड़ता है। भागा हुआ पास गया, चेहरा देखा, वही है। पैर पर गिर पड़ा और कहा कि महाराज ने याद किया है, वापिस चलें। पिता बीमार हैं। राज्य का अधिकार कौन सम्भाले?हाथ में टूटा-सा एल्मुनियम का बर्तन था, दस पांच पैसे उसमें पड़े थे। एक क्षण में सब बदल गया।पात्र फेंक दिया उसने जोर से सड़क पर।सारे जुआरी चौंककर खड़े हो गये,सामने रथ खड़ा देखा।जुआ बन्द हो गया, होटल के सारे लोग बाहर आ गये। उसने वज़ीर ने कहा, आओ,पहले तो यह करो, अच्छे वस्त्र लाओ, जूते लाओ,स्नान का इंतज़ाम करो, भोजन का इंतज़ाम करो। उसकी आँखें बदल गयीं उसका चेहरा बदल गया, कपड़े अभी भी वही थे, सड़क वही थी, होटल वही था, पात्र नीचे पड़ा था, लेकिन अब वह सम्राट हो गया था। होटल के लोगों ने कहा, आपका चेहरा एकदम बदल गया। उसने कहा, बात मत करो, सोच कर बोलो, किससे बोल रहे हो।सम्राट हूँ वज़ीर कंप रहा है, लोग भागे हैं, कपड़े आ गये हैं, सब इंतज़ाम हो रहा है, इत्र छिड़के जा रहे हैं, स्नान करवाया जा रहा है। वह आदमी रथ पर बैठ गया। वे होटल के लोग बड़े उत्सुक हैं कि थोड़ी तो पहचान याद रखना। परअब बात बिल्कुल बदल गई है। पहले वे उसकी तरफ देख भी न रहे थे, अब वह उनकी तरफ बिल्कुल नहीं देख रहा है, अब वह कहीं और है। क्या हो गया है इस क्षण में?एक क्षण में एक किरण आयी, एक स्मरण आया, एक रथ आया द्वार पर, जिसने कहा सम्राट हो तुम।
         ध्यान की गहराइयों में वह किरण आती है, वह रथ आता है द्वार पर जो कहता है सम्राट हो तुम,परमात्मा हो तुम, प्रभु हो तुम।उस दिन ज़िन्दगी और हो जाती है। उस दिन चोर होना असंभव है। सम्राट कहीं चोर होते हैं।उस दिन दुःखी होना असंभव है। उस दिन एक नया जगत शुरु होता है। उस जगत, उस जीवन की खोज ही धर्म है।

बुधवार, 2 मार्च 2016

मृत को देखकर बैराग्य हुआ


     एक सन्त की कथा है। ये सन्त एक राजा के लड़के थे।अभी ये शैशव अवस्था में ही थे कि इन्हें देखकर एक ज्योतिषी ने राजा से कहा-तुम्हारा पुत्र एक महान त्यागी सन्त होगा। ज्योतिषी की भविष्यवाणी सुन कर राजा ने इस भय से कि कहीं लड़का सचमुच ही साधु न बन जाए, उसे हरप्रकार के भोग-विलास तथा ऐश-आराम के सामान उपलब्ध कर दिये। उसने सोचा कि राजकुमार जब विषय-विलासिता में बुरी तरह फँस जायेगा तो वह साधु बनने का नाम भी न लेगा। इसके अतिरिक्त उसने राज्य में यह घोषणा भी करवा दी कि राज्य में यदि कोई व्यक्ति शरीर छोड़ जाये तो उसकी अन्त्येष्टि इस प्रकार की जाये कि राजकुमार को मौत की खबर तक न हो। जब राजा की मृत्यु हुई तो उसकीअन्तिम क्रिया भी इस प्रकार से की गई जिससे कि राजकुमार को पिता की मृत्यु का पता न चले। राजकुमार के बार बार पूछने पर उसे यह कह दिया जाता कि राजा तीर्थ-यात्रा पर गये हैं।
     एक दिन बड़े धूमधाम से राजकुमार की सवारी निकली, जिसमें अनेकों सुसज्जित हाथी, घोड़े, रथ आदि सम्मिलित थे। भाँति भाँति के बाजे बज रहे थे। सबके मध्य में राजकुमार रत्न जड़ित बहुमुल्य वस्त्र पहने राजसी ठाट-बाट के साथ एक सुसज्जित हाथी पर सवार था। मार्ग के दोनों ओर लोगों की भीड़ एकत्र थी और राजकुमार के जयघोष से आकाश गूँज रहा था। एकाएक जलूस में आगे चल रहा एक अधिकारी गिर कर मर गया। उसके मरने से वहाँ एक दम भीड़ लग गई जिससे सवारी रूक गई।भीड़ में शोर भी मच गया। वास्तविकता का पता लगाने के लिए राजकुमार स्वयं हाथी से नीचे उतरा और उस स्थान की ओर बढ़ गया यहाँ वह अधिकारी गिरा पड़ा था। राजकुमार को देखकर सब एक ओर हो गए। वहाँ पहुँचकर उसने क्या देखा कि एक व्यक्ति बीच मार्ग में गिरा पड़ा हैऔर उसी के कारण सवारी रूकी हुई है। राजकुमार ने एक मंत्री को आदेश दिया-इस व्यक्ति को शीघ्र खड़ा करो और इसे आगे बढ़ने के लिये कहो।मंत्री ने उत्तर दिया-राजकुमार! यह व्यक्ति अब खत्म हो चुका, मर चुका, इसलिए अब यह चलने-फिरने में असमर्थ है।
   राजकुमार ने कहा-अरे भाई!कैसी बात कर रहे हो?इसमें क्या खत्म हो गया,क्या मर गया? हाथ,पैर,सिर,पेट,आँख,कान-सभी कुछ तो मौजूद है,फिर इसमें मर क्या गया? मंत्री ने कहा-ये सब अँग विद्यमान होने पर भी इसमें जो चेतन सत्ता थी,जिसे आत्मा कहा जाता है,वह क्योंकि इसमें से निकल गई, इसलिए अब यह किसी भी स्थिति में चल नहीं सकता।
राजकुमार ने कहा-इसका अर्थ यह हुआ कि सब अंग ठीक-ठाक होते हुए भीआत्मा के शरीर में न होने के कारण अब यह नहीं चल सकता।
मंत्री ने कहा-जी हाँ!अब तो शरीर बेकार हो गया। वास्तविक वस्तु तो आत्मा ही है, वह गई तो सब कुछ गया। अब तो यह पांचभौतिक जड़ शरीर ही शेष रह गया है, जो आत्मा के बिना निर्जीव और निष्प्राण है। शरीर के निर्जीव हो जाने पर ही कहा जाता है कि व्यक्ति मर गया। राजकुमार ने कहा-अच्छा!तो आत्मा के निकल जाने से यह व्यक्ति अब मर गया।अब इस मरे हुए व्यक्ति का क्या करोगे?मंत्री ने कहा-अब इसे अग्नि के हवाले कर देंगे।
     राजकुमार ने कहा-तो क्या मेरे इस शरीर में से भी एक दिनआत्मा निकल जायेगीऔर तब क्या मेरे शरीर को भीअग्नि के हवाले करदोगे? मंत्री ने कहा-वह तो सबके साथ ऐसा ही होता है। राजकुमार ने कहा-इसका अभिप्राय यह हुआ कि मेरे इस शरीर की सत्ता तभी तक है,जब तक इसमेंआत्मा विद्यमान है। उसके निकल जाने पर यह शरीर निष्प्राण हो जायेगा। मंत्री ने कहा- जी हाँ! वास्तविक वस्तु तो आत्मा ही है।
     राजकुमार ने कहा- जब यह शरीर जड़ है, इसकी सत्ता आत्मा के कारण ही है और आत्मा ही वास्तविक वस्तु है, तो इसका मतलब यह हुआ कि मेरा वास्तविक स्वरूप आत्मा है,यह जड़ शरीर नहीं। मैं वास्तव में आत्मा हूँ,यह नश्वर और जड़ शरीर नहीं जब ऐसा है तो फिर इस असत एवं नश्वर शरीर के लिए इतने ठाठ-बाट और आडम्बर की क्या आवश्यकता है।मैं तो अब उसआत्मतत्त्व की ही खोज करूँगा जोकि मेरा वास्तविक स्वरूप है।

मंगलवार, 1 मार्च 2016

तुम कौन हो लिखकर लाओ


गुरुजिएफ के पास जब पहली दफा आस्पेन्स्की गया तो गुरुजिएफ ने उससे कहा, एक कागज़ पर लिख लाओ तुम जो भी जानते हो, ताकि उसे मैं संभाल कर रख लूँ उस सम्बन्ध में कभी चर्चा न करेंगे। क्योंकि जो तुम जानते ही हो,बात समाप्त हो गयी।आस्पेन्स्की को कागज़ दिया। आस्पेन्सकी बड़ा पंडित था।और गुरुजिएफ से मिलने के पहले एकबहुत कीमती किताब जो लिख चुका था जो एक महत्वपूर्ण किताब थी।और जब गुरुजिएफ के पासआस्पेन्सकी गया,तो एक ज्ञाता की तरह गया था। जगतविख्यात आदमी था।गुरजिएफ को कोई जानता भी नहीं था। किसी मित्र ने कहा था गांव में,फुरसत थी,आस्पेन्सकी ने सोचा कि चलो मिल लें। जब मिलने गया तो गुरजिएफ कोई बीस मित्रों के साथ चुपचाप बैठा हुआ था।आस्पेन्स्की भी थोड़ी देर बैठा, फिर घबड़ाया। न तो किसी ने परिचय कराया,उसका कि कौन है,न गुरजिएफ ने पूछा कि कैसेआए हो। बाकी जो बीस लोग थे, वह भी चुपचाप बैठे थे तो चुपचाप ही बैठे रहे। पांच-सात मिनट के बाद बेचैनी बहुत आस्पेन्स्की की बढ़ गयी। न वहां से उठ सके,न कुछ बोल सके।आखिर हिम्मत जुटाकर उसने कोई बीस मिनट तक तो बर्दाश्त किया, फिर उसने गुरजिएफ से कहा कि माफ करिये, यह क्या हो रहा है?आप मुझसे यह भी नहीं पूछते कि मैं कौन हूँ?गुरजिएफ ने आँखें उठाकर आस्पेन्सकी की तरफ देखा और कहा, तुमने खुद कभी अपने से पूछा है कि मैं कौन हूँ?और जब तुमने ही नहीं पूछा, तो मुझे क्यों कष्ट देते हो? या तुम्हें अगर पता हो कि तुम कौन हो, तो बोलो। तो आस्पेन्स्की के नीचे से ज़मीन खिसकती मालूम पड़ी। अब तक तो सोचा था कि पता है कि मैं कौन हूँ।सब तरफ से सोचा, कहीं कुछ पता न चला कि मैं कौन हूँ।
     तो गुरजिएफ ने कहा, बेचैनी में मत पड़ों, कुछ और जानते होओ, उस सम्बन्ध में ही कहो। नहीं कुछ सूझा तो गुरजिएफ ने एक कागज़ उठाकर दिया और कहा, हो सकता है संकोच होता हो,पास के कमरे में चले जाओ। इस कागज पर लिख लाओ जो जो जानते हो। उस सम्बन्ध में फिर हम बात न करेंगे और जो नहीं जानते हो, उस सम्बन्ध में कुछ बात करेंगे।आस्पेन्सकी कमरे में गया।उसने लिखा है,सर्द रात थी,लेकिन पसीना मेरा माथे से बहना शुरू हो गया पहली दफा मैं पसीने पसीने हो गया।पहली दफे मुझे पता चला कि जानता तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।यद्यपि मैने ईश्वर के सम्बन्ध में लिखा है,आत्मा के सम्बन्ध में लिखा है,लेकिन न तो मैं आत्मा को जानता हूँ,न मैं ईश्वर को जानता हूँ। वह सब शब्द मेरी आँखों में घूमने लगे। मेरी ही किताबें मेरे चारों तरफ चक्र काटने लगीं। और मेरी ही किताबें मेरा मखौल उड़ाने लगीं,और मेरे ही शब्द मुझसे कहने लगे, आस्पेन्सकी जानते क्या हो?और तब इसने वह कोरा कागज़ ही लाकर गुरजिएफ के चरणों में रख दियाऔर कहा,मैं बिलकुल कोरा हूँ जानता कुछ नहीं हूँ, अब जिज्ञासा लेकर उपस्थित हुआ हूँ वह जो कोरा कागज़ था, वह आस्पेन्स्की की समिधा थी।जब भी कोई पूरा विनम्र भाव से----विनम्र भाव का अर्थ है, पूरे अज्ञान के बोध से गुरु के पास सीखने जाए।