मंगलवार, 28 जून 2016

भक्ति की रक्षा

एक छोटे से गाँव में रहने वाले मुर्गे को अपनी आवाज़ पर बड़ा नाज था। एक दिन एक चालाक लोमड़ी उसके पास आई और बोली, "मुर्गे महाशय! सुना है, आपकी आवाज़ बड़ी प्यारी और बुलंद है।' मुरगे ने गद्गद् होकर अपनी आँखें मीचीं और ऊँची आवाज़ में चिल्लाया-कु कुकुड़ूँ--कूँ! कु कुकुड़ूँ--कूँ! पर तभी लोमड़ी ने फुरती से उसे अपने मुँह में दबोच लिया और जंगल की तरफ भाग चली। गाँव वालों की नज़र उस पर पड़ी तो वे चिल्लाए,"पकड़ो, मारो! यह तो हमारा मुरगा दबोचे लिये जा रही है।' लोमड़ी ने उनकी चिल्लाहट पर ध्यान नहीं दिया। यह देखकर मुरगा बोला,"लोमड़ी बहन, ये गाँववाले चिल्ला रहे हैं कि मेरा मुरगा दबोचे लिये जा रही है। आप इन्हें जवाब क्यों नहीं दे देतीं कि यह मुर्गा आपका है, उनका नहीं?' लोमड़ी को मुरगे की बात जम गई। उसने फौरन मुँह खोला और गाँव वालों की ओर देखकर कहा,"भूल जाओ अपने मुरगे को। यह तो अब मेरा निवाला है।' पर यह कहने के साथ जैसे ही लोमड़ी का मुंह खुला, मुरगा उसके मुँह से छूट गया। वह सरपट भागा और गाँववालों के पास पहुँच गया।
      जब आदमी अपने अहंकार में फूला फिरता है और किसी के द्वारा प्रशंसा सुन कर फूल कर कुप्पा हो जाता है तो समझो वह काल के मुँह का निवाला बन जाता है। जैसे कि मुरगा अपनी प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाया और लोमड़ी के मुँह का निवाला बन बैठा। दूसरी शिक्षा इस दृष्टान्त से यह मिलती है कि अगर कोई अपनी भक्ति की कमाई को पाकर उसे छुपा कर नहीं रखता अर्थात् अपनी सिद्धियों का बखान करता है तो उसके हाथ में आई हुई भक्ति की सम्पदा छूट जाती है। जैसे लोमड़ी के मुंह आया हुआ मुरगा पाकर भी मौन न रह सकी, और अपने नि़वाले से हाथ धो बैठी।

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