सोमवार, 1 अगस्त 2016

महर्षि वशिष्ठ-विश्वामित्र विवाद


          सतसंगत आधी घड़ी, तप के बरस हज़ार।
          तो भी नहीं बराबरी, कह्रो सुकदेव विचार।।
     गर्भ योगीश्वर महामुनी शुकदेव जी भलीभाँति विचार कर जीवों के कल्याण के लिये कथन करते हैं कि यदि एक पलड़े में आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य और दूसरी ओर सहरुा वर्षों के तप का पुण्य रखा जाये, तो भी सतसंग का पलड़ा ही भारी रहेगा। अर्थात् सहरुा वर्ष का तप भी आधी घड़ी के सत्संग की तुलना नहीं कर सकता। सत्संग की इतनी बड़ी महिमा है।
      एक बार महर्षि वसिष्ठ जी भ्रमण करते हुए महर्षि विश्वामित्र जी के आश्रम पर पधारे। महर्षि विश्वामित्र जी ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल उन्हें अर्पित किया। कुछ दिनों के उपरांत महर्षि विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के आश्रम पर गये। महर्षि वसिष्ठ जी ने भी उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में उन्हें आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य अर्पित किया। महर्षि विश्वामित्र जी को तो अपने तप का बड़ा अहंकार था। तप की तुलना में सत्संग को तो वे कोई महत्व ही नहीं देते थे, अतः वसिष्ठ जी के व्यवहार से उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने मन ही मन विचार किया कि मैने तो इऩ्हें एक सहरुा वर्ष के तप का पुण्य अर्पित किया था और यह मुझे सतसंग का पुण्य दे रहे हैं, वह भी आधी घड़ी के सत्संग का। क्या इनका ऐसा करना उचित हैं?
     यद्यपि मुख से उन्होने इस विषय में कुछ न कहा, परन्तु मनुष्य का चेहरा तो ह्मदय का दर्पण होता है। मनुष्य लाख अपने भावों को छिपाने का प्रयत्न करे, उसका चेहरा सब कुछ प्रकट कर देता है। महर्षि विश्वामित्र जी के ह्मदय के भाव भी छिपे न रह सके, उनके चेहरे पर रोष के चिन्ह झलक उठे। महर्षि वसिष्ठ जी को समझते देर न लगी कि विश्वामित्र जी के चेहरे पर ऐसे भाव क्यों उभरें हैं? अतएव उन्हें शान्त करने के लिए महर्षि वसिष्ठ जी ने सत्संग की महिमा बखान की और अनेकों प्रमाण देकर उसे तप से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। किन्तु महर्षि विश्वामित्र उनके विचारों से तनिक भी सहमत न हुए। उन्होंने कहा-तप की तुलना में सतसंग का कोई मूल्य नहीं। तप ही श्रेष्ठ है।
     इस प्रकार काफी समय तक दोनों महर्षि दलीलों द्वारा अपने अपने पक्ष को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे। जब काफी देर वाद-विवाद हो चुका और दोनों किसी परिणाम पर न पहुँचे तब महर्षि वसिष्ठ जी ने कहा-मैने जो आधी घड़ी के सत्संग का फल आपको अर्पित किया है, मेरी दृष्टि में यद्यपि वह  सहरुा वर्ष के तप से बढ़कर है, परन्तु आप ऐसा नहीं समझते। वाद-विवाद से तो यह मसला हल होने से रहा, क्यों न किसी अन्य से इसका निर्णय करा लिया जाये? आपस में वाद-विवाद करने से क्या लाभ? महर्षि विश्वामित्र इस बात पर सहमत हो गये। ऋषियों मुनियों की सभा बुलाई गई, परन्तु ब्राहृर्षियों के विवाद का निर्णय ऋषि-मुनि करें, यह कहाँ सम्भव था? जब वहाँ निर्णय न हुआ तो दोनों ने ब्राहृा जी के पास जाने का निश्चय किया। दोनों ब्राहृलोक पहुँचे और पूरी बात बतला कर इस विषय में ब्राहृा जी से अपना निर्णय देने के लिये कहा। ब्राहृा जी ने मन में सोचा कि ये दोनों ही ब्राहृर्षि हैं। मैं जिसके पक्ष में निर्णय दूँगा वह तो प्रसन्न हो जायेगा, परन्तु जिसके विपरीत निर्णय होगा, उसके कोप का भाजन तो मुझे ही बनना पड़ेगा। इसलिये इनके विवाद में पड़ने की अपेक्षा उन्हें किसी अन्य के पास भेज देना ही उचित है। यह सोचकर उन्होने कहा-सृष्टि के कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण सतसंग तथा तप आदि विषयों की गहनता पर विचार करने का कभी मुझे अवसर ही नहीं मिला, इसलिये इस विषय में किसी प्रकार का निर्णय देने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। आप लोग शिवजी के पास जायें। वे तपीश्वर हैं, अतः वे ही इसका निर्णय भली प्रकार कर सकते हैं।
     दोनों महर्षि कैलाश पर्वत पर शिवजी के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बताई। शिवजी ने भी उनके झगड़े में पड़ने की अपेक्षा उन्हें टालना ही उचित समझा, अतः उन्होने कहा- जब से मैने हलाहल का पान किया है, तब से मेरा चित्त स्थिर नहीं है। जब तक चित्त स्थिर न हो, तब तक किसी विषय पर निर्णय देना कठिन ही नहीं असम्भव है। इसलिये आप लोग भगवान विष्णु से अपने विवाद का निर्णय करायें, वही इसका सही निर्णय कर सकते हैं। महर्षि वसिष्ठ तथा महर्षि विश्वामित्र वहां से चल कर विष्णु लोग पहुँचे और अपना विवाद उनके समक्ष प्रस्तुत कर निर्णय देने के लिये कहा। भगवान विष्णु नेत्र मूँदकर कुछ देर न जाने क्या सोचते रहे, फिर प्रकट में बोले-सतसंग और तप का महात्मय वही जान सकता है और इन दोनों में कौनसा साधन श्रेष्ठ है, इस बात का निर्णय भी वही कर सकता है, जो स्वयं इन साधनों में लगा हुआ हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं है, फिर भला इनका निर्णय मैं कैसे कर सकता हूँ। मेरे विचार में इनका निर्णय करने में शेष जी ही समर्थ हैं। वे मस्तक पर पृथ्वी उठाये निरन्तर तप करते रहते हैं, और अपने सहरुा मुखों से सत्संग करते रहते हैं। इसलिये आप दोनों उन्हीं के पास जायें तो ठीक रहेगा। दोनों महर्षि शेष जी के पास पाताल जा पहुँचे। उनका विवाद सुनकर शेष जी बोले-आप दोनों महानुभाव देख ही रहे हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी का बोझ मेरे मस्तक पर है। इस बोझ के होते हुये किसी विषय पर विचार करना और फिर उसपर अपना सही निर्णय देना मेरे लिये असम्भव है। आपमें से कोई अपने प्रभाव से इस पृथ्वी को कुछ क्षण के लिये अधर में रोक ले जिससे कि मैं स्वस्थ चित्त होकर इस समस्या पर कुछ विचार कर सकूं।
     महर्षि विश्वामित्र को अपने तप का अभिमान तो था ही और उन्हें विश्वास भी था कि इस विवाद में विजय उन्हीं की होगी, अतः उन्होने तुरन्त अंजलि में जल लेकर संकल्प करते हुये कहा-मैं अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल अर्पित करता हूँ, पृथ्वी कुछ समय के लिये आकाश में स्थिर रहे। किन्तु पृथ्वी अपने स्थान से टस से मस न हुई। तब शेष जी ने महर्षि वशिष्ठ जी की ओर देखकर कहा-आप ही इस पृथ्वी को अधर में स्थिर करें ताकि मैं स्वस्थ चित्त होकर आपकी समस्या पर विचार कर सकूँ। ब्राहृर्षि जी अंजलि में जल लेकर संकल्प  करते हुये बोले-मैं आधी घड़ी के अपने सत्संग का पुण्य अर्पित कर निवेदन करता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षण अधर में टिकी रहें। उनके ऐसा कहते ही पृथ्वी शेष जी के फणों से ऊपर उठकर निराधार स्थित हो गई। आधी घड़ी का सत्संग श्रेष्ठ है अथवा सहरुावर्ष का तप-इसका निर्णय अपने आप ही हो गया, शेषजी को कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। सत्संग का स्पष्ट प्रताप देखकर विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के चरणों में नतमस्तक हो गये। उन्होंने सत्संग की महानता स्वीकार कर ली।
     ऐसा महान प्रताप है सतसंग का। यही कारण है कि सभी सद्ग्रन्थों एवं सन्तों सत्पुरुषों ने सतसंग की मुक्त कंठ से महिमा गायन की है और इसकी प्राप्ति को सौभाग्य का चिन्ह बतलाया है। श्री रामायण में वर्णन है कि
:-बड़े भाग पाइय सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा।। अर्थात् बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है जिससे बिना किसी परिश्रम एवं प्रयास के ही जन्म-मरण का चक्र नष्ट हो जाता है।
सत्संगत में ज्ञान मिलत है, मिटत सकल दुःख द्वन्द्व। ज्ञान प्रताप चौरासी छूटै, टूटें जम के फंद।।
फरमाते हैं कि सत्संगति में ही ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान के प्रताप से दुःख,कष्ट, क्लेश आदि नष्ट हो जाते हैं और यमराज के बंधन टूट जाते हैं, जिससे चौरासी के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। जीव भव सागर से पार हो जाता है। गुरुमुख जन बड़े सौभाग्य शाली हैं जिन्हें समय के सन्त सत्पुरुषों की शुभ संगति उनका सत्संग प्राप्त है इसलिये गुरुमुखों का कर्तव्य है कि सन्तों महापुरुषों के हितकारी उपदेश को ह्मदयंगम कर नित्यप्रति सत्संग करें और सत्संग से पूरा पूरा लाभ उठाते हुए अपने जीवन का कल्याण करें।

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