एक
साधु था, और बादशाह उससे बहुत प्रेम करता था उसका आदर करता था। एक दिन
बादशाह ने कहा, आप मेरे महल में आ जायें तो बड़ी कृपा होगी। वहीं रहें।
मुझसे नहीं देखा जाता कि आप इस झोंपड़े में रहें और इस दरख्त की नीचे पड़े
रहें। उस साधु ने कहा, तुम्हारी मर्ज़ी, हम यहाँ सोते थे वहाँ सो जायेंगे।
बादशाह जब उसे रथ में लेकर लौटने लगा। रास्ते में उसे सन्देह हुआ,अगर वो
सच में फकीर था, अगर सचमुच में ही साधू है तो कैसा साधु है, महल में जाने
के लिये तैयार हो गया। उसे तो इन्कार करना चाहिये थे कि मैने लात मार दी
राजमहल को। तो बादशाह समझता कि हाँ कोई साधु है। बादशाह को शक हो गया। उसने
रथ पर बैठने से भी इन्कार नहीं किया, वो मज़े से गद्दी पर बैठ गया। वो
राजमहल में जाने को राज़ी हो गया उसने एक बार भी नहीं कहा, कि नहीं मैं
राजमहल नहीं जा सकता। बादशाह को लगा कि ज़रुर कुछ गड़बड़ है। साधु पूरा नहीं
मालूम होता। लेकिन चूँकि अब खुद ही उसको लाया था , उसे ले गया। उसे बढ़िया
से बढ़िया भवन में ठहराया वो ठहर गया। अच्छे अच्छे भोजन दिये उसने खाये।
राजा तो बहुत हैरान हुआ वो समझा कि हम तो गल्त आदमी को ले आये। सारा आदर
चला गया। ये काहे का साधु है? उसे बहुत बढ़िया बिस्तर पर सुलाया वो मज़े से
सोया। थोड़े ही दिन में राजा को बहुत सन्देह पकड़ने लगा, श्रद्धा सारी खण्डित
हो गई। क्योंकि श्रद्धा उस साधु पर थोड़ी थी, श्रद्धा तो उस दरख्त पर थी,
उस झोंपड़े पर थी, श्रद्धा तो उस भूखे मरते आदमी पर थी, श्रद्धा तोउस भीख
माँगने में थी, उस साधु पर थोड़ा थी, अब न भीख माँगता है, न दरख्त के नीचे
है, न नंगा है न उघाड़ा है। अब काहे पर श्रद्धा होने वाली थी। आपने भी अभी
श्रद्धा की होगी शायद ही किसी साधु पर की होगी। आपने कम कपड़े पर श्रद्धा की
होगी, भूखे आदमी पर श्रद्धा की होगी, उघाड़े नंगे आदमी पर श्रद्घा की होगी।
घर द्वार छोड़े हुये पर श्रद्धा की होगी। साधु को तो आप जाने भी नहीं
होंगे। वो बादशाह एक दिन सुबह सुबह उस साधु के पास आया, वो बोला, क्षमा
करें, एक सन्देह मुझको बड़ा हैरान किये दे रहा है, जब तक आप मेरे महल में
नहीं आये थे, मैं आपके प्रति एक आदर अनुभव करता था, जब से आ गये हैं, मैं
इतनी हैरानी में हूँ, मेरे सन्देह का निवारण कर दें। मेरी रातों की नींद
मुश्किल हो गई है। राजा ने केहा, जब आप आये हैं, मुझे ख्याल पकड़ता है कि
मुझमें और आप में कुछ भेद नहीं है। अब निश्चित ही हो गया है जैसा मैं रहता
हूँ आप भी वैसे ही रहते हैं, जैसा मैं सोता हूँ आप सोते हैं, जैसा मैं खाता
हूँ आप खाते हैं, तो मुझमें आप में भेद क्या है? उस साधु ने कहा, भेद अगर
जानना ही चाहते हैं, तो थोड़ा गाँव के बाहर चलना होगा। वो बोला मैं जानना ही
चाहता हूँ, गाँव के बाहर भी चलूँगा। वे दोनों सुबह सुबह उठे गाँव के बाहर
गये जब नदी के पार गाँव की रेखा समाप्त हो गई , उस राजा ने कहा, अब बता
दें। साधु बाला थोड़ा और आगे चलें तो बताऊँ, ये भी हो सकता है आगे चलने से
उत्तर भी मिल जाये। राजा कुछ समझा नहीं, वे कुछ और आगे गये, राजा ने फिर
कहा, साधु ने कहा, थोड़ा और आगे चलें दोपहर होने लगी, राजा ने कहा, बहुत देर
हो गई अब उत्तर दे दें, साधु ने कहा, उत्तर मेरा ये है मैं तो अब आगे जाता
हूँ, आप भी चलते हैं? राजा बोला, मैं कैसे जा सकता हूँ? मेरा राज्य है,
मेरा महल है, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरी प्रजा है, वो सब कुछ पीछे है।
वो फकीर बोला, मेरा पीछे कुछ भी नहीं है, मैं तो जाता हूँ, तुम्हारे महल
में ज़रुर था, तुम्हे भ्रम हो गया कि मेरे भीतर तुम्हारा महल होगा। मैं
तुम्हारे महल में था, इससे तुम्हें भ्रम हो गया तुम्हारा महल मेरे भीतर
होगा, तुम्हारे महल में ज़रुर रहा था, तुम्हारे महल को अपने भीतर नहीं लिया
है। मैं जाता हूँ, बादशाह ने पैर पकड़े और कहा, मुझे बोध हो गया, मुझे दुःख
होगा, वापिस चलें। वो साधु बोला वापिस तो अभी चलूँ, लेकिन तुम्हें फिर
सन्देह पकड़ लेगा, इसलिये नहीं मैं पीछे जाने से रुक रहा हूँ कि मुझे कोई
दिक्कत है, क्योंकि जिसे झोंपड़े में और महल में फर्क है वो अभी साधु नहीं
है, उसने कहा, मैं तो अभी चलूँ, लेकिन दिक्कत हो जायेगी। तुम्हें फिर
सन्देह पकड़ लेगा, तुम्हे सन्देह न पकड़े इसलिये मुझे जाने दो।
आत्मज्ञान के पूर्व अमोह नहीं हो सकता। आप भी समझते हैं कि हम घर गृहस्थी में रहेंगे और मोह नहीं रखेंगे, आसक्ति नहीं रखेंगे, हमें जल में कमल वत रहने दें। तो आप गल्ती में है। ये आपकी दलील झूठी है। ये दलील केवल न कुछ करने की है। ये दलील केवल गृहस्थी में बने रहने की है। ये आत्म प्रवंचना है। असम्भव है कि आप वहाँ रहकर मोह नहीं करेंगे। जब तक आत्म ज्ञान नहीं हो जाता तब तक आसक्ति से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। मोह तो तभी जा सकता है जब थोड़ी सी भी आत्मिक झलकें उपलब्ध हो जायें। मोह तो इसलिये है कि मैं जानता हूँ कि मैं देह हूँ इसलिये दूसरे की देह पर आकर्षण है। इसलिये दूसरे की देह से मोह है। जब तक मैं जानता हूँ मैं देह हूँ, तब तक धन से मोह होगा। जब तक मैं जानता हूँ मैं देह हूँ मकान से मोह होगा। ये मेरा देह होना ही ,मेरा मकान के प्रति, मेरा धन के प्रति, परिवार के प्रति, दूसरे की देह के प्रति, आसक्ति होगी, मोह होता है। जब तक मैं जानता हूँ, कि मैं पदार्थ हूँ तब तक मेरा पदार्थ से मोह विलीन नहीं हो सकता। जिस दिन मैं जानूँगा मैं पदार्थ नहीं चैतन्य हूँ उस दिन मेरा संसार से मोह विलीन हो जायेगा।
आत्मज्ञान के पूर्व अमोह नहीं हो सकता। आप भी समझते हैं कि हम घर गृहस्थी में रहेंगे और मोह नहीं रखेंगे, आसक्ति नहीं रखेंगे, हमें जल में कमल वत रहने दें। तो आप गल्ती में है। ये आपकी दलील झूठी है। ये दलील केवल न कुछ करने की है। ये दलील केवल गृहस्थी में बने रहने की है। ये आत्म प्रवंचना है। असम्भव है कि आप वहाँ रहकर मोह नहीं करेंगे। जब तक आत्म ज्ञान नहीं हो जाता तब तक आसक्ति से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। मोह तो तभी जा सकता है जब थोड़ी सी भी आत्मिक झलकें उपलब्ध हो जायें। मोह तो इसलिये है कि मैं जानता हूँ कि मैं देह हूँ इसलिये दूसरे की देह पर आकर्षण है। इसलिये दूसरे की देह से मोह है। जब तक मैं जानता हूँ मैं देह हूँ, तब तक धन से मोह होगा। जब तक मैं जानता हूँ मैं देह हूँ मकान से मोह होगा। ये मेरा देह होना ही ,मेरा मकान के प्रति, मेरा धन के प्रति, परिवार के प्रति, दूसरे की देह के प्रति, आसक्ति होगी, मोह होता है। जब तक मैं जानता हूँ, कि मैं पदार्थ हूँ तब तक मेरा पदार्थ से मोह विलीन नहीं हो सकता। जिस दिन मैं जानूँगा मैं पदार्थ नहीं चैतन्य हूँ उस दिन मेरा संसार से मोह विलीन हो जायेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें