बुधवार, 23 मार्च 2016

मन कुंचर काया उद्यानै। गुरु आंकुस सच सबद पछानै।।


        
युनान के राजा फिलिप्स के पास किसी ने उपहार के रूप में एक अश्व भेजा, जो बड़ा ही मुँहजोर था। कोई भी सवार उसे न तो काबू में ला सकता था,न ही उस पर सवारी करने में सफल हो सकता था। शाह फिलिप्स ने बड़ा प्रयत्न किया कि किसी प्रकार वह घोड़ा काबू में लाया जावे। बड़े बड़े घुड़सवारऔर अश्वविद्या के ज्ञाता भी हार गये,किन्तु वह किसी के भी किसी तरह काबू में न आ सका। देखने में यह एक अति सुन्दर जानवर था,तथा सब प्रकार से स्वस्थ पुष्ट और स्वारी के योग्य मालूम होता था,किन्तु यह किसी की समझ में नहीं आता था कि इसमें क्या औगुण है, जिससे यह किसी के काबू में नहीं आता। कोशिश करने पर भी जब कोई उसके औगुण को न पा सका,तो हारकर शाह फिलिप्स ने उस घोड़े को वापिस भेज देने का निश्चय किया।यह बात फिलिप्स के पुत्र सिकन्दर को मालूम हुई,तो उसे बहुत दुःख हुआ। उसने अपने पिता से प्रार्थना की,""यह घोड़ा मुझे दे दिया जावे,मैं इसे काबू में लाने का यत्न करूँगा।'' पिता ने बहुत कुछ समझाया बुझाया कि,""बेटा!जिस घोड़े पर काबू पाने में बड़ेबड़े चतुर सवार भीअसफल रहे हैं,तू उसे क्योंकर काबू में ला सकेगा?तू तो अभी अल्पायु है,यह तेरे बस का काम नहीं।''किन्तु सिकन्दर न माना। उसने उत्तर दिया,""पिता जी!कोशिश और हिम्मत करने से कौन सा कठिन से कठिन कार्य पूरा नहीं किया जा सकता?
     इस पर सिकन्दर के पिता ने आज्ञा दे दी। सिकन्दर ने घोड़े की बाग थामी और उसे लेकर काफी देर तक इधर-उधर घुमाता रहा।इसप्रकार करने से उसने घोड़े काऔगुण खोज लिया कि यहअपनी ही छाया से डरता और बिदकता है।अब सिकन्दर ने घोड़े का रुख सूर्य की ओर कर दिया।ऐसा करने से घोड़े की छाया पीछे कीओर चली गईऔर घोड़ा बराबर आगे की तरफ बिना झिझके बिदके चलता गया। अब सिकन्दर उचककर उसकी गर्दन पर सवार हो बैठा। घोड़े ने कोई अड़चन पैदा न की। सिकन्दर ने घोड़े को एड़ी लगाई, तो वह वायु से बातें करने लगा। अब उसकी परछार्इं पीछे की ओर रहने से घोड़ा ज़रा भी न बिदका। सिकन्दर ने उसे खूब दौड़ाया यहाँ तक कि घोड़ा पूरी तरह थक गयाऔर अपनी मस्ती तथा उद्दण्डता खो बैठा।अब सिकन्दर पूरी तरह सेअश्व की शक्ति का स्वामी बन गया था। फिर सिकन्दर ने उसे उलटे रुख में चलाया। पहिले तो घोड़ा बिदका और घबराया,किन्तु अब चूँकि सिकन्दर उसकी शक्तिपर काबू पा चुका था,इसलिये घोड़ा विवश होकर रह गया। अब उसे अपनी छाया की ओर भी चलना पड़ा। इस प्रकार करने से धीरे धीरे उसकी अपनी छाया से डरने वाली आदत जाती रही और वह पूरी तरह से सिकन्दर के काबू में आ गया।
     यह तो एक दृष्टान्त हुआ। ठीक इसी प्रकार ही मन रूपी घोड़े का भी हाल समझना चाहिये। चूँकि यह मन माया के मिसाले से बना हुआ है, यह सब माया अपनी ही छाया है। वास्तव में यह अपना ही प्रतिबिम्ब है। माया में चन्चलता है,इसीलिये यह मन रुपी घोड़ा भी अपनी छाया से आप ही चन्चल हो उठता है और इन्द्रियों के विषयों की वासनाओं के कारण सदा बैचैन बना रहता है। विषय-वासनाओं की तरफ दौड़ता हुआ यह मन आप ही अपना शत्रु बनकर अपनेआप से घृणा करने लगता है। किन्तु जब इस मन रूपी घोड़े के मुख में सतगुरु के शब्द रूपी लगाम दी जावेऔर बुद्धि रूपी सिकन्दर ज्ञानरूपी काठी पर चढ़कर सवार होवे, तथा शान्तिऔर धैर्य के रिकाबों में पाँव रखे,वैराग्य का चाबुक लगावे, और इस घोड़े को सतगुरु रूप सूर्य के सम्मुख रखकर भक्तिमार्ग पर दौड़ावे-तब यह मन रूपी घोड़ा अपने आप थक कर स्थिर हो जावेगा। और संसार की प्रकृति रूपी छाया का भय अपने आप ही जाता रहेगा। जिस प्रकार कि परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैंः-
         मन चेतन ताज़ी करै, लव  की  करै लगाम।।
         शब्द गुरु का ताज़ना कोई पहुँचै सन्त सुठाम।।
         छिन छिन मन गुरु चरणन लावै एक पलक छुटन नहीं पावै।।
अर्थात मन को गुरु-शब्द द्वारा वश में करके कुमार्ग में जाने से रोके। तथा जहाँ जहाँ मन भटकता है,वहाँ वहाँ इसको गुरु के ध्यान में लगावे। इस प्रकार करते रहने यह मन स्थित और शान्त हो जावेगा और इसकी कल्पना आप से आप मिटती जावेगी।

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