रविवार, 3 जुलाई 2016

इन्द्र का भ्रम

भरत जी की भगवान के चरणों मे इस प्रकार गहरी श्रद्धा, भक्ति देख कर स्वर्ग के राजा इंद्र को चिंता हुई क्योकि यह जगत भले मानुष को भला और नीच को नीच दिखाई देता हैप्र् इंद्र ने सोचा यदि भगवान भरत जी का इस प्रकार प्रेम देखेंगे तो अवश्य ही अयोध्या को लौट जायेंगेप्र् और अगर भगवान वापस अयोध्या को लौट गए तो हमारा कारज वहीं का वहीं रह जायेगाप्र् यह सोचकर इंद्र ब्रहस्पति जी से प्राथना करने लगे, ‘हे गुरुदेव! कोई उपाय किया जाये जिससे भगवान और भरत का मिलाप ना हो सकेप्र् भगवान तो प्रेम के संकोची है अर्थात प्रेम के वश है और भरत जी प्रेम के समुन्द्र है, मालूम ऐसा होता है कि बनी बात बिगडना चाहती हैप्र् अब कोई छल-कपट का उपाय करना चाहिए जिससे भगवान वापस अयोध्या को न लौट पायेंप्र्’ गुरु ब्रहस्पति जी प्रभु भक्ति की महिमा को समझते है, इंद्र का स्वार्थ से भरा हुआ वचन सुनकर मन-ही-मन में हंसे और हजार नेत्र वाले इंद्र को बिना नेत्र के यानि अंधा जानाप्र् ब्रहस्पति जी ने कहा, ‘हे इंद्रप्र् दिल से मिथ्या भ्रम को निकाल दो और छल-कपट को छोड दो, यहाँ छल-कपट करोगे तो भांडा फूट जायेगा अर्थात छल प्रकट हो जायेगा और हानि होगीप्र् हे स्वर्ग के राजा इंद्र, माया पति भगवान के सेवक से माया का छल कपट करने पर वह माया उसी करने वाले के सिर पर पलट पड़ती हैप्र् तब (बनवास के निमित) जो कुछ किया गया वह भगवान की इच्छा जान कर किया गया परन्तु अब कुछ भी करने से हानि होगीप्र्’
इतिहास बताता है जब भगवान श्री राम जी को अयोध्या मे राज्य तिलक करने की तैयारी हो रही थी, तब देवताओं के राजा इंद्र को चिंता हुई कि यदि भगवान राजगद्दी पर बैठ गए तो राक्षसों के नाश का कारज नहीं होगाप्र् ऐसा विचार कर उसने एक चाल चली और सरस्वती को इशारा दियाप्र् उसने रानी कैकेयी की दासी मंथरा की जबान द्वारा रानी कैकेयी को प्रेरित किया कि वह इस अवसर पर राजा दशरथ से दो वर मांगे, एक तो राम को चौदह वर्ष का बनवास और दूसरा उसके बेटे भरत को अयोध्या का राजा बनाया जायेप्र् यह चाल सफल हो गई थी और इंद्र का साहस बढ़ गया थाप्र् अब यहाँ तो बात दूसरी हैप्र् भरत और राम के बीच मे  प्रेम भक्ति का सम्बन्ध है, स्वामी और सेवक का पुराना नाता है, इंद्र इस नाते को जानता नहीं, उसकी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बंधी हैप्र् वह नहीं देख पा रहा कि भगवान को अपने भक्तो से किस कदर प्यार होता हैप्र् इसी कारण उसके जवाब मे ब्रहस्पति जी ने उसे हजार नेत्र रखते हुए भी अंधा कहा और सत्य ही है जिसके पास भक्ति व परमार्थ की आँख नही है वह अंधा ही होता है ब्रहस्पति जी ने कहा, “ हे इंद्र, बनवास के समय तेरी कपट की चाल चल गई थी तो उसमे भगवान की अपनी मर्जी थीप्र् उस समय जो कुछ किया गया था, उनकी मर्जी से ही हुआ थाप्र् परन्तु फिर आगे चलकर ब्रहस्पति जी इंद्र को उपदेश करते है

सुन सुरेश रघुनाथ सुभाऊ
निज अपराध रिसाहि न काउ
जो अपराध भक्त कर करहि
राम रोष पावक सो जरहि

‘हे इंद्र, भगवान का स्वभाव सुनोप्र् वह अपने अपमान से किसी पर कोप नहीं करते अर्थात उनका अपना कोई अपमान कर देता है तो वह परवाह नहीं करतेप्र् परन्तु जो उनके भक्त का अपमान करता है वह भगवान के क्रोध की अग्नि मे जरुर जलता हैप्र् भक्तो और संतो के अपराधी को ईश्वरीय नियम के अधीन अवश्य ही दंड भुगतना पड़ता है, उससे उसे कोई नहीं बचा सकताप्र् हे इंद्रप्र् भरत के समान भगवान का प्यारा कौन हैप्र् संसार तो भगवान का नाम जपता है और स्वयं भगवान उनका (भरत जी का) नाम जपते हैप्र् हे अमरपति(देवराज इंद्र) भगवान के भक्त का अकाज मन मे न लाइए अर्थात भक्त के अकाज की मन मे चितवन भी न कीजिए, नहीं तो इस लोक मे अपयश और परलोक मे दुखी होगे और दिन- प्रतिदिन शोक संताप बढ़ते जायेंगेप्र् आगे फिर कहते है
           
                सुन सुरेश उपदेश हमारा
रामहि सेवक परम प्यारा
मानत सुख सेवक सेवकाई
सेवक वैर वैर अधिकाई

‘हे इंद्र, हमारा उपदेश सुनोप्र्  भगवान को अपना सेवक बहुत ही प्यारा हैप्र् उनके सेवक की जो सेवा करता है, उसे सुख और उससे वैर करने से दुःख मिलता हैप्र्’ ब्रहस्पति जी की सुंदर बाते सुन कर इंद्र को ज्ञान हुआ और मन की ग्लानि मिट गईप्र् तब सुरराज इंद्र भी प्रसन्नता से फूल बरसाकर भरत जी के स्वभाव की बढ़ाई करने लगे।

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