शुक्रवार, 25 मार्च 2016

मकान गिरा फिर भी प्रसन्न


     मैं छोटा था, और मेरे पिता गरीब थे। उन्होने बड़ी मुश्किल से एक अपना मकान बनाया। गरीब भी थे और ना-समझ भी थे, क्योंकि कभी उन्होंने मकान नहीं बनाये थे।उन्होंने बड़ी मुश्किल सेएक मकान बनाया। वह मकान ना-समझी से बना होगा। वह बना और हम उस मकान में पहुँचे भी नहीं और वह पहली ही बरसात में गिर गया। हम छोटे थे और बहुत दुःखी हुए।वे गांव के बाहर थे।उनको मैने खबर की कि मकान तो गिर गया और बड़ी आशायें थीं कि उसमें जायेंगे। वे तो सब धूमिल हो गयीं। वे आये और उन्होने गाँव में प्रसाद बाँटा और उन्होने कहा, कि परमात्मा का धन्यवाद।अगरआठ दिन बाद गिरता तो मेरा एक भी बच्चा नहीं बचता।हमआठ दिन बाद ही उस घर में जाने को थे।और वह उसके बाद ज़िन्दगी भर इस बात से खुश रहे कि मकान आठ दिन पहले गिर गया। आठ दिन बाद गिरता तो बहुत मुश्किल  हो जाती। यूँ भी ज़िन्दगी देखी जा सकती है। और जो ऐसे देखता है,उसके जीवन में बड़ी प्रसन्नता का उद्भव होता है। आप ज़िन्दगी को कैसे दखते हैं इस पर सब निर्भर है। हम इतने प्रसन्न हों कि हम मौत को और दुःख को गलत कर दें। जो
इतनी प्रफुल्लता और आनंद को अपने भीतर संजोता है, वह साधना में गति करता है। साधना की गति के लिए यह बहुत ज़रूरी है।

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