दो
राजकुमार, जब वे युवा थे, एक ही गुरुकुल में पढ़े। फिर पढ़ने के बाद विदा हो
गये। दीक्षांत हुआ और गुरु से विदा लेकर वे अलग-अलग रास्तों पर चले गये।
बाद में वर्षों के बाद एक तो बहुत बड़ा राजा हो गया और एक के पास जो था।
उसको भी छोड़कर भिखारी (सन्यासी) हो गया। वह भिखारी वर्षों बाद घूमता हुआ
राजा की राजधानी में आया। राजा के महल में ठहरा। राजा ने उससे पूछा, तुम
दूर-दूर के देशों में घूमकर आये हो, मेरे लिए क्या लाए हो? मित्र थे वे
पुराने, बचपन से गहरा उनका प्रेम था और यह पूछना बिल्कुल स्वाभाविक था। उस
मित्र ने, जोकि संन्यासी था और भिखारी था, उसने कहा मैने बहुत सोचा कि मैं
क्या ले चलूं तुम्हारे लिए। लेकिन जो भी मैं सोचता था, मुझे लगता कि वह तो
तुम्हारे पास होगा ही ऐसा क्या है जो तुम्हारे पास न हो? तो मैं बहुत
सोचता था, बहुत दुकानों पर गया, बहुत-सी चीज़ें देखीं, लेकिन जो भी सोचता
था, यह तो तुम्हारे पास होगा उसे भेंट में ले भी गया तो क्या अर्थ है? फिर
बहुत सोचा, बहुत खोजा, मुझे कुछ समझ नहीं आया। आखिर एक छोटी-सी चीज़ खरीद
लाया हूँ। जो कि तुम्हारे पास नहीं होगी। उसने अपनी झोली से वह चीज़ निकाली
और उस राजा को भेंट की।
आप कल्पना नहीं कर सकते कि वह चीज़ क्या रही होगी। क्योंकि राजा बड़ा था, उसके पास, सब-कुछ था और एक भिखारी उसको क्या भेंट दे सकता है?' उसने बड़ी छोटी-सी चीज़ भेंट दी, उसका मूल्य भी नहीं था-वैसे उसका बड़ा मूल्य है, और कई बार ऐसा होता है कि जिन चीज़ों का कोई मुल्य नहीं होता है जीवन में, उनका ही असल मूल्य होता है। और जो बहुत मूल्यवान चीज़ें होती हैं, अंत में पाया जाता है कि उनका कोई भी मूल्य नहीं था। मैने व्यर्थ ही उनके बोझ को ढोया। उसने दिया था एक छोटा सा दर्पण, और राजा से कहा था कि इसे रख लो, इसमें कभी-कभी अपना चेहरा देख लिया करो। अजीब-सी बात थी। मैं भी दर्पण ही आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपना चेहरा देख सकें और इससे बड़ी कोई बात नहीं है कि अपना चेहरा दिखाई पड़ जाये। बहुत कम लोग हैं, जो अपने को देख पाते हैं। दुनियाँ में सब-कुछ देख लेना आसान है, अपने को देखना बहुत कठिन है।और ऐसा दर्पण बहुत थोड़े लगों को उपलब्ध हो पाता है, जिसमें वे अपनी प्रतिछवि देख सकें और अपने को पहचान सकें। उस फकीर ने दिया था एक दर्पण कि इसे अपने पास रख लो, इसमें अपने को देख लेना। ऐसा ही दर्पण मैं (सत्पुरुष) भी आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने को देख सकें।
आप कल्पना नहीं कर सकते कि वह चीज़ क्या रही होगी। क्योंकि राजा बड़ा था, उसके पास, सब-कुछ था और एक भिखारी उसको क्या भेंट दे सकता है?' उसने बड़ी छोटी-सी चीज़ भेंट दी, उसका मूल्य भी नहीं था-वैसे उसका बड़ा मूल्य है, और कई बार ऐसा होता है कि जिन चीज़ों का कोई मुल्य नहीं होता है जीवन में, उनका ही असल मूल्य होता है। और जो बहुत मूल्यवान चीज़ें होती हैं, अंत में पाया जाता है कि उनका कोई भी मूल्य नहीं था। मैने व्यर्थ ही उनके बोझ को ढोया। उसने दिया था एक छोटा सा दर्पण, और राजा से कहा था कि इसे रख लो, इसमें कभी-कभी अपना चेहरा देख लिया करो। अजीब-सी बात थी। मैं भी दर्पण ही आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपना चेहरा देख सकें और इससे बड़ी कोई बात नहीं है कि अपना चेहरा दिखाई पड़ जाये। बहुत कम लोग हैं, जो अपने को देख पाते हैं। दुनियाँ में सब-कुछ देख लेना आसान है, अपने को देखना बहुत कठिन है।और ऐसा दर्पण बहुत थोड़े लगों को उपलब्ध हो पाता है, जिसमें वे अपनी प्रतिछवि देख सकें और अपने को पहचान सकें। उस फकीर ने दिया था एक दर्पण कि इसे अपने पास रख लो, इसमें अपने को देख लेना। ऐसा ही दर्पण मैं (सत्पुरुष) भी आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने को देख सकें।