सोमवार, 11 जुलाई 2016

सन्त तुलसी दास जी

कहते है कि इंसान का मन भजन में तभी लगता है, जब उसके दिल में वैराग्य की भावना आती है। श्री गोस्वामी तुलसीदास जी, जिन्होंने रामायण की रचना की है, को भी वैराग्य हुआ। संसार जानता है कि जब उनका विवाह हुआ तो उनका अपनी स्त्री के साथ कितना मोह, प्यार और लगन थी।  इतने वासना के अधीन और स्त्री के वशीभूत जिस का प्रमाण संसार में बहुत कम मिलता है। लेकिन जब समय आ गया और पूर्व जन्मो के शुभ कर्म फल देने को आये तो संसार की मोह माया से दिल उखड़ने का कारण उसी स्त्री का एक वाक्य ही बना। स्त्री ने अपने प्रति उनके अत्यंत प्रेम को देखकर ये वचन कहे। ऐसा समझो कि प्रेरणा करने वाला मालिक उस स्त्री के मुँह से बोला-
दिग दिग दिग तोही प्राण प्यारे
हाड चाम अति नीरस हमारे
इतनी प्रीटी जी लगत रामे
तो सुधारे तेरे सब काम
नारी वचन शर सम हिये लागे
पूर्व सकल पुन्य तब जागे
तुलसीदास कहे मान गिलानी
है सत्य है सत्य तीय तव वाणी
शुकर शेत्र ग्यु पुनि सौगुरु कियो
तह अति मुद् मौरामायण अध्यातम पायो

स्त्री के वचन तुलसीदास जी को तीर के समान लगे। छाती फट गई और अपने आप को धिक्कारते हुए स्त्री से बोले- प्रिय। तेरी वाणी सत्य है। मैं सचमुच मूर्ख हूँ, जो भगवान की भक्ति से विमुख होकर माया के पीछे अंधा हो रहा हूँ। बस तेरा और मेरा यह अंतिम मिलाप था जो मेरे लिए शिक्षादायक बना, अब मैं जाता हूँ। ठोकर लगते ही कुरुक्षेत्र को गए, वहाँ पर गुरु का मिलाप हुआ। तब गुरु की अत्यंत श्रद्धा सहित सेवा कर के अध्यात्म रामायण अर्थात रूहानी उपदेश प्राप्त किया और भजनाभ्यास कर के उच्चकोटि के संतो की श्रेणी पर जा पहुँचे। जब अन्तर्मन की आँख खुली तो त्रेतायुग की भगवान श्री राम जी की कथायें और लीलाये ज्यो की त्यों कलियुग के अंदर श्री रामचरितमानस के रूप में लिख दी जिसके सामने आज लोग श्रद्धा भक्ति से सिर झुकाते और प्यार करते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें