गुरुवार, 7 जुलाई 2016

गरुड़ जी ने कागभुसुंडि जी से सात प्रश्न पूछे।


प्रथम- सृष्टि के अंदर जड़ तथा चेतन जितने भी जीव है, सब से दुर्लभ शरीर कौन-सा है?
उत्तर- मनुष्य देह के समान दूसरी कोई देह नहीं है। चर अथवा अचर अर्थात चलने फिरने और न चलने वाले, जड़ व चैतन सृष्टि के अंदर जितने भी जीव है, सब इस देह की याचना करते है।
दूसरा – इस संसार मैं सब से बड़ा दुःख क्या है?
उत्तर- संसार में दरिद्रता के समान दूसरा कोई दुःख नहीं है।
तीसरा– इस संसार में सबसे बड़ा सुख क्या है?
उत्तर- संतो के मिलने के समान दूसरा कोई सुख नहीं है।
यहाँ पर प्रश्न उठता है कि दरिद्रता कंगालपन को कहते है धनहीन को। तो यह धन की हीनता माया का धन है या भक्ति का धन? उत्तर साफ़ है यह भक्ति का धन है- जिसके बिना मनुष्य कंगाल और दुखी है। क्योंकि जब यह कहा गया कि संतो के मिलाप के समान दूसरा कोई सुख नहीं है तो फिर यह बात सिद्ध हो जाती है कि भक्ति से हीन होने के बराबर दूसरा कोई दुःख भी नहीं है। किन्तु जब संत मिलते है तो अपनी भक्ति का धन देकर सुखी कर देते है क्योंकि संतो के पास  भक्ति ही का धन होता है।
चौथा – संत सत्पुरुषो तथा दुष्ट पुरुषों का सहज स्वभाव वर्णन कीजिये।
उत्तर- मन वचन और कर्म से उपकार करना संतो का सहज स्वभाव है। यहाँ तक कि संत दूसरे के हित के निमित्त अपने ऊपर दुःख भी सहते है, जैसे भोज पत्र का वृक्ष दूसरों को सुख देने के निमित अपनी खाल खिचवाता है (भोज परत के वृक्ष की खाल उतार कर ऋषि मुनि और तपस्वी लोग अपने शरीर को ढ़कते थे)। तात्पर्य यह है कि संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहन करते है तथा खोटे पुरुष दूसरों की बुराई के निमित दुःख सहते है। दुष्ट पुरुष बिना प्रयोजन ही दूसरों की बुराई करते है, जैसे साँप काट लेता है, तो उसको कुछ लाभ नहीं होता पर दूसरों के प्राण चले जाते है। चूहा बहुमूल्य वस्त्रों को काट डालता है, दूसरों की हानि हो जाती है परन्तु उसका कुछ लाभ नहीं होता। फिर कहते है जैसे बर्फ के ओले खेती का नाश करके आप नष्ट हो जाते है, ऐसे ही दुष्ट जन दूसरो की सम्पदा का नाश करके आप भी नष्ट हो जाते है।
पांचवा – वेदों ने कौन-सा सबसे बड़ा पुण्य बताया है?
उत्तर- वेदों में सबसे बड़ा पुण्य अर्थात परम धर्म अहिंसा कहा गया है। अर्थात किसी की आत्मा को न ही दुखाना अहिंसा है।
छठा – सबसे घोर पाप कौन-सा है
उत्तर-परायी निंदा के समान कोई बड़ा पाप नहीं है कागभुसुंडि जी का कथन है कि भगवान और गुरु की निंदा करने वाले मेंढ़क की योनि में जाते हैं और हजार जन्म तक मेंडक ही बनते रहते है तथा संतो की निंदा करने वाले उल्लू की योनि में जाते है। जिनको मोह रुपी रात्रि प्यारी है परन्तु ज्ञान रूपी सूर्य नहीं भाता अथवा जो मुर्ख सब की निंदा करते है, वे दूसरे जन्म में चमगादड़ बनते है
सातँवा – मानसिक रोग कौन-२ से है?
उत्तर- अब मन के रोग सुनिए, जिन से सब लोग दुःख पाते है। सम्पूर्ण व्याधियो अर्थात रोगों की मूल जड़ मोह है। इस मोह से फिर अनेक प्रकार के शूल उत्पन्न होते है यदि मोह की जड़ कट जाए तो फिर शांति ही शांति है ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. *Life itself can't give you love , pleasure and peace - unless you want it .*

    *Life just gives you time , space and relations* .

    *It's up to you how you fill it*

    *ॐ ह॒॑शः शोह॑म् परमात्मा॑ चि॑नमय॑म् सत्तचिदान॑द स्वरुप॑ शोह॑म् ब्रह्म*

    🙏🙏 🙏 🙏🙏
    🌹 Good Morning Ji 🌹

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