शनिवार, 27 अगस्त 2016

स्वयं को देखो...


दो राजकुमार, जब वे युवा थे, एक ही गुरुकुल में पढ़े। फिर पढ़ने के बाद विदा हो गये। दीक्षांत हुआ और गुरु से विदा लेकर वे अलग-अलग रास्तों पर चले गये। बाद में वर्षों के बाद एक तो बहुत बड़ा राजा हो गया और एक के पास जो था। उसको भी छोड़कर भिखारी (सन्यासी) हो गया। वह भिखारी वर्षों बाद घूमता हुआ राजा की राजधानी में आया। राजा के महल में ठहरा। राजा ने उससे पूछा, तुम दूर-दूर के देशों में घूमकर आये हो, मेरे लिए क्या लाए हो? मित्र थे वे पुराने, बचपन से गहरा उनका प्रेम था और यह पूछना बिल्कुल स्वाभाविक था।  उस मित्र ने, जोकि संन्यासी था और भिखारी था, उसने कहा मैने बहुत सोचा कि मैं क्या ले चलूं तुम्हारे लिए। लेकिन जो भी मैं सोचता था, मुझे लगता कि वह तो तुम्हारे पास होगा ही ऐसा क्या है जो तुम्हारे पास न हो? तो मैं बहुत सोचता था, बहुत दुकानों पर गया, बहुत-सी चीज़ें देखीं, लेकिन जो भी सोचता था, यह तो तुम्हारे पास होगा उसे भेंट में ले भी गया तो क्या अर्थ है? फिर बहुत सोचा, बहुत खोजा, मुझे कुछ समझ नहीं आया। आखिर एक छोटी-सी चीज़ खरीद लाया हूँ। जो कि तुम्हारे पास नहीं होगी। उसने अपनी झोली से वह चीज़ निकाली और उस राजा को भेंट की।
     आप कल्पना नहीं कर सकते कि वह चीज़ क्या रही होगी। क्योंकि राजा बड़ा था, उसके पास, सब-कुछ था और एक भिखारी उसको क्या भेंट दे सकता है?' उसने बड़ी छोटी-सी चीज़ भेंट दी, उसका मूल्य भी नहीं था-वैसे उसका बड़ा मूल्य है, और कई बार ऐसा होता है कि जिन चीज़ों का कोई मुल्य नहीं होता है जीवन में, उनका ही असल मूल्य होता है। और जो बहुत मूल्यवान चीज़ें होती हैं, अंत में पाया जाता है कि उनका कोई भी मूल्य नहीं था। मैने व्यर्थ ही उनके बोझ को ढोया। उसने दिया था एक छोटा सा दर्पण, और राजा से कहा था कि इसे रख लो, इसमें कभी-कभी अपना चेहरा देख लिया करो। अजीब-सी बात थी। मैं भी दर्पण ही आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपना चेहरा देख सकें और इससे बड़ी कोई बात नहीं है कि अपना चेहरा दिखाई पड़ जाये। बहुत कम लोग हैं, जो अपने को देख पाते हैं। दुनियाँ में सब-कुछ देख लेना आसान है, अपने को देखना बहुत कठिन है।और ऐसा दर्पण बहुत थोड़े लगों को उपलब्ध हो पाता है, जिसमें वे अपनी प्रतिछवि देख सकें और अपने को पहचान सकें। उस फकीर ने दिया था एक दर्पण कि इसे अपने पास रख लो, इसमें अपने को देख लेना। ऐसा ही दर्पण मैं (सत्पुरुष) भी आपको देना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने को देख सकें।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

व्यक्तित्व आकर्षक कैसे बनायें


निम्न बातों को ध्यान में रखकर आप अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना सकते हैं।
हमेशा सोच-समझ कर बोलें।। किसी दूसरे व्यक्ति की बातें आप भी धैर्यपूर्वक सुनें।। कभी मिथ्या ज्ञान के बारे में न बोलें।। अपनी आवाज़ पर ध्यान न दें, बहुत तेज़ न बोलें।। दूसरों की बातें पूरी सुनने के बाद ही बोलें।। जिस विषय पर आप बोलें उस पर पूर्ण अधिकार हो।। खाना खाते समय न बोलें।। अपनी गलती को सही सिद्ध करने की कोशिश न करें।। बोलते समय अपने स्तर का ध्यान रखें। बड़ों से बात करते समय उनके लिए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करें।। सामने वाले की रुचि के अनुसार बोलें, गलत शब्द न बोलें।।अपने से छोटों से बात करते समय उनसे सीमित बात करें। अगर आप उनसे ज्यादा बात करेंगे तो हो सकता है आपकी बातों पर ध्यान न दें और आपका मज़ाक बनाएं।। बोलते समय हिले-डुले नहीं और न हाथ हिलाएं, बोलते समय मुँह से थूक न उड़ाएँ, सार्वजनिक स्थानों पर धीरे बोलें, फोन पर भी धीरे-धीरे बात करें।। अपने से छोटों का किसी आगन्तुक के सामने अपमान न करें।। महफिल में, किसी पर कोई इस तरह का कमैंट न करें जिससे उस व्यक्ति का अपमान हो, दूसरे व्यक्ति के वस्त्रों पर टिप्पणी न करें।। अगर कोई किसी की बुराई कर रहा है तो हो सके तो वहां से हट जाएं या चुप रहकर सुनें।। किसी को भी गलत नाम से न पुकारें।। अपने नौकर से ज्यादा बातें न करें , हमेशा हंसने के अंदाज़ में बात करें, घर आने वाले आगन्तुक की बातें सुनने-समझने की कोशिश करें।। यदि दूसरे व्यक्ति से बातें करते समय कोई गलत बात मुँह से निकल जाती है तो उस बात को लेकर हंसी न बनाएं, न ही उसे बीच में टोकें। आपके ऐसा करने में और व्यक्ति भी आप से बात करने में कतराएँगे। ऐसी बातों को नज़र अंदाज़ कर दें तो अच्छा है।। बच्चों के सामने बड़ों के लिए अपशब्द न कहें। बच्चों में सभी से सम्मानपूर्वक बोलने की आदत डालें।। बढ़ती आबादी के कारण मकान प्रायः पास-पास और ऊपर-नीचे होते हैं ऐसे में जहां तक हो धीरे-धीरे ही बोलें जिससे पास के घर तक आवाज़ न जाए।। अगर दो व्यक्ति बातें कर रहे हों तो बिना मांगे अपनी सलाह न दें।। किसी दूसरे के घर की बातों में दखलंदाज़ी न करें। अगर वह आपसे सलाह मांगे भी, तो उसे अपनी समस्या खुद ही सुलझाने का सुझाव दें।। हर बात पर ठहाका लगा कर न हंसे, सार्वजनिक स्थान पर धीर धीरे हंसे।। किसी के बारे में गलत बात न करें, अगर वह बात उसके कानों तक पहुँच गई अगर आप में  ऐसी कोई आदत है जिसके बारे में घर के सदस्य पहले आपको टोक चुके हों, ऐसी आदत को छोड़ने की कोशिश करें।।आपका मधुर हास्य कई रोते हुए दिलों को खिला सकता है। प्रसन्न व्यक्ति स्वस्थ भी रहता है और लोकप्रिय भी।। परनिंदा से बचिये। सदा गुणों को ही देखने का प्रयास कीजिए। दोष नहीं, अगर देखें भी तो उनकी चर्चा न करें, किसी की खिल्ली न उड़ाएँ। व्यंग्य न करें, चुगलखोरी कभी न करें, बात के धनी बनिए। दिया हुआ वचन निभाने का हर संभव प्रयास करें। कहकर कभी न मुकरें। उसे प्राणपण से निभाएं।। साथ ही चारित्रिक दृढ़ता के लिए भी प्रयास करें।। हर सुंदर वस्तु केवल हमारे उपभोग के लिए नहीं बनी है, अतः मन में लालच को प्रवेश न करने दे। बड़े बुज़ुर्गों को आदर सम्मान दें, चाहे वे परिचित हों या अपरिचित,। इसी प्रकार बराबरी वालों से समानता और छोटों से मित्रता का व्यवहार करें। कभी किसी की तरफ उंगली दिखाकर बात न करें, यह बहुत ही अपमानजनक होता है। सामने हाथ बांधकर बैठने से भी बचें, यह बचावकारी रवैया दर्शाता है। वार्तालाप के कारण ज्यादा हाथ चलाना भी ठीक नहीं। इसका आशय यह भी नहीं कि एकदम जड़वत बैठे रहें। बेवजह अपने पेन, पल्लू से ने खेलें, बार-बार अपने चेहरे या बालों पर हाथ ना फेरें। एक के ऊपर एक पैर मोड़ कर न बैठें, कोई व्याख्यान या भाषण देते समय या खड़े होकर बात करते समय ज्यादा हिलें डुले नहीं। ज्यादा ऊंची आवाज़ में बात करना दूसरों को अच्छा न लगने के साथ ही असभ्यता का प्रतीक है, अक्सर लोगों को फोन पर चिल्ला-चिल्लाकर बात करने की आदत होती है जो दूसकों के काम में व्यवधान डालता है। हरदिन किसी की एक  अच्छी बात की प्रशंसा करें, ध्यान रखें कि बेवजह ऐसा न करें, झूठी प्रशंसा से अच्छा है कि आप प्रशंसा ही न करें। नहर किसी में कुछ न कुछ अच्छा होता है, उसे सराहना, प्रोत्साहन देना आवश्यक है। ¬इन सब बातों को अगर आप अपनाएँगे तो आपका व्यक्तित्व और भी निखल आएगा।

रविवार, 21 अगस्त 2016

ध्यान

सभी महापुरुषों ने एक ही बात कही है- ध्यान,ध्यान और सिर्फ ध्यान
एक झेन फकीर के संबंध में मैने सुना है। एक विश्वविद्यालय का अध्यापक उनसे मिलने गया। उस अध्यापक ने कहा, "मुझे ज्यादा समझाने की ज़रुरत नहीं है, मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूँ, शास्त्र से परिचित हूँ, बौद्ध शास्त्रों का ही अध्ययन किया है, उसी में मैं पारंगत हूँ, इसलिए आप मुझे संक्षिप्त भी कहेंगे तो मैं समझ जाऊंगा।' वह फकीर चुप ही बैठा रहा, कुछ भी न बोला एक शब्द भी न बोला, थोड़ी देर चुप्पी रही, फिर उस अध्यापक ने पूछा, "कुछ कहते क्यों नहीं?' उस फकीर ने कहा," मैने कहा, मौन ही सार है, तुम समझे नहीं, चूक गये। तुम्हें भ्रान्ति है कि तुम बुद्धिमान हो। मैं चुप रहा, मेरी चुप्पी से ज्यादा और क्या कहूँ? यही सार है सारे अऩुभव का। तुुम्हारे पास आँखें होतीं तो तुम देख लेते यह प्रज्जवलित शांति, यह जलता हुआ भीतर का दीया।' अध्यापक ने कहा, आप ठीक कहते हैं, इतनी गहरी मेरी समझ नहीं है। एकाध-दो शब्दों का उपयोग करेंगे तो चलेगा, फिर से कहें।' तो फकीर कुछ बोला नहीं, रेत पर बैठा था, अंगुली से रेत पर लिख दिया-ध्यान। अध्यापक ने कहा, "इतने से भी काम नहीं चलेगा, कुछ थोड़ा और कहें, फिर बोलते क्यों नहीं हैं?' रेत पर लिखने की क्या ज़रुरत है?' उस फकीर ने कहा, "बोलने से यहां की शांति भंग होगी, लिखने से भंग नहीं होती, इसलिए रेत पर लिख दिया है।' उस अध्यापक ने कहा, "थोड़ा और कहे, इतने से काम न चलेगा।' तो उसने दोबारा ध्यान लिख दिया, अध्यापक ने और जोर मारा तो उसने तीसरी बार ध्यान लिख दिया। अध्यापक तो पगला गया, उसने कहा, "आप होश में हैं? आप वही-वही शब्द दोहराए जा रहे हैं।' झेन फकीर हँसने लगा, उसने कहा," सारे बुद्धों (महापुरुषों) ने बस एक ही शब्द दोहराया है, सारे जीवन एक ही शब्द दोहराया है, कितने ही शब्दों का उपयोग किया हो, लेकिन दोहराया एक ही शब्द है-ध्यान-ध्यान-ध्यान।'

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

खोपड़ी देखकर बताता था कि आत्मा कहाँ है


     मीगासारा एक ब्रााहृण था जिसकी बड़ी प्रसिद्धि थी। उसने एक विचित्र सिद्धि प्राप्त कर रखी थी। किसी मृत व्यक्ति की खोपड़ी को हाथ में लेकर और उसे अपनी अंगुली से बजाकर वह यह बता सकता था कि इसकी आत्मा इस समय कहां है। मीगासारा ने महात्मा बुद्ध की प्रशंसा सुन रखी थी और यह भी सुन रखा था कि महात्मा बुद्ध आत्मा को नहीं मानते। वह उत्सुक था उनको अपनी सिद्धि दिखाकर यह मनवाने के लिए कि आत्मा का अस्तित्व है और एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। एक दिन उसे पता चला कि महात्मा बुद्ध पास वाले गाँव में आए हुए हैं। बस! फिर क्या था, वह शीघ्र ही वहां जा पहँचा। महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एक वृक्ष की छाया में विराजमान थे। मीगासारा ने प्रणाम किया और वार्तालाप आरम्भ हो गया। मीगासारा ने बड़े गर्व से कहा- ""आप तो आत्मा के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते, इसीलिए आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करते हैं। परन्तु मैं तो किसी भी मृत व्यक्ति की खोपड़ी को हाथ में लेकर यह बता सकता हूँ कि उसकी आत्मा  कहाँ हैं।''
      यह सुनकर महात्मा बुद्ध बोले- ""यह तो आपकी अति विचित्र कला है। क्या आप हमारे एक भिक्षु की खोपड़ी को देखकर उसकी आत्मा के बारे में  बता सकेंगे?'' अवश्य। आज तक  एक  भी ऐसा अवसर नहीं आया जब मैं यह नहीं बता सका। लाइए, खोपड़ी कहां है?'' मीगासारा ने गर्व से कहा। खोपड़ी लाई गई। मीगासारा उसे हाथ में लेकर घुमाने लगा और अंगुली से बजाने लगा। इसके साथ-साथ उसने कुछ मंत्र भी उच्चारण किए। परन्तु उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि खोपड़ी कुछ भी नहीं बता रही।
     ""मीगासारा, क्या हुआ? इस भिक्षु की आत्मा कहाँ है?'' महात्मा बुद्ध ने पूछा। जब मीगासारा उस भिक्षु की आत्मा के बारे में बताने में असफल हो गया और उसने अपनी आँखें नीची कर लीं, तब महात्मा बुद्ध ने उसे इस असफलता का रहस्य बताते हुए कहा- ""मीगासारा, घबराओ नहीं। इस खोपड़ी में कोई विचित्र बात नहीं है। मृत्यु से पहले ही इस भिक्षु ने अपनी ""मैं'' अथवा अहम् की भावना को पूरी तरह समाप्त कर दिया था, इसलिए उसने निर्वाण प्राप्त कर लिया और जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो गया। मीगासारा। सब प्राणी अपने विचारों से व इच्छाओं से अपना एक व्यक्तित्व या मैं या अहंकार बना लेते हैं और वही बन जाता है उनके जन्म-मरण का कारण। मैं जो धर्म सिखाता हूँ, वह इसी ""मैं'' को मिटाता है और व्यक्ति निर्वाण प्राप्त करके जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाता है।

सन्तों से बुरी नियत का फल


     श्री गुरुनानक देव जी के सच्चे उपदेशों को सुनकर हर तरफ सच्चाई की धूम मची हुई थी। खलकत उनके दर्शन के लिये बड़ी संख्या में आने लगी। जो भी लोग आते सच्चाई का उपदेश पाकर मालामाल हो जाते और खुशी खुशी घर को लौटते। जो भी वाणियां श्री गुरु नानक साहिब के मुख से निकलती थीं, वह अधिकतर लोगों की जीभ पर रहने लगीं और आज तक लोग उनकी वाणी को बड़े आदरपूर्वक पढ़ते और अमल में लाते हैं।
     एक और लखपति अहलकार वहाँ रहता था। वह भी अपनी दौलत से घमण्ड में किसी को कुछ नहीं समझता था। उसने जब गुरु जी की सच्चाई भरी वाणियाँ लोगों की ज़बान से सुनी, तो सोचने लगा कि यह नानक कौन शख्स है, जिसका नाम हर छोटे बड़े की ज़बान पर रहता है और हर जगह जिसका इतना आदर सत्कार हो रहा है। हिन्दु-मुसलमान सभी क्यों इस साधारण से फकीर के पीछे दीवाने हो रहे हैं? ये विचार थे, जिन्होने उस लखपति अहलकार को भड़का दिया। उसने सोचा कि इस नानक को गरिफ्तार कर लेना चाहिये। यही बुरी नीयत धारण करके वह घोड़े पर सवार होकर चला। घर से निकला ही था कि घोड़ा मचल गया और दोलत्ती झाड़कर उसे अपनी पीठ से नीचे दे पटका। वह उठा और दूसरी बार उछलकर घोड़े की पीठ पर जा बैठा। परन्तु मार्ग में अन्धा हो गया। विवश होकर घोड़े से उतरा और आने जाने वालों को सहायता के लिये पुकारने लगा। जिन्होंने उसकी यह दशा देखी, वे डर के मारे सहम गये। सबने उस अहलकार से यही कहा कि नानक साहिब सत्पुरुष और परम सन्त हैं। उनसे छेड़छाड़ करने का यह कुपरिणाम निकला है। कुछ भले लोगों ने उस मनसबदार को यह सलाह दी कि अब तुम श्री गुरुनानक सहिब जी के पास जाकर उनके पवित्र दर्शन करो और अपनी बुरी नीयत के लिये उनके चरणों में पड़कर  क्षमा  याचना करो। आशा है कि तुम पर वे अवश्य दयालु होंगे।
     मनसबदार पर इस नसीहत का कुछ प्रभाव पड़ा। चुनांचे वह फिर घोड़े पर सवार होकर श्रीगुरुनानकदेव जी के दर्शन के लिये तैयार हुआ। परन्तु घोड़े ने फिर दोलत्ती झाड़कर नीचे गिरा दिया। तब लोंगों ने कहा कि सन्तों के दर्शन के लिये नम्रता और दीनता धारण करके जाना चाहिये। घोड़े पर सवार होकर जाना अहंकार का सूचक है। यह परामर्श उसे पसन्द आया और पैदल ही गुरु जी के दर्शन को चला। नीयत शुद्ध करके जब चला, तो ज्यों ही उनके निवास-स्थान के निकट पहुँचा कि खुदबखुद ही उसके नेत्र खुल गये। अब यह चमत्कार देखकर उस मनसबदार की श्रद्धा गुरु के चरणों में और भी बढ़ गई। बड़ी श्रद्धा और हार्दिक प्यार से वह उनके चरणों में गिरा और अपने किये हुये अपराध के लिये क्षमा-प्रार्थी हुआ। सन्तों का कथन हैः-
          र्इं  दरगहे - मा  दरगहे - नौमीदी नेस्त।।
          सद बार अगर तौबा शिकस्ती बाज़ आ।।
अर्थः-""ऐ गाफिल जीव! यह हमारी दरगाह निराशा और संशय की दरगाह नहीं है। इस दरगाह में सबका अपराध क्षमा किया जाता है। यदि तू सौ बार भी तौबा तोड़ चुका है, तब भी इस दरगाह में आ जा कि तुझे खाली नहीं लौटाया जायेगा।''
     सन्तों का दरबार क्षमा और बख्शिश का दरबार है। श्री गुरुनानक साहिब उसकी सच्ची श्रद्धा से अति प्रसन्न हुये और दयालुता से पेश आये। सन्त महापुरुष किसी के अपराध को दिल में नहीं रखते, बशर्ते कि अपराधी सच्चे मन से अपनी गलती पर पछताने लगा हो। मनसबदार की भी यही दशा हो रही थी, इसलिये उसका अपराध क्षमा कर दिया गया। गुरु जी ने उसे तीन दिन तक अपना अतिथि बनाकर रखा। उसे सच्चा उपदेश देकर उसके दिल में भरे हुये दौलत के झूठे अभिमान को चूर चूर कर दिया और इसके बदले में मालिक के नाम की सच्ची दौलत से मालामाल कर दिया। सच्ची भक्ति का दान पाकर मनसबदार निहाल हो गया। उसने भी अपने सच्चे गुरु की प्रतिष्ठा में रावी के किनारे एक गाँव आबाद कराया, जिसका नाम करतारपुर है और यह गाँव गुरु के चरणों में भेंट कर दिया।

रविवार, 14 अगस्त 2016

खुदा कबूल करता है दुआ जो सच्चे दिल से होती है

एक बार एक भक्त  ने स्वामी रामानन्द जी से पूछा, मनुष्य ईश्वर  की प्राप्ति  कैसे कर सकता है । उन्होंने उत्तर दिया, " ईश्वर  की कृपा द्वारा" अब ईश्वर की कृपा कैसे प्राप्त  की जा सकती है? जिज्ञासु ने पूछा - उन्होंने  कहा  - " ईश्वर  कृपा के लिए शुद्ध हर्दय से प्रार्थना करनी होती है।

  खुदा कबूल करता है दुआ जो सच्चे दिल से होती है
मुश्किल ये  है की ये बड़ी मुश्किल से होती है

प्रभु  सच्चे दिल से की हुई  प्रार्थना  को स्वीकार  करते है  लेकिन मुश्किल ये है की ऐसी प्रार्थना सबकी होती ही नही । वास्तव  में गुरु कृपा हर समय हमारे अध्त्यात्मिक प्रयत्नों में  हमारे साथ रहती  है।  इस संसार  में सतगुरु मनुष्य  के रूप में अवतार लेते है । हमे मुक्त करने और मोक्ष का मार्ग  दिखलाने  के लिए। जब मनुष्य ये भावना  प्रकट करता है कि , " हे सतगुरु मै स्वयं कुछ करने में असमर्थ हूँ। मै केवल आपकी कृपा चाहता हूँ। मै कुछ भी नही हूँ। आप ही समर्थ है जो भी मेरा है, सब आपका है। आप सर्वशक्तिमान  है। आपकी आपार कृपा के बदले मेरे पास देने के लिए कुछ भी नही है।" जब भक्त का मन इसी प्रकार की भावनाओं  से भरपूर हो जाता है और अहंभाव  लेशमात्र नही रहता तब उसे लगता है की सतगुरु की कृपा उसके अन्दर प्रवेश कर रही है जो सच्चे दिल से उसकी मांग करता है। जो भी द्वारा खटखटाने  की कोशिश करता है तो उसके लिए खुल  ही जाते है । यदि द्वारा नही खुलता  तो शायद हमारी  भक्ति में , प्रार्थना में , इच्छा में कुछ कमी जरुर होती है । जो भी मनुष्य अपने आपको सतगुरु के हवाले कर देता है तो सतगुरु उसे नाम के जहाज पर वहाँ  ले जाते है जहाँ से वह फिर आवागमन के चक्र में नही गिरता।

बुधवार, 10 अगस्त 2016

विद्वत्ता नहीं हृदय का प्रेम आवश्यक है


एक बार महाप्रभु चैतन्य भ्रमण करते हुए जब एक नगर में पहुचे, तो वहाँ के कुछ विद्वानों ने एक ब्राह्मण की शिकायत करते हुए कहा – “वह अपने घर के बाहर बैठकर नित्यप्रति गीता का पाठ बड़े ही ऊँचे स्वर में करता है। किन्तु वह चूँकि संस्कृत पढ़ा हुआ नहीं है इसलिए उसका पाठ बहुत ही अशुद्ध होता है। हम सबने उसे कई बार समझाया और ऊँचे स्वर में गीता का पाठ करने से मना किया, परन्तु वह किसी की सुनता ही नहीं। आप उसे समझाइये। हो सकता है कि आपके कहने से वह रुक जाए।” महाप्रभु चैतन्य ने उनकी बात मान ली और दूसरे दिन उन विद्वानों को साथ लेकर उसके घर पहुचे। घर क्या था? एक छोटा-सा कच्चा मकान था, जिसके बाहर एक चबूतरा था। चबूतरे के बीचो बीच एक पीपल का वृक्ष था। ब्राह्मण उस वृक्ष के नीचे बैठकर ऊँचे स्वर में गीता का पाठ कर रहा था। उसके नेत्रो से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। महाप्रभु उसकी ऐसी अवस्था देखकर चकित रह गये और प्रेम विभोर होकर मौन खड़े, उसे पाठ करते देखते रहे। जब वह ब्राह्मण पाठ कर चुका, तो स्वाभाविक ही उसकी दृष्टि चैतन्य महाप्रभु तथा अन्य लोगो पर पड़ी। वह तुरंत अंदर से चटाई निकाल लाया, सबको आदर- सम्मान के साथ बिठाया, फिर हाथ जोड़ कर बोला- मेरे अहोभाग्य है जो आप सबने मुझ जैसे गरीब की कुटिया पर कृपा की। कहिये, क्या आज्ञा है? महाप्रभु चैतन्य ने बड़ी ही मधुर वाणी में कहा – “इन विद्वान ब्राह्मणों का कहना है कि आप गीता का बहुत ही अशुद्ध पाठ करते है क्योंकि आपको संस्कृत भाषा का सही ज्ञान नहीं है। अभी हमने स्वंय भी आपको गीता का पाठ करते देखा। शब्दों का उच्चारण आपका वास्तव में ही बहुत अशुद्ध है। आप क्या सोचकर गीता का पाठ करते है और पाठ करते समय आप क्या भाव रखते है?” ब्राह्मण ने उत्तर दिया- “भाषा- वाषा की बात मैं जानता नहीं, क्योंकि मैं कुछ विशेष पढ़ा लिखा नहीं हूँ। मुझे तो बस इतना पता है कि गीता में भगवान श्री कृष्ण तथा उनके प्रिय भक्त का संवाद है। गीता पढ़ते समय मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मेरे सामने रथ में साक्षात् भगवान श्री कृष्ण तथा भक्त अर्जुन बैठे है और भगवान अर्जुन के प्रति वचन फरमा रहे है। उनके साक्षात् दर्शन कर मेरा हृदय प्रेम – विभोर हो जाता है और मैं संसार को पूर्णतया भूल जाता हूँ।” यह सुनते ही महाप्रभु चैतन्य एकदम उठे और उसे सीने से लगाते हुए कहा- “कौन कहता है कि तुम अशुद्ध पाठ करते हो? तुम्हारे जैसा गीता का पाठ करने वाला हमने आज तक नहीं देखा। सच पूछो तो गीता का वास्तविक पाठ तुम्ही ने समझा है। माखन तुम खाते हो और छाछ ये ब्राह्मण पाते है, जो अपने को विद्वान समझते है। विद्वान वास्तव में ये सब नहीं तुम हो, क्योंकि जिनके हृदय में प्रभु प्रेम का निवास है। वही सच्चा विद्वान अथवा पंडित है। उदाहरण के तौर पर शबरी, गोपियाँ ये सब ज्यादा पढ़ी लिखी विद्वान नहीं थी लेकिन इनके मन में भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति थी।”

सोमवार, 8 अगस्त 2016

सरल-प्रेम


यहूदी धर्म के प्रवर्तक हजरत मूसा एक बार एक पर्वतीय प्रदेश से होकर गुजर रहे थे। थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें खुदा की इबादत करता एक व्यक्ति मिला, जो अपने दोनों हाथों को उठाकर, आँखे बंद किये हुए, कुछ इस तरह प्रार्थना कर रहा था - "ऐ मेरे प्यारे खुदा! मै तुझसे बहुत प्यार करता हूँ। मेरी यह दिली तमन्ना है कि जब तू इस धरती पर आये तो मै तेरे लम्बे हो चुके बालों को काट कर, करीने से अपने हाथों से सवांरू। वहाँ जन्नत में रहते-रहते तुझे बहुत दिन हो गये, तेरी सफ़ेद दाढ़ी भी बढ़कर बहुत घनी हो गयी होगी। जब तू यहाँ आयेगा, तो मै खुद अपने हाथों से तेरी दाढ़ी बनाऊंगा। तेरे बालों में इत्रवाला तेल लगाऊंगा। तुझे पीने को बकरी का मीठा दूध दूँगा और लजीज मक्खन की रोटियाँ खिलाऊंगा। इन सब बातों को कहते-कहते, उस व्यक्ति का, जो पेशे से एक नाई था, गला रूँध गया और उसकी आँखे नम हो गई। हजरत मूसा ने जब उसकी इस अटपटी और विचित्र प्रार्थना को सुना, तो पहले तो उन्हें बहुत हँसी आयी, फिर गुस्से से लाल-पीले होकर उस व्यक्ति के पास आये और फटकारते हुए उससे कहने लगे, "अरे मूर्ख! क्या खुदा की इबादत ऐसे ही की जाती है? जिसने सूरज-चाँद बनाये हैं, जो सितारों को रौशनी देता है, क्या उसके पास किसी चीज़ की कमी है जो वह तेरे पास बाल कटाने और दाढ़ी बनवाने आयेगा? जो सबके रोटी-पानी का इंतजाम करता है, उसे तू बकरी का दूध पिलायेगा? अरे क्या जन्नत में जायकेदार पकवानों की कमी है, जो तू उसे यहाँ रोटी खाने को बुला रहा है? वह वृद्ध नाई बेचारा बिलकुल पवित्र और निश्चल ह्रदय का स्वामी था। उसे खुदा के ऐश्वर्य के बारे में कहाँ कुछ पता था? वह तो उसे भी अपने जैसा ही मानता था। जब हजरत मूसा ने उससे यह बातें कहीं, तो वह बेचारा डर गया कि कहीं उसने खुदा की शान में कोई गुस्ताखी तो नहीं कर दी है? वह हजरत मूसा से माफ़ी मांगने लगा और उनसे प्रार्थना की कि वही उसे कोई अच्छी सी प्रार्थना सिखा दें। मूसा ने उसे एक विस्तृत, शानदार, परन्तु जटिल प्रार्थना सिखाई, जिसका वे उस समय प्रचार कर रहे थे।
नाई को प्रार्थना सिखाकर वे अपनी मंजिल पर आगे बढ़ गये, बिना इस बात पर विचार किये कि वह अनपढ़ नाई कैसे उस कठिन प्रार्थना को याद रख सकेगा। उसी दिन रात्रि के समय जब मूसा गहरी निद्रा में सोये हुए थे, स्वयं खुदाबन्द करीम एक फ़रिश्ते के रूप में उनके स्वप्न में प्रकट हुए और कहने लगे, "क्यों रे मूसा! मैंने तुझे किस कार्य के लिये धरती पर भेजा था? क्या तुम्हारे लिये यह उचित था कि उस निर्दोष व्यक्ति की श्रद्धा और विश्वास पर कुठाराघात करो, जो विशुद्ध ह्रदय से केवल मुझे ही चाहता था? क्या तुम नहीं जानते कि इस सृष्टि में जो कुछ भी है वह मै ही हूँ?
क्या मेरे स्वरुप को व्यक्तित्व की किसी सीमा में आबद्ध किया जा सकता है, जो तुमने उसकी मान्यता का खंडन किया? क्या मै उसकी इच्छा के अनुरूप रूप धारण कर वहाँ नहीं जा सकता था, जो तुमने उसके भावभरे ह्रदय को पलभर में तोड़कर रख दिया? स्वप्न में फ़रिश्ते की यथार्थ और बोधपूर्ण बात सुनकर मूसा के प्रज्ञाचक्षु खुल गये। उस वृद्ध नाई के प्रति किये गये अपने दुर्व्यवहार पर मूसा को बड़ी शर्म आयी। प्रातः होते ही वे उस नाई के पास पहुँचे और उनसे यह कहकर क्षमायाचना की कि जो प्रार्थना आप कल कर रहे थे, उसे ही करते रहिये। अल्लाह आपसे बड़े खुश हैं। इस घटना के बाद उन्होंने फिर कभी किसी श्रद्धालु व्यक्ति की भावनाओं को चोट पहुँचाने का प्रयास नहीं किया। हजरत मूसा को तो समय रहते इसका तत्वबोध हो गया कि ईश्वर मनुष्य की भ्रामक धारणाओं से कितना परे है? पर हममे से अधिकांश लोग आज भी ईश्वर को अपने-अपने मत की संकीर्ण परिधि में ही देखते हैं। हम उसकी व्यापकता, उसके स्वरुप और व्यक्तित्व को अपने-अपने संकुचित मानसिक द्रष्टिकोण की सीमाओं से जोड़ कर ही देखते हैं। यही सभी धर्मो और सम्प्रदायों के बीच फैली कटुता और विरोधाभास का मूल कारण है। यदि हम अपने विवेक रुपी पंछी को ज्ञान के महासागर में उन्मुक्त विचरण करने देने को तैयार हो जाय, तो उस अनंत परमेश्वर की दिव्य ज्योति हम सभी में प्रसारित हो जाय और दुखों और अज्ञान की अँधेरी छटा को सदा के लिये दूर कर दे। “हमारे धुल और गन्दगी से सने हाथ-पैर तो पानी से धोने पर साफ हो जाते हैं, लेकिन मन की मलिनता प्रेम भाव से ही स्वच्छ हो सकती है। केवल कह देने से आदमी न तो पुण्यात्मा बनता है और न पापी सिर्फ। सत्कर्म और प्रभु का सुमिरन ही उसे पवित्र और निष्पाप बनाता है।”

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

दान


बात उन दिनों की है जब महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर राज्य करते थे। राजा होने के नाते वे काफी दान आदि भी करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर के रूप में फैलने लगी और पांडवों को इसका अभिमान होने लगा।

कहते हैं कि भगवान दर्पहारी हैं। अपने भक्तों का अभिमान तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। एक बार कृष्ण इंद्रप्रस्थ पहुंचे। भीम व अर्जुन ने युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की कि वे कितने बड़े दानी हैं। तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर और नहीं सुना। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, कैसे? कृष्ण ने कहा कि समय आने पर बतलाऊंगा।

