शुक्रवार, 10 जून 2016

रथ का एक एक पुर्जा अलग कर बताया

 रथ का एक एक पुर्जा अलग कर बताया
   हम इस वास्तविकता को नहीं भुला सकते कि अन्ततः आत्मा सबसे भिन्न है। ज्ञान दर्शन स्वरुप आत्मा शाश्वत है। यही मैं हूँ। शेष योगिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं। मैं योगिक पदार्थ नहीं हूँ। दूसरों के साथ अपने को
इतना संयुक्त न करें कि स्वयं के होने का पता ही न चले। इस एकत्व भावना में साधक अपने को समस्त संयोगों से पृथक देखता है। प्लोटिस ने कहा हैः-अकेले ही अकेले के लिये उड़ान है। नमि राजर्षि ने कहा-संयोग ही दुःख है।दो में शब्द होते हैं,अकेले में नहीं। रानियां चन्दन घिस रही थी। चूड़ियों के शब्द कानों चुभ रहे थे निमि राजर्षि ने कहा-बन्द करो।रानियां हाथ में एक एक चूड़ी रख चन्दन घिसने लगीं।शब्द बंद हो गया।नमि राजर्षि ने पूछा-क्या चन्दन घिसना बन्द कर दिया?उत्तर मिला, नहीं!चन्दन घिसा जा रहा है। नमि ने पूछा,तो शब्द क्यों नहीं हो रहा? तब कहा-हाथ में एक एक चूड़ी है।एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती। यह सुनते ही तत्क्षण वे प्रतिबुद्ध हो गए और साधना के पथ पर चल पड़े।
     जब अनेक लोग साथ रहते हैं, तब उनमें कलह होना स्वाभाविक है।साथ रहने वाले दो व्यक्तियों में यदि कलह न भी हो, तो भी उनमें बातचीत तो होती ही है, जिसमें व्यर्थ समय नष्ट होता है।अतएव भक्ति पथ पर चलने वाले जिज्ञासु को जहाँ तक हो सके अकेले ही रहना चाहिए और सदा भजन-सुमिरण में संलग्न रहना चाहिए। जो गुरुमुख संसार में रहते हैं, उन्हें कामकाज करते हुए अन्य लोगों से वार्तालाप तो करना ही पड़ता है,परन्तु उन्हें चाहिए कि उतना ही वार्तालाप करें जितना आवश्यक हो, उसमें अपना मुल्यवान समय नष्ट न करें और जैसे ही समय मिले,एकान्त में भजन सुमिरण करें।आचार्य भिक्षु ने एक महत्व पूर्ण सूत्र दिया है। उन्होने कहा-
     गण में रहूं निरदाव अकेलो, किम स्यूं ही नहीं बांधूं जीवलो।
अर्थात् मैं गण-समुदाय में रहूँगा।किसी के साथ गठबंधन नहीं करूंगा।
संघ में रहते हुए अकेले रहना एक महत्वपूर्ण सूत्र है। यह साधना का परम रहस्य है।हम सर्वथा अकेले नहीं हो सकते हैं। व्यक्ति यह सोचता है कि वह जंगल में जाकर तोअकेला हो सकता है। कभी नहीं हो सकता। जंगल में जाने वाला तो भीड़ में इतना घिर जाता है। कि गाँव में रहने वाला भी नहीं घिरता। हम अकेले कैसे हो सकते हैं? जब हमने अपने भीतर हज़ारों-हज़ारों संस्कार पाल रखे हैं। मस्तिष्क में इतनी भीड़ होती है कि जिसकाअन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता।जब तक मस्तिष्क खाली नहीं हो जाता  तब तक मनुष्य अकेला नही हो सकता। कभी नहीं हो सकता।अकेले होने का एकमात्र उपाय है-इस सच्चाई को धारण करना कि संयोग मात्र संयोग हैं। शरीर,कपड़े,मकान सब संयोग हैं। काम क्रोध आदि विकार ये स्वभाव नहीं हैं विभाव हैं। आदमी अकेला तब होता है जब""मैं''अर्थात् अहंकार का नाश होकरआत्मा की सन्निधि प्राप्त हो जाती है। जब अकेलेपन का अनुभव गहरा होता चला जाता है तब यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि मैं अकेला हूँ।
कभी सोचा आपने कि यह""मैं''है क्या?आपका हाथ है""मैं''?आपका पैर है""मैं''?आपका मस्तक आपका ह्मदय है""मैं''?क्या है आपका ""मैं''? अगर आप एक क्षण भी शान्त होकर भीतर खोजने जायेंगे कि कहाँ है ""मैं''तो आप एकदम हैरान हो जायेंगे कि भीतर कोई ""मैं'' खोजने से भी मिलने को नहीं है।

     भिक्षु नागसेन को एक सम्राट मिलिंद ने आमन्त्रण दिया कि तुम आओ दरबार में। जो राजदूत गया थाआमन्त्रण देने उससे नागसेन ने कहा मैं चलूँगा तो ज़रूर लेकिन एक विनय कर दूँ पहले ही कह दूँ कि
भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं।वह रथ पर बैठ कर गया।सम्राट ने द्वार पर स्वागत किया और कहा भिक्षु नागसेन।हमआपका स्वागत करते हैं। वह हँसने लगा उसने कहा स्वागत स्वीकार करता हूँ लेकिन स्मरण रहे भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं सम्राट कहने लगा बड़ी पहेली की बातें करते हैं आप।अगर आप नहीं हैं तो कौन स्वीकार कर रहा है यह स्वागत?कौन दे रहा है उत्तर?नागसेन ने कहा देखते हैं,सम्राट मिलिंद, यह रथ खड़ा है जिस पर मैं आया हूँ यह रथ है।भिक्षु नागसेन ने कहा घोड़ों को निकालकर अलग कर लिया जाय। घोड़े अलग कर लिये गये और सम्राट से पूछा कि ये घोड़े रथ हैं?सम्राट ने कहा घोड़े रथ कैसे हो सकते हैं।सामने डंडे जिस पर घोड़े बँधे थे अलग करके पूछा क्या ये रथ हैं?नहीं ये रथ नहीं।चाक निकलवा कर पूछा फिर एक एकअंग रथ का निकलता गया और सम्राट को कहना पड़ा कि ये रथ नहीं है। फिर वहां कुछ भी न बचा। भिक्षु नागसेन ने पूछा रथ कहाँ है अब? सम्राट चौंककर खड़ा हो गया जो चीज़ें निकल गई उनमें कोई रथ था ही नहीं। तब भिक्षु ने कहा समझे आप रथ एक जोड़ था। रथ कुछ चीज़ों का संग्रह मात्र है रथ का अपना होना नहीं है। आप खोज़ें कहाँ है आपका मैं और आप पायेंगे अनन्त शक्तियों का एक जोड़ हैं ""मैं''कहीं भी नही है।औरएक एक अँग आप सोचते चले जायें तो एक एक अंग समाप्त होता चला जाता है फिर पीछे शुन्य रह जाता है उसी शुन्य से प्रेम का जन्म होता है क्योंकि वह शुन्य आप नहीं हैं वह शुन्य परमात्मा है।

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