शनिवार, 9 जुलाई 2016

काक भुशुण्ड

काक भुशुण्ड जी ने गरूड को अपनी पिछले जन्मो की कथा सुनाई कि एक बार मैं शिवजी के मन्दिर में बैठकर शिवजी की उपासना कर रहा था उसी अवसर में गुरु महाराज भी आ गये किन्तु मैंने अभिमान वश उठकर उनको प्रणाम न किया। विचार यह था कि इस समय तो मै शिवजी के मंदिर में बैठकर तप करता हूँ। इस समय गुरु को प्रणाम करने की क्या आवश्यकता है। गुरुमहाराज जी तो बड़े दयालु थे। उन्होंने तो कुछ न कहा और न ही उन के हृदय में क्रोध आया। परन्तु हे गरूड जी। गुरु का निरादर करना तो महाघोर पाप है उसको शिवजी महाराज सहन न कर सके। क्रोध से भरी हुई मंदिर से आकाश वाणी उतरी। सो मंदिर में से यह आकाशवाणी हुई- अरे हतभाग्य नीच अभिमानी। यधपि तेरे गुरु को कुछ भी क्रोध नहीं उपजा क्योंकि वे दयामय सन्त है और पूर्ण ज्ञानी है। हे मुर्ख। तदपि मै तुझको शाप देता हूँ। क्योंकि नीति के विरुद्ध चलने वाला मुझे अच्छा नहीं लगता। रे दुष्ट! जो मै तुम को दण्ड नहीं दूंगा तो मेरा नीति का मार्ग भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि गुरु का अपमान करना वेद शास्त्रों की नीति के विरुद्ध बात है। इसलिए वेद की नीति की रक्षा के लिए मैं तुझे अवश्य शाप दूंगा। उस आकाशवाणी में यह वचन भी हुआ कि जो मुर्ख गुरु के साथ ईर्ष्या करते है वे सौ कल्प तक रोख नामक आग में जलते है। तत्पश्चात हजार जन्म तक नीच योनियों के अन्दर जाकर महाकष्ट सहन करते है। रे पापी। तू गुरु को आते देखकर अजगर की भांति जमकर बैठा रहा। इस कारण मेरा शाप है कि तू अजगर हो जा। अरे दुष्ट। तेरी बुद्धि में पाप समा गया है, इसलिए तू सर्प योनि की महान नीच गति को पाकर किसी बड़े पुराने पेड़ की जड़ के नीचे भयानक अँधेरी खोड में जाकर निवास कर। शिवजी का ऐसा कठिन शाप सुनकर गुरु महाराज सहन न कर सके और हाहाकार करके तथा मन में अति दुखित होकर शिवजी के मंदिर में जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि हे देवो के देव।
 कलियुग के जीव मन माया के अधीन सदा भूलते है। इन पर दया होनी चाहिये और भूल चूक को श्रमा कर देना चाहिये और साथ ही गुरु महाराज ने शिवजी की स्तुति भी की। तब मंदिर से फिर आवाज आई- ऐ परोपकारी महात्मन। यधपि आपके शिष्य ने दारूण पाप किया है और मंदिर से फिर आवाज आई- ऐ परोपकारी महात्मन। यधपि आपके शिष्य ने दारूण पाप किया है और मैंने भी क्रोध करके शाप दिया है तदपि आपके दयामय, परोपकारी, साधु स्वभाव को देख कर इस पर विशेष कृपा करता हूँ। ऐ महात्मन, मेरा शाप तो व्यर्थ जा नहीं सकता। हजार जन्म तो यह अवश्य पायेगा, किन्तु जन्मते और मरते समय जो जीव को अत्यंत दुःख होता है, वह दुःख इसको विचिन्तमात्र भी नहीं व्यपेगा। ऐ परोपकारी महापुरुष। दूसरी कृपा इस पर यह करता हूँ कि जिस जन्म में यह जायेगा किसी भी जन्म में इस का ज्ञान नहीं मिटेगा। अपने सारे जन्मो की इस को सुधि रहेगी। तीसरी कृपा में यह करता हूँ कि अन्त में इसे भगवान की भक्ति प्राप्त होगी।।

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