बात आई गई हो गई। कुछ ही दिनों में सावन प्रारंभ हो गया व वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्राह्मण हूं और मेरा व्रत है कि बिना हवन किए कुछ भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, मुझ पर कृपा करें, अन्यथा हवन तो पूरा नहीं ही होगा, मैं भी भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।

युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार के कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया। संयोग से कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़- धूप के बाद भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ।

ब्राह्मण की आखों में चमक आ गई। भगवान ने अर्जुन व भीम को भी इशारा किया, वेष बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी वही उत्तर प्राप्त हुआ।

ब्राह्मण निराश हो गया। अर्जुन-भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान को ताकने लगे। लेकिन वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, हे देवता! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास। उसने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा, आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए। कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए ब्राह्मण के साथ अपना सेवक भी भेज दिया।

ब्राह्मण लकड़ी लेकर कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए। वापस आकर भगवान ने कहा, साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है। अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।

इस कहानी का तात्पर्य यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए कि हम उस स्थिति तक पहुंच जाएं जहां पर स्वाभाविक रूप से जीव भगवान की सेवा करता है। हमें भगवान को देखने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने को ऐसे कार्यों में संलग्न करना चाहिए कि भगवान स्वयं हमें देखें। केवल एक गुण या एक कार्य में अगर हम पूरी निष्ठा से अपने को लगा दें, तो कोई कारण नहीं कि भगवान हम पर प्रसन्न न हों। कर्ण ने कोई विशेष कार्य नहीं किया, किंतु उसने अपना यह नियम भंग नहीं होने दिया कि उसके द्वार से कोई निराश नहीं लौटेगा।

सोमवार, 1 अगस्त 2016

महर्षि वशिष्ठ-विश्वामित्र विवाद


          सतसंगत आधी घड़ी, तप के बरस हज़ार।
          तो भी नहीं बराबरी, कह्रो सुकदेव विचार।।
     गर्भ योगीश्वर महामुनी शुकदेव जी भलीभाँति विचार कर जीवों के कल्याण के लिये कथन करते हैं कि यदि एक पलड़े में आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य और दूसरी ओर सहरुा वर्षों के तप का पुण्य रखा जाये, तो भी सतसंग का पलड़ा ही भारी रहेगा। अर्थात् सहरुा वर्ष का तप भी आधी घड़ी के सत्संग की तुलना नहीं कर सकता। सत्संग की इतनी बड़ी महिमा है।
      एक बार महर्षि वसिष्ठ जी भ्रमण करते हुए महर्षि विश्वामित्र जी के आश्रम पर पधारे। महर्षि विश्वामित्र जी ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल उन्हें अर्पित किया। कुछ दिनों के उपरांत महर्षि विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के आश्रम पर गये। महर्षि वसिष्ठ जी ने भी उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में उन्हें आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य अर्पित किया। महर्षि विश्वामित्र जी को तो अपने तप का बड़ा अहंकार था। तप की तुलना में सत्संग को तो वे कोई महत्व ही नहीं देते थे, अतः वसिष्ठ जी के व्यवहार से उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने मन ही मन विचार किया कि मैने तो इऩ्हें एक सहरुा वर्ष के तप का पुण्य अर्पित किया था और यह मुझे सतसंग का पुण्य दे रहे हैं, वह भी आधी घड़ी के सत्संग का। क्या इनका ऐसा करना उचित हैं?
     यद्यपि मुख से उन्होने इस विषय में कुछ न कहा, परन्तु मनुष्य का चेहरा तो ह्मदय का दर्पण होता है। मनुष्य लाख अपने भावों को छिपाने का प्रयत्न करे, उसका चेहरा सब कुछ प्रकट कर देता है। महर्षि विश्वामित्र जी के ह्मदय के भाव भी छिपे न रह सके, उनके चेहरे पर रोष के चिन्ह झलक उठे। महर्षि वसिष्ठ जी को समझते देर न लगी कि विश्वामित्र जी के चेहरे पर ऐसे भाव क्यों उभरें हैं? अतएव उन्हें शान्त करने के लिए महर्षि वसिष्ठ जी ने सत्संग की महिमा बखान की और अनेकों प्रमाण देकर उसे तप से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। किन्तु महर्षि विश्वामित्र उनके विचारों से तनिक भी सहमत न हुए। उन्होंने कहा-तप की तुलना में सतसंग का कोई मूल्य नहीं। तप ही श्रेष्ठ है।
     इस प्रकार काफी समय तक दोनों महर्षि दलीलों द्वारा अपने अपने पक्ष को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे। जब काफी देर वाद-विवाद हो चुका और दोनों किसी परिणाम पर न पहुँचे तब महर्षि वसिष्ठ जी ने कहा-मैने जो आधी घड़ी के सत्संग का फल आपको अर्पित किया है, मेरी दृष्टि में यद्यपि वह  सहरुा वर्ष के तप से बढ़कर है, परन्तु आप ऐसा नहीं समझते। वाद-विवाद से तो यह मसला हल होने से रहा, क्यों न किसी अन्य से इसका निर्णय करा लिया जाये? आपस में वाद-विवाद करने से क्या लाभ? महर्षि विश्वामित्र इस बात पर सहमत हो गये। ऋषियों मुनियों की सभा बुलाई गई, परन्तु ब्राहृर्षियों के विवाद का निर्णय ऋषि-मुनि करें, यह कहाँ सम्भव था? जब वहाँ निर्णय न हुआ तो दोनों ने ब्राहृा जी के पास जाने का निश्चय किया। दोनों ब्राहृलोक पहुँचे और पूरी बात बतला कर इस विषय में ब्राहृा जी से अपना निर्णय देने के लिये कहा। ब्राहृा जी ने मन में सोचा कि ये दोनों ही ब्राहृर्षि हैं। मैं जिसके पक्ष में निर्णय दूँगा वह तो प्रसन्न हो जायेगा, परन्तु जिसके विपरीत निर्णय होगा, उसके कोप का भाजन तो मुझे ही बनना पड़ेगा। इसलिये इनके विवाद में पड़ने की अपेक्षा उन्हें किसी अन्य के पास भेज देना ही उचित है। यह सोचकर उन्होने कहा-सृष्टि के कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण सतसंग तथा तप आदि विषयों की गहनता पर विचार करने का कभी मुझे अवसर ही नहीं मिला, इसलिये इस विषय में किसी प्रकार का निर्णय देने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। आप लोग शिवजी के पास जायें। वे तपीश्वर हैं, अतः वे ही इसका निर्णय भली प्रकार कर सकते हैं।
     दोनों महर्षि कैलाश पर्वत पर शिवजी के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बताई। शिवजी ने भी उनके झगड़े में पड़ने की अपेक्षा उन्हें टालना ही उचित समझा, अतः उन्होने कहा- जब से मैने हलाहल का पान किया है, तब से मेरा चित्त स्थिर नहीं है। जब तक चित्त स्थिर न हो, तब तक किसी विषय पर निर्णय देना कठिन ही नहीं असम्भव है। इसलिये आप लोग भगवान विष्णु से अपने विवाद का निर्णय करायें, वही इसका सही निर्णय कर सकते हैं। महर्षि वसिष्ठ तथा महर्षि विश्वामित्र वहां से चल कर विष्णु लोग पहुँचे और अपना विवाद उनके समक्ष प्रस्तुत कर निर्णय देने के लिये कहा। भगवान विष्णु नेत्र मूँदकर कुछ देर न जाने क्या सोचते रहे, फिर प्रकट में बोले-सतसंग और तप का महात्मय वही जान सकता है और इन दोनों में कौनसा साधन श्रेष्ठ है, इस बात का निर्णय भी वही कर सकता है, जो स्वयं इन साधनों में लगा हुआ हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं है, फिर भला इनका निर्णय मैं कैसे कर सकता हूँ। मेरे विचार में इनका निर्णय करने में शेष जी ही समर्थ हैं। वे मस्तक पर पृथ्वी उठाये निरन्तर तप करते रहते हैं, और अपने सहरुा मुखों से सत्संग करते रहते हैं। इसलिये आप दोनों उन्हीं के पास जायें तो ठीक रहेगा। दोनों महर्षि शेष जी के पास पाताल जा पहुँचे। उनका विवाद सुनकर शेष जी बोले-आप दोनों महानुभाव देख ही रहे हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी का बोझ मेरे मस्तक पर है। इस बोझ के होते हुये किसी विषय पर विचार करना और फिर उसपर अपना सही निर्णय देना मेरे लिये असम्भव है। आपमें से कोई अपने प्रभाव से इस पृथ्वी को कुछ क्षण के लिये अधर में रोक ले जिससे कि मैं स्वस्थ चित्त होकर इस समस्या पर कुछ विचार कर सकूं।
     महर्षि विश्वामित्र को अपने तप का अभिमान तो था ही और उन्हें विश्वास भी था कि इस विवाद में विजय उन्हीं की होगी, अतः उन्होने तुरन्त अंजलि में जल लेकर संकल्प करते हुये कहा-मैं अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल अर्पित करता हूँ, पृथ्वी कुछ समय के लिये आकाश में स्थिर रहे। किन्तु पृथ्वी अपने स्थान से टस से मस न हुई। तब शेष जी ने महर्षि वशिष्ठ जी की ओर देखकर कहा-आप ही इस पृथ्वी को अधर में स्थिर करें ताकि मैं स्वस्थ चित्त होकर आपकी समस्या पर विचार कर सकूँ। ब्राहृर्षि जी अंजलि में जल लेकर संकल्प  करते हुये बोले-मैं आधी घड़ी के अपने सत्संग का पुण्य अर्पित कर निवेदन करता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षण अधर में टिकी रहें। उनके ऐसा कहते ही पृथ्वी शेष जी के फणों से ऊपर उठकर निराधार स्थित हो गई। आधी घड़ी का सत्संग श्रेष्ठ है अथवा सहरुावर्ष का तप-इसका निर्णय अपने आप ही हो गया, शेषजी को कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। सत्संग का स्पष्ट प्रताप देखकर विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के चरणों में नतमस्तक हो गये। उन्होंने सत्संग की महानता स्वीकार कर ली।
     ऐसा महान प्रताप है सतसंग का। यही कारण है कि सभी सद्ग्रन्थों एवं सन्तों सत्पुरुषों ने सतसंग की मुक्त कंठ से महिमा गायन की है और इसकी प्राप्ति को सौभाग्य का चिन्ह बतलाया है। श्री रामायण में वर्णन है कि
:-बड़े भाग पाइय सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा।। अर्थात् बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है जिससे बिना किसी परिश्रम एवं प्रयास के ही जन्म-मरण का चक्र नष्ट हो जाता है।
सत्संगत में ज्ञान मिलत है, मिटत सकल दुःख द्वन्द्व। ज्ञान प्रताप चौरासी छूटै, टूटें जम के फंद।।
फरमाते हैं कि सत्संगति में ही ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान के प्रताप से दुःख,कष्ट, क्लेश आदि नष्ट हो जाते हैं और यमराज के बंधन टूट जाते हैं, जिससे चौरासी के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। जीव भव सागर से पार हो जाता है। गुरुमुख जन बड़े सौभाग्य शाली हैं जिन्हें समय के सन्त सत्पुरुषों की शुभ संगति उनका सत्संग प्राप्त है इसलिये गुरुमुखों का कर्तव्य है कि सन्तों महापुरुषों के हितकारी उपदेश को ह्मदयंगम कर नित्यप्रति सत्संग करें और सत्संग से पूरा पूरा लाभ उठाते हुए अपने जीवन का कल्याण करें।