सोमवार, 14 मार्च 2016

सन्त शाही स्नानघर में जाने लगे तो


सन्त इब्रााहीम अधम अपने शिष्यों को सदैव मन को पवित्र निर्मल करने का उपदेश किया करते थे। एकदिन वे कुछ शिष्यों के साथ एक नगर में पहुँचेऔर वहां के प्रसिद्ध स्नानागार की ओर रुख किया।प्राचीन समय में इन स्नानागारों में बड़े बड़े धनाढय व्यक्ति ही स्नान आदि किया करते थे, साधारण मनुष्य की वहां पहुँच नहीं थी। सन्तइब्रााहीमअधम के कपड़े उस समय बहुत मैले थे। जब वे स्नानागार में प्रवेश करने लगे,तो द्वार पर खड़े चौकीदार ने उन्हें रोककर कहा-ऐ गन्देआदमी!अन्दर कहाँ जाताहै?
     सन्त इब्रााहीम अधम ने शिष्यों को सम्बोधित करते हुये कहा-देखो!जब इस स्नानागार में भी मैले मनुष्य को प्रवेश करने की आज्ञा नहीं है,तो मालिक का धाम, जो अति पावन है, वहां मनुष्य की पहुँच मलीन मन से कैसे हो सकती है? उस पावन दरबार में तो केवल वही पहुँच सकता है,जिसका मन पवित्र-निर्मल है,क्योंकि मालिक को पवित्र एवं निर्मल मन वाले व्यक्ति ही प्रिय हैं। उनके उस उपदेश का शिष्यों के ह्मदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। तब तक चौकीदार को भी ज्ञात हो चुका था। कि जिनको उसने रोका है, वे प्रसिद्ध सन्त इब्रााहीम अधम हैं। उसने उनके चरणों में गिरकर अपनी भूल के लिये क्षमा माँगी।
     अभिप्राय यह कि प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये मन का पवित्र निर्मल होना अत्यावश्यक है और यह केवल सेवा भक्ति तथा नाम सुमिरण से ही सम्भव है।बिना इसके मन की मलीनता धुल नहीं सकती। धन्य हैं वे गुरुमुखआत्मायें जो सन्त सत्पुरुषों की चरण शरण ग्रहण कर सत्पुरुषों द्वारा निर्धारित किये गये भक्ति के नियमों का परिपालन करके मन को पवित्र, निर्मल एवं शुद्ध करने में संलग्न हैं। उनका जीवन ही वस्तुतः सफल, सकार्थ और सराहनीय है।

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