मुद्गल ऋषि अंगिरा ऋषि के शिष्य थे। उनके जीवन का सत्य प्रमाण मुद्गल
पुराण में इस बात की पुष्टि करता है कि आत्मोन्नति के सम्मुख स्वर्गलोकअति
तुच्छ है।विवेक बुद्धिद्वारा सकामता को निष्कामता में परिवर्तित किया जा
सकता है।और शाश्वत सुख का भागी बन सकता है। पुरातन काल में योग,यज्ञ,जप,तप,
व्रतआदि द्वारा प्रथम शरीर के चक्रों की साधना करके पुनः ऊपर के द्वारों
मेंअध्यात्म की ओर जाने का ज्ञान मिलता था। इसी नियमानुसार मुद्गल ऋषि ने
भी पूर्व पुण्योें के फलित होने पर दृढ़ निष्ठा से जप-विधि को अपनाया। पहले
पाँच-पाँच दिनों का उपवास प्रारम्भ किया और पुनः दस दस दिन का,इस व्रत के
पश्चात् भी वे किसानों द्वारा फैंके हुए अनाज को एकत्र कर भोजन करते थे। जब
साधक दृढ़ पग रखकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है तो बाधायें और परीक्षा भी पग
पग पर उसकी निष्ठा को डुलाने प्रयत्न करते हैं। अथवा यूँ कहा जाय कि उसे
कसौटी पर कसते हैं।
एक बार की बात है कि उपवास के पश्चात् ज्योंहि उन्होंने अनाज एकत्र कर
भोजन बनाया कि दुर्वासा ऋषिअतिथि रूप में द्वार परआ गए और आवाज़ लगाई-मैं
भूख से व्याकुल हूँ, मुझे अन्न प्रदान करो।अतिथि
को
श्रद्धापूर्वक अन्न देते हुए तपस्वी मुद्गल ज़रा भी खिन्न न हुए। भोजन करने
का भी यह समय था और उसी समय से दूसरा उपवास आरम्भ करना था। अतः अपने
नियमानुसार बिना अन्न ग्रहण किए दूसरा उपवास आरम्भ कर दिया। दूसरे की
समाप्ति पर पुनःअन्न ग्रहण के समयअतिथि ने याचना की और तपस्वी ने
हर्षपूर्वक आहार समर्पित कर दिया तथा पुनः उपवास रूपी तपश्चर्या में लग
गए।इसी प्रकार छः बार निरन्तर दस दिन के उपवास का पारण समयऔर अतिथि देव
द्वार पर याचक बनकर आ जाते। कठोर तप के फलीभूत होने का समयआ गया।धैर्यऔर
निष्ठा पूर्णता को प्राप्त हुएऔर छठी बार भी बिना किस खेद के ऋषि नेअपना
अन्न अतथि को प्रदान कर दिया। अतिथि रुपी दुर्वासा ऋषि ने अत्यधिक प्रसन्न
होते हुए वरदान दिया-धैर्यनिष्ठ तपस्वी!तुम्हें स्वर्ग सुख प्राप्तहोगा।
उसी समय स्वर्गलोक से एक विमान उतरा। इन्द्रदेवता के दृूत ने हाथ जोड़कर
कहा,""हे मुनीवर! स्वर्गलोक में पधारिये।'' मुद्गल ऋषि ने दूत से
कहा,""स्वर्गलोक! कृप्या पहले मुझे स्वर्ग के गुण और दोष बताने का कष्ट
करें।''देवदूत ने विनम्र शब्दों में उत्तर दिया-मुनिवर! स्वर्गलोक में जाकर
मनुष्य केवल भोक्ता मात्र बन जाता है।अपने किए हुए योग, यज्ञ,जप,तप के
फलस्वरूप उसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। राग रंग, खान पान पहरान आदि
वस्तुएं वहां ऐसी मिलेंगी जो न कभी किसी ने देखी हों और न सुनी हों। यह
हैं स्वर्ग के गुण।दोष कहिये या कमी-वह यह है कि स्वर्गलोक भोगभूमि होने के
कारण जब पुण्य क्षीण हो जाते हैं तो पुनः उसे कर्मभूमि मत्र्यलोक में आना
होता है। मत्र्यलोक कर्मक्षेत्र है। स्वर्ग-सुख पाने के पश्चात पुनः
तपश्चर्या, तप से पुनः स्वर्ग, बस! यही कालान्तर तक चक्कर चलता रहता है और
जीव इसमें बन्ध जाता है। मोक्ष का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। पुनः ऋषि ने
प्रश्न किया, कि सर्वोत्तम स्थान कौन सा है?
दूत ने विनम्र प्रार्थना की-ऋषिवर!सर्वोत्तम स्थान यही मत्र्यलोक है।
यहाँ सतपुरुषों की सुसंगति में कर्म करने से अन्तःकरण में ज्ञान का उदय
होता है।ब्राहृ स्वरुप में सायुज्य प्राप्ति के लिए यही कर्म क्षेत्र धरती
ही सर्वोत्तम स्थान है। यहां पर मनुष्य भव-बन्धन से मुक्त हो सकता है।
महर्षि ने सत्कार युक्त वचनों से दूत को कहा-कृपया अपना विमान वापिस ले
जाइये, मुझे यही स्थानअभीष्ट है।इन्द्रदूत अपना विमान लेकर चल दिए। मुद्गल
ऋषि पुनःअंगिरा ऋषि की शरण में गए।श्री चरणों में मोक्ष प्राप्ति के लिए
नाम की दीक्षा के लिये विनय की और अनन्यभाव से भक्ति भजन में लीन हो गए।सच
है किः-
गर तू चाहेगा दुनियां को, नूरे-खुदा न पायेगा।
खलकत को जब तू भूलेगा खालिक खुद ही आ जायेगा।
होगा बेपरदा यार तब जब शीशा-ए-दिल धुल जायेगा।।
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