सोमवार, 7 मार्च 2016

वारिस को बचाने की चिन्ता ही नहीं


एक बार स्वामी रामतीर्थ जी सत्संग की गंगा प्रवाहित करते हुए जापान के विभिन्न नगरों का भ्रमण कर भगवत-प्रेमियों को कृतार्थ कर रहे थे। एक दिन जब वेअपनी मस्ती में कहीं जा रहे थे,तो उन्होने देखा कि एक विशाल भवन से आग की भयंकर लपटें निकल रहीं है।भारी भीड़ जमा है। शोरगुल हो रहा है। मकान का मालिक सेठ घबराया हुआ लोगों की मिन्नतें कर रहा है कि अमुक कमरे में से अमुक सामान निकाल लाओ। आग की लपटों से जूझते हुये कई लोग सेठ का सामान बाहर निकाल रहे हैं।आग की लपटें फैलती जा रही थींऔर सामान निकालना मुश्किल होता जा रहा था। लोग हिम्मत हारने लगे तो सेठ ने गिड़गिड़ा कर कहा
मेरे चार बक्से जिसमें बहुमुल्य सामान है अमुक कमरे से और निकाल लाओ। लोगों ने वे चार बक्से भी जान जोखिम में डालकर निकाल दिये। सेठ की आँखों में चमक सी कौंध गई, वह लोगों आभार प्रकट करने लगा।स्वामी जी के कदम वहीं रुक गए। एकाएक वे ठहाके पर ठहाके लगाते हुये कहने लगे-अचम्भा।अचम्भा।अचम्भा।लोगों को यद्यपि उनका हँसना अच्छा नहीं लगा,परन्तु उन्होंने भारतीय सन्यासियों की अद्भुत लीलाओं का स्मरण कर उनसे पूछा, अचम्भा किस बात का? और आप हँस क्यों रहे हैं?स्वामी जी ने कहा, दौलत के वारिस की याद नहीं केवल दौलत की चिन्ता है।
     इसलिये महापुरुष हमें शिक्षा देते रहते हैं कि शरीर और संसार की चिन्ता के साथ शरीर के स्वामीआत्मा की भी विशेष चिन्ता करनी चाहिये।जिससे कि उस सेठ जैसी स्थिति में पड़कर हँसी का पात्र न बनना पड़े। 

